पशुपालन में बुनियादी बदलाव की हो पहल

By: Feb 20th, 2017 12:02 am

( कुलभूषण उपमन्यु लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं )

बढ़ती बेरोजगारी में पशुपालन को स्वरोजगार का माध्यम बनाया जा सकता है। इसके लिए 10 पशु तक की छोटी- छोटी डेयरी इकाइयों को ब्याजमुक्त ऋण दे कर प्रोत्साहित करना चाहिए। दूध की पैदावार बढ़ने के साथ- साथ छोटे- छोटे दूध प्रसंस्करण संयंत्र लगाए जाने चाहिए…

हिमाचल प्रदेश मूलतः पशुपालक समाज रहा है। स्थानीय बोलियों में पशुधन को माल कहा जाता है। हर परिवार पशुपालक होता था। यहां तक कि हिमाचल के शहरों में भी लोग एक-दो गाय पाल लेते थे। पशुपालन की गलत नीतियों के कारण आज लोग पशुपालन से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिकता का प्रभाव, नए- नए व्यवसायों की ओर रुझान और शारीरिक श्रम के लिए घटता आदर भी इसके पीछे का कारण है, लेकिन सबसे बड़ा कारण तो गोपालन का महंगा और अलाभकारी होते जाना है। कोई काम लाभकारी होता है, तो लोग उसे स्वयं अपनाने लगते हैं। पशुपालन के लाभ में कमी का मुख्य कारण चारे का बढ़ता अभाव और चरागाहों का विनाश है। हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्य में जहां केवल 10 प्रतिशत ही कृषि भूमि है, वहां कृषि भूमि से चारा पैदा करके पशुपालन करना संभव नहीं है। प्रदेश में 50 वर्षों से चरागाहों का क्षेत्र लगातार घटता जा रहा है। चीड़ रोपण और खरपतवारों के आक्रमण से चरागाह अनुत्पादक हो गए हैं। पंजाब से आयातित चारा 10 से 15 रुपए प्रति किलो बिक रहा है। इतने महंगे भाव पर चारा खरीद कर पशुपालन लाभकारी नहीं हो सकता है। परिणामस्वरूप बहुत से पशु लावारिस छोड़ दिए जा रहे हैं, जिससे खेती का नुकसान हो रहा है। लंबी गुलामी के कारण भारतीय समाज हीनता की ग्रंथि का शिकार हो चुका है और तर्क छोड़ कर हर विदेशी बात और वस्तु को अच्छा मान बैठता है। आजादी के बाद पशुपालन को प्रोत्साहन देने के अच्छे प्रयास हुए, किन्तु बिना गहरी समझ का प्रयोग किए विदेशी नस्लों के प्रसार के बूते  यह कार्य करने की दिशा पकड़ी गई। दूध उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन ये यूरोपीय नस्लें बहुत ज्यादा चारा खाती हैं। ये गउएं 5-6 ब्यांत के बाद दूध देने योग्य नहीं रहतीं, जबकि देशी नस्लें 10-15 ब्यांत तक दूध दे सकती हैं। इन यूरोपीय नस्लों के दूध की गुणवत्ता भी घटिया और हानिकारक दर्जे की पाई गई है।

