बच्चों के नैतिक विकास में विद्यालय और परिवार की भूमिका

By: Feb 22nd, 2017 12:05 am

वीआर राणा, नवाही

व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है और इसी में उसका अस्तित्व निहित है। यह सर्वविदित है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। ऐसी स्थिति में समाज में हर व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह समाज को आदर्श एवं सुव्यवस्थित रखने में मदद करता रहे। इसी संदर्भ में नैतिकता का विकास अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान परिवेश में व्यक्ति के चारित्रिक विकास में कमी आई है, इसलिए आवश्यक है कि विद्यार्थियों में आरंभ से नैतिकता उत्पन्न करने के लिए प्रयत्न किए जाएं। इस संकल्प को साकार करने के लिए शिक्षा प्रदान करने में शिक्षकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है, परंतु इस क्रम में पारिवारिक सहयोग भी नितांत आवश्यक रहता है। विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए पाठ्य विषयों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए शिक्षकों और अभभावकों को भी अपने सद्व्यवहार से छात्रों को प्रभावित करने के लिए सजग रहना चाहिए। मात्र उपदेश देकर अपेक्षित सफलता हासिल नहीं की जा सकती। विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे आत्मसात करवाना अनिवार्य होता है और धीरे-धीरे वह व्यक्तित्व का अंग बन जाती है। विद्यार्थी जीवन में गलती होना स्वाभाविक ही होता है, परंतु नैतिक शिक्षा प्रदान करने पर उसका विवेक जागृत हो जाता है, उसमें अकलमंदी और बेवकूफी, अच्छे और बुरे, सौम्यता और अश्लीलता के बीच चुनाव करने की काबिलीयत आ जाती है। विद्यार्थियों को नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ बनाने के लिए अनुशासन बहुत ही जरूरी है। अनुशासन का अर्थ स्वयं पर अंकुश लगाकर मर्यादित रहने से है।

किसी भी सिस्टम में कुछ नीति नियम होते हैं। इनका अनुसरण करना ही अनुशासन है। अकसर यह देखा गया है कि जो बच्चे अनुशासन के माहौल में पलते हैं, वे ज्यादा आदर करने वाले और कानून का पालन करने वाले नागरिक बनते हैं। इसलिए परिवार और विद्यालयों में ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए कि वे अपने आचरण और व्यवहार से बच्चों के सामने आदर्श प्रस्तुत करें। अभिभावकों और शिक्षकों की करनी और कथनी में अंतर रहेगा तो विद्यार्थियों पर उनकी नसीहतों का असर नहीं पड़ेगा। अनुशासन में रहकर एक विद्यार्थी आजीवन चारित्रिक रूप से दृढ़ रहेगा। देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए अनुशासित नागरिकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।

जे. एडगर हूबर के कथनानुसार यदि हर घर में अनुशासन का पालन किया जाए, तो युवाओं द्वारा किए गए अपराधों में 95 प्रतिशत तक की कमी आ जाएगी। नैतिक शिक्षा के संदर्भ में परोपकार भाव का महत्त्व भी अद्वितीय है, जिस मन में परोपकार की भावना बलवती है, वह सदा मुस्कराता है। परिवार और विद्यालयों, दोनों स्तरों पर परोपकार की भावना का विकास आवश्यक है। यदि परिवार के सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर रहें और आस-पड़ोस में सहयोग दें, जरूरतमंदों की मदद करें तो बच्चों में एक-दूसरे की भलाई करने के लिए तत्परता बढ़ेगी। परोपकार की भावना के लिए प्रकृति भी प्रेरणा हर पल देती है, लेकिन फिर भी हम इसके शिक्षण से अनजान रहते हैं। प्यासे को पानी पिलाना, बीमार या घायल को अस्पताल ले जाना, वृद्धों व अपाहिजों को बस में सीट देना, अंधों को सड़क पार करवाना, भूखे को रोटी आदि परोपकार के रूप हैं, जिनसे विद्यार्थियों को अवगत करवाना आवश्यक रहता है। विद्यार्थियों में नैतिक मूल्यों के समावेश करने के क्रम में समय के महत्त्व से अवगत करवाना भी जरूरी है। एक अच्छा विद्यार्थी कभी भी अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता। समय का सही तरीके से सदुपयोग करने वाले के घर में किसी प्रकार की समस्या नहीं होती है।

परिवार के सदस्य निर्धारित सभी काम समय पर करें। स्कूल में शिक्षक नियत समय पर कक्षा में जाए और सुनिश्चित करे कि स्कूल में सभी गतिविधियां समय पर संपन्न हों, तो इनका प्रभाव विद्यार्थियों पर अवश्य ही पड़ेगा और वे समय के मूल्यों को पहचान कर उसके अनुरूप कार्य करने लगेंगे। विद्यार्थियों में नैतिक बोध करवाने के लिए जरूरी है कि उनमें सहनशीलता का भाव उत्पन्न किया जाए। इस क्रम में विद्यार्थियों को सभी धर्मों के रीति- रिवाजों से परिचय करवाना अनिवार्य है। स्कूलों में ऐसे आयोजन करवाए जाएं, जिनमें सर्वधर्म समन्वय का भाव उभरता हो।

यदि विद्यार्थियों में उपरोक्त गुणों का समाहार किया जाए तो अन्य गुण संभवतः अपने आप समाविष्ट हो जाएंगे। निष्कर्ष में समाज को उन्नत करने के लिए विद्यार्थियों में नैतिकता का होना आवश्यक है, इसके लिए पारिवारिक और विद्यालय स्तर पर निरंतर प्रयास करना जरूरी है, जिसमें अभिभावकों और शिक्षकों को अपने व्यक्तित्व के माध्यम से विद्यार्थियों में वांछित गुणों को समाहित करें।


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