सांस्कृतिक राजधानी मंडी का सच

By: Feb 19th, 2017 12:05 am

छोटी काशी ही प्रदेश की ऐसी जगह है, जहां तीन धर्मों का अध्यात्म और तीन विशेष समुदायों की संस्कृति ने एकसूत्र में समावेश किया है। इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि सांस्कृतिक राजधानी होने के बाद भी मंडी को वह सब कुछ नहीं मिल सका, जो  एक सांस्कृतिक राजधानी की पहचान बना सके। इसकी कमियों व खूबियों को दखल के जरिए बता रहे हैं जिला मंडी के ब्यूरो चीफ अमन अग्निहोत्री…

इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृति, साहित्य और तीन धर्मों के संगम के साथ कहीं अगर प्राकृतिक सौंदर्य का संगम देखना है तो वह हिमाचल की सांस्कृतिक नगरी मंडी के अलावा और कहीं नहीं मिलेगा। मंडी की सांस्कृ तिक विरासत के प्रमाण महाभारत कालीन कई घटनाओं से जोड़ कर मिलते हैं। कितने ही कवियों और साहित्यकारों ने छोटी काशी की इस विरासत को अपने-अपने शब्दों में बखूबी बयां किया है। छोटी काशी ही हिमाचल की ऐसी जगह है, जहां तीन धर्मों का अध्यात्म और तीन विशेष समुदायों की संस्कृति ने एकसूत्र में समावेश किया है।

इसे देखकर हैरानी नहीं होती है, जब मंडयाली लोक गीत विशेष समुदाय के लोग अपने रोम-रोम में बसा हुआ दिखता है। यही वजह है कि प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने अक्तूबर 2004 में अपने मंडी प्रवास के दौरान मंडी को हिमाचल की सांस्कृतिक राजधानी की संज्ञा दी थी, पर इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि सांस्कृतिक राजधानी होने के बाद भी मंडी को वह सब कुछ नहीं मिल सका, जो  एक सांस्कृतिक राजधानी की पहचान बना सके। लेखकों, साहित्यकारों, कला व लोकगीत-संगीत प्रेमियों ने इस जिला को अपना सब कुछ दिया, लेकिन जिला के नेता व सरकारें सांस्कृतिक राजधानी को उसका असली अक्स नहीं दे पाई हैं। जबकि मंडी को सांस्कृतिक विरासत की पहचान आजादी से पहले ही हो चुकी थी।

यही वजह है कि हमेशा साहित्यकारों, कलाकारों, पुरतत्त्ववेताओं एवं संस्कृति कर्मियों को अपनी ओर आकृ ष्ट किया है। अंग्रेज व बौद्ध विद्वानों द्वारा इस जनपद में दस्तक देने के अलावा हिंदी के अग्रज साहित्यकारों की यात्राओं का पड़ाव भी मंडी नगर रहा है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपनी कुल्लू व लाहुल की यात्राओं के दौरान मंडी आए थे। अपने इस प्रवास के दौरान राहुल सांकृत्यायन ने युवाओं को पुरातत्त्व, लोक संस्कृति व लोक कला के संरक्षण का मूलमंत्र दिया। क्रांतिकारी व लेखक यशपाल ने भी मंडी की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी ‘पहाड़ की स्मृति’ लिखी।

ये साहित्यकार छोटी काशी आए

साहित्यकार यशपाल मनाली भ्रमण के दौरान मंडी में रुके थे।  मोहन राकेश ने अपना उपन्यास नीली रोशनी की बांहें मंडी में लिखा था, जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप सें प्रकाशित हुआ था। इसी तरह से हिंदी के वरिष्ठ कवि त्रिलोचन, विनोद कुमार शुक्ल, चंद्रकांत देवताले, भगवत रावत, सत्येन कुमार, मंजूर एहतेशाम, राजेश जोशी, कमला प्रसाद, धु्रव शुक्ल, नरेंद्र जैन, शशांक, अजित चौधरी तथा पूर्ण चंद रथ आदि साहित्यकारों ने एक शाम मंडी में गुजारी है, जबकि कुमार अंबुज और केदारनाथ सिंह के एकल कविता पाठ भी मंडी की इस सांस्कृतिक नगरी में हुए हैं।