इन नस्लों का दूध ए-1 बीटा प्रोटीन युक्त होता है। देशी नस्लों का दूध ए-2 बीटा प्रोटीन युक्त होता है। बीटा प्रोटीन कई प्रकार के एमिनो अम्लों के योग से बनते हैं। ए-1 प्रकार के दूध में 67वें एमीनो अम्ल की बनावट अलग है। इसमें 67 वां एमीनो अम्ल हिस्टीडीन है। पाचनक्रिया  के दौरान जब प्रोटीन का विघटन होता है, तो हिस्टीडीन से बीसीएम-7 (बीटा कैथो मार्फिन) यौगिक का निर्माण होता है। यह पेंक्रियाज के सैल्ज को मारने का काम करता है। इससे इंसुलिन बनने की मात्रा कम हो जाती है और टाइप-1 मधुमेह पैदा होता है। कम उम्र में मधुमेह होने का यह मुख्य कारण है। इससे कैंसर और हृदय धमनी अवरोध का खतरा भी बढ़ जाता है। राष्ट्रीय पशु अनुवांशिकी अनुसंधान संस्थान करनाल के डा. देवेंद्र सदाना के अनुसार लगभग सभी देशी नस्लों के दूध में 67वां एमीनो अम्ल प्रोलीन होता है। इससे बीसीएम-7 यौगिक नहीं बनता है। यह पूर्ण सुरक्षित है। इस दूध को ए-2 प्रकार का कहा जाता है। यह प्रचार भी भ्रामक है कि देशी नस्ल की गायों की दूध देने की क्षमता कम होती है। हमारे देश में साहीवाल, थार पारकर, कांकरेज, मेवाती, नागौरी, लाल सिंधि, बछौर, गीर, मालवी, अमृत महल और विचुर आदि अच्छी नस्लें हैं। अनुवांशिक रूप से इनमें दूध देने की अच्छी क्षमता है। ब्राजील ने गीर नस्ल की गाय से 62 किलो दूध प्रतिदिन तक प्राप्त किया है। कामधेनु गोशाला नूरमहल (पंजाब) के पास 20 किलो प्रतिदिन दूध देने वाली साहीवाल नस्ल की गउएं हैं। चयनित प्रजनन पद्धति से यह सुधार हो सकता है। गीर, थार पारकर और लाल सिंधि इनमें बहुत अच्छी हैं। हिमाचल में साहीवाल और लाल सिंधि सफल हो सकती हैं। थार पारकर भी सफल हो सकती है क्योंकि यह काफी गर्मी और सर्दी सहन करने की क्षमता रखती है। इनका दूध ए-2 प्रकार का होने के कारण बच्चों, बूढों और बीमारों के लिए विशेष लाभकारी है। आस्ट्रेलिया में देशी नस्ल के दूध को 5 गुना तक भाव से बेचा जाता है। कई ऐसी गोशालाएं भारत में ही हैं, जो गोबर और गोमूत्र को गाय की मुख्य पैदावार मानकर काम कर रही हैं।

देशी नस्ल की गाय के गोबर में यूरोपीय नस्लों के मुकाबले 50 गुना सूक्ष्म जीवाणु होते हैं। सही तरीके से इसकी खाद बना कर महंगी रासायनिक खेती से छुटकारा पाया जा सकता है। देशी गोमूत्र यूरिया की कमी दूर करने के साथ साथ फसलों के लिए कीटनाशक दवाएं बनाने के काम भी आ रहा है। बजट प्रावधानों से इस दिशा में प्रयास आरंभ होने चाहिए। चरागाह विकास और खरपतवार उन्मूलन को प्राथमिकता दी जाए। बढ़ती बेरोजगारी में पशुपालन को स्वरोजगार का माध्यम बनाया जा सकता है। इसके लिए 10 पशु तक की छोटी- छोटी डेयरी इकाइयों को ब्याजमुक्त ऋण दे कर प्रोत्साहित करना चाहिए। दूध की पैदावार बढ़ने के साथ- साथ छोटे- छोटे दूध प्रसंस्करण संयंत्र लगाए जाने चाहिए। देशी नस्लों के विभिन्न लाभों को देखते हुए और 10-15 ब्यांतों तक दूध देने की क्षमता को देखते हुए इनके प्रसार का कार्य युद्ध स्तर पर किया जाना चाहिए। रासायनिक कृषि से मुक्ति के लिए बैल आधारित कृषि को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए और बैलों से खेती को नष्ट करने वाली मशीनों को प्रोत्साहन बंद किया जाना चाहिए। गोबर और गोमूत्र का व्यावसायिक प्रसंस्करण करने की व्यापक व्यवस्थाएं शुरू की जाएं। गोबर गैस उत्पादन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। 4 हजार फुट ऊंचाई तक के क्षेत्रों में यह कामयाब है। फॉसिल ईंधनों पर उपदान देने से यह ज्यादा अच्छा है। इससे स्वावलंबी स्वदेशी व्यवस्था खड़ी होगी और युवकों को सम्मानजनक रोजगार घर द्वार दिया जा सकेगा।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App