संगीत-काव्य और नृत्य हैं रंगमंच के मूल तत्त्व

By: Feb 1st, 2017 12:05 am

हिमाचल प्रदेश में लोकनृत्यों का अध्ययन किया जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिमाचल प्रदेश के लोकनृत्य की सजीव कल्पना की उपमा यदि मां दुर्गा की असंख्य भुजाओं से या नृत्य के अधिष्ठाता नटराज शिव की 12 तांडव मुद्राओं से की जाए, तो निराधार न होगी…

हिमाचल में वीर रस से भरे लोकनृत्य

लेकिन इतिहासकारों और नृत्यकला समीक्षकों की धारणा है कि स्थानीय आंचलिक लोकनृत्य ही धीरे-धीरे समय और सभ्यता के विकास के साथ-साथ विकसित होकर श्रेष्ठ परिष्कृत चिरंजीवी नृत्यु शैली के रूप में उभरकर सामने आए, जिन्हें भरत मुनि ने सिद्धांत का रूप दिया। भारत में लोकधर्मी नाट्य परंपराएं अपना रूप ग्रहण कर चुकी थीं। इन परंपराओं ने ही ‘नाट्यशास्त्र’ की निर्माणकला का काम किया। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र रंगमंच पर एक वृहत् कोण है। इस शास्त्र के 37 अध्यायों में से पांच सीधे नृत्य से संबंधित हैं। रंगमंच, नृत्य, नाटक, संगीत वक्तृत्वकला, अलंकारशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण पर अलग-अलग अध्याय हैं। फिर भी भारतीय परंपरा में सभी प्रकार की प्लास्टिक और अभिनय कला नाटक और रंगमंच द्वारा पराकाष्ठा पर पहुंची है। नाट्यशास्त्र में भरत मुनि के नृत्य के दो भाग किए हैं। एक नृत्य अमूर्त रुढ़शैली के अनुसार अंकित गति और मुद्रा का प्रदर्शन और दूसरा नृत्य व्याख्यात्मा नृत्य, जिसके द्वारा प्रत्येक गति और चेष्टा को अर्थपूर्ण बनाया जाता है। इसके साथ-साथ नृत्य में तांडव नृत्य गतिशीलता और पुरुषोचित गुणों के लिए प्रसिद्ध है। भारत के सभी नृत्यों के मूल में इन दो प्रमुख नृत्यों की भाव भूमि है। निःसंदेह नृत्य की अपनी भाषा होती है, जिसे हम चेष्टा या कृत्य (हाव-भाव) द्वारा व्याख्यात्मक और अलंकारिक भाषा कह सकते हैं। इस सांकेतिक भाषा में हाथ और अंगुलियों की 108 मुद्राओं द्वारा बोले गए शब्दों की तरह प्रभावशाली अभिव्यक्ति होती है। भारतीय परंपरागत रंगमंच के तीन मूल तत्त्व हैं- संगीत, काव्य एवं नृत्य। इनका परस्पर गहरा संबंध है और पूर्ण सफलता के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यदि हिमाचल प्रदेश में लोकनृत्यों का अध्ययन किया जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिमाचल प्रदेश के लोकनृत्य की सजीव कल्पना की उपमा यदि मां दुर्गा की असंख्य भुजाओं से या नृत्य के अधिष्ठाता नटराज शिव की 12 तांडव मुद्राओं से की जाए, तो निराधार न होगी। एक ओर एकीकृत नीरवता, शांत समचित्तता की प्रतीक हैं और दूसरी ओर विभिन्न रूप में शक्ति का सतत अभिनय है। लोकधर्मी नृत्यों की पृष्ठभूमि भी प्राचीन परंपरा की कडि़यों से निरंतर जुड़ी  रहती है, क्योंकि उसमें मिट्टी की भीनी गंध सदा सुवासित रहती है। हिमाचल प्रदेश में लोकगीत अत्यंत मधुर, आनंद-दायक और लयात्मक हैं। इन लोकगीतों की झंकार आप खेत-खलिहान से लेकर चरागाहों, जंगलों, मेलों और उत्सवों सभी में सुन सकते हैं। इन लोकगीतों का विषय सामान्य जीवन से लेकर इतिहास, धर्म-पुराण सभी से संबंधित हो सकता है।


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