श्री विश्वकर्मा पुराण

By: Feb 4th, 2017 12:05 am

एक समय की बात थी। दैत्य अपने पुत्र को भगवान का नाम छोड़ने के लिए धमका रहा था। जब बालक अपने पिता की दुष्टता छोड़ने तथा प्रभु में चित्त लगाने एवं सन्मार्ग से चलने की शिक्षा देता था। लड़का बाप को शिक्षा दे रहा था, वह भी हिरण्यकश्यप जैसा अहंकारी दैत्य। किस तरह सहन करे वह अकड़ कर उठा और कहने लगा, तेरा भगवान कहां है बता, प्रह्लाद बोला, पिताजी मेरे प्रभु तो घट-घट में बसते हैं। वह तो सर्वत्र हैं, जो मनुष्य सच्चे भाव से उन्हें देखने की इच्छा करे, उसे मेरे प्रभु अवश्य दिखते हैं। पुत्र के ऐसे वचन से उसका क्रोध अनेक गुना बढ़ गया उस दैत्य ने एक तपाए हुए लोहे के खंभे को बताकर पुत्र से कहा, हे मूर्ख बालक तेरा प्रभु सर्वत्र है, तो इस खंभे में भी होगा। इसलिए इस खंभे को दोनों हाथों से भरकर पकड़ उसी समय एक नई बात बालक के देखने में आई। उसने धधकते हुए खंभे के ऊपर एक चींटी को चलते हुए देखा। इससे उसे निश्चय हो गया कि इस चींटी को गर्म अंगार जैसे खंभे के ऊपर भी जीवित रखने वाला मेरा प्रभु खंभे में जरूर ही होना चाहिए। इसलिए इस खंभे को दोनों हाथों द्वारा  भरने में मुझे कोई चिंता नहीं दिखती है। ऐसा विचार करके वह बालक तुरंत ही खंभे को पकड़ने के लिए दौड़ा। भगवान प्रह्लाद का यह चरित्र देखकर अति विहवल बन गए। अपने परमभक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए अति दुष्ट स्वभाव वाले पापी हिरण्यकश्यप को योग्य शिक्षा देने को प्रभु स्वयं तत्पर हुए । ब्रह्मा का वरदान जिसने प्राप्त किया है, वह दुष्ट राक्षस किसी भी देवता से मृत्यु पावे। इससे सबको ऐसा लगता था कि पल मात्र में ही प्रह्लाद नहीं है, ऐसा हो जाएगा। उस पापी दैत्य को वरदान देने से ब्रह्माजी लाचार थे, क्योंकि उन्होंने तो ऐसा वरदान दे ही दिया था कि मनुष्य तथा राक्षस एवं देवता भी न मार सकें और तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी न मार सके। इस वरदान के कारण सभी देवता भी लाचार थे। वह प्रह्लाद की ऐसी स्थिति देखकर हृदय में दुख का अनुभव करने लगे थे। अब प्रह्लाद का क्या हो, यह देखने को आकाश में आकर खड़े रहे सभी देवताओं की इस लाचारी को देखकर तथा अपने भक्त की भयंकर दयाजनक स्थिति देखकर दुष्टों का वध करने का जिन्होंने निश्चय किया है। ऐसे विराट पुरुष तुरंत ही वहां आ पहुंचे तथा प्रह्लाद जैसे ही खंभे को पकड़ने चला कि उसी समय भयंकर आवाज के साथ खंभे को फाड़कर प्रभु नृसिंह रूप धारण करके प्रकट हुए और उन्होंने दुष्ट हिरण्यकश्यप का नाश किया। ब्रह्मादिक देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर प्रह्लाद को उसके पिता की राजगद्दी के ऊपर बिठाया और अनेक उत्तम वरदान देकर अपने भक्त का मन प्रसन्न करके प्रभु अंतर्ध्यान हो गए। प्रह्लाद ने प्रभु से ऐसा वरदान मांगा था कि मेरे कुल में प्रभु के भक्त उत्पन्न हों और निरंतर प्रभु की मेरे कुल के ऊपर प्रीति रहे। प्रह्लाद को प्रभु ने दिए इस वरदान को सच्चा करने के लिए प्रह्लाद के कुल में प्रभु के भक्त बलि राजा का जन्म हुआ। यह बलि राजा भगवान का परम भक्त था, उसने अनेक प्रकार से ब्रह्मादिक सभी देवों को प्रसन्न किया था और इस कारण से उसको भी किसी देवता से भय न  था। इस बलि राजा ने महान यज्ञ किए थे और इस तरह उसने प्रभु को अत्यंत प्रसन्न किया था। बलि राजा ने सौ अश्वमेध यज्ञ करके इंद्र बनने की इच्छा की तरह यज्ञ करने के लिए बलि राजा ने अपने पुरोहित शुक्राचार्य को बुलाया और उनके साथ बातचीत करके यह काम किस तरह पूरा करना इसका निश्चय कर लिया।


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