बांठड़ा से लेकर थियेटर तक

इतिहास की अनेक स्मृतियों को मंडी शहर समेटे हुए है। मंडी रियासत सांस्कृतिक परंपराओं एवं लोकरंजन के लिए मशहूर रही है, जिनमें लोक नाट्य बांठड़ा के चुटीले संवाद आम जनमानस की समस्याओं को राजाओं के समय से उजागर करते रहे हैं। सांस्कृतिक समृद्धता का यह दौर आज भी जारी है। वर्तमान में भी मंडी को प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में  ख्याति मिली है।साहित्य, संस्कृति एवं रंगकर्म से जुड़ी संस्थाओं ने मंडी की पहचान राष्ट्रीय फलक पर बनाई है।  मंडी शहर सुंदर लोहिया, योगेश्वर शर्मा, दीनू क श्यप, नरेश पंडित , रविराणा शहीन और सुरेश सेन निशांत आदि साहित्यकारों का शहर है। रियासतकालीन दरबार हाल जहां कभी स्वर सम्राट केएल सहगल के मधुर तराने गूंजे थे। मंडी में कला संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए सरकारी स्तर पर कोई कलाविथिका, प्रेक्षागृह आदि नहीं है। इसके बावजूद   यहां के रंगकर्मी, साहित्यकार व संस्कृति कर्मी अपने प्रयासों से सांस्कृतिक राजधानी के वजूद को क ायम रखे हुए है। संवाद कला मंच द्वारा हर साल मंडी महोत्सव, शिवरात्रि महोत्सव शास्त्रीय संगीत, कवि सम्मेलन, नाटक मंचन, संगीत सदन द्वारा शास्त्रीय संगीत, भजन संध्या, नृत्य नाटिकाएं, सुंदरनगर में सुकेत उत्सव, विश्व दिगंवर जयंती, नव ज्योति कला मंच मंडी का नाट्य कार्यशाला व प्रस्तुतियां, थियेटर फेस्टिवल मंडवती ग्रीष्मोत्सव, जागृति कला मंच का कृतज्ञोत्सव नाट्य उत्सव, अकादमी ऑफ आर्ट्स द्वारा हर वर्ष नाटक मंचन, शास्त्रीय संगीत एवं अन्य गतिविधियां, जोगिंद्रनगर में मुद्रा राक्षस नाट्य अकादमी के आयोजन और हिमाचल सांस्कृतिक शोध संस्थान द्वारा वर्ष नाट्य प्रशिक्षण व प्रस्तुतियां करवाई जाती हैं। वहीं इसके साथ ही मंडी का अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव और दर्जनों ऐसे मेले हैं जो सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए हैं।

* मंडी सांस्कृतिक राजधानी और देव राजधानी भी है, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन आज तक सांस्कृतिक राजधानी में संस्कृति व अपनी परंपराओं को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास होने चाहिए थे, वे नहीं हुए हैं। इतने वर्षो में मंडी में एक देव सदन तक नहीं बनाया जा सका

—  शिवपाल शर्मा अध्यक्ष सर्वदेवता कारदार समिति

*  मंडी में संस्कृति को बढ़ाने वाले साहित्यकार, रंगकर्मी और कलाकार बहुत हैं, मौजूदा समय में इसे सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा मिलना मुश्किल है। कलाकारों के लिए परेक्षा गृह, आडिटोरियम, भाषा कला अकादमी और गेयटी थियेटर के मुकाबले का थियेटर होना मंडी में चाहिए

— मुरारी शर्मा वरिष्ठ साहित्यकार

* मंडी में रेडियो स्टेशन, अपना कला केंद्र, एक आडिटोरियम तक नहीं है, यह सांस्कृतिक राजधानी की सबसे बड़ी टीस है। मंडी की सांस्कृतिक धरोहरें मिटती जा रही हैं। मंदिरों के आसपास कब्जों की भरमार है। प्राचीन बावडि़यों का अस्तित्व खतरे में है, लेकिन सिर्फ योजनाएं फाइलों में हैं

— समीर कश्यप सचिव, इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन

* प्रशासन और सरकारों का सहयोग नहीं मिला है। जबकि मंडी की सांस्कृतिक विरासत की गूंज पूरे देश में है। अब तक न जाने राजनेताओं ने इस बारे में प्रयास क्यों नहीं किए। यहां एक अव्वल दर्जे का आडिटोरियम तो हो, जहां पर हर प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए जगह हो

— सीमा शर्मा संस्थापक,हिमाचल सांस्कृतिक शोध संस्थान

माधोराव, दमदमा पैलेस को सहेजने की जरूरत

मंडी में हालांकि कुछ प्राचीन धरोहरों के सरंक्षण का काम शुरू हुआ है, लेकिन अभी भी ऐसी बड़ी सारी प्राचीन इमारतें हैं, जिनका सरंक्षण होना चाहिए। माधोराव मंदिर, दमदमा पैलेस, एर्म्सन हाउस और पैलेस कालोनी स्थित पैलेस के संरक्षण को लेकर कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं। वहीं ब्यास सदन की भी हालत खराब बनी हुई है। ब्यास सदन सांस्कृतिक धरोहर कम और शादियों व धाम का आयोजन स्थल बन चुका है।

फैशन में मुंबई से कम नहीं

संस्कृति के साथ ही मंडी फैशन में पीछे नहीं है। फैशन के मामले में मंडी को दूसरी मुंबई कहा जाता है।  यह इस शहर के खुलेपन का ही परिणाम है कि हर आने वाले बदलाव को सहजता से स्वीकार कर लेता है, लेकिन इसके बावजूद अपनी अलग पहचान को भी कायम रखे हुए है।

पांडुलिपियों-सिक्कों का खजाना

चंद्रमणि कश्यप ने जुनून की हद तक पुरातत्त्व संरक्षण की दिशा में कार्य करते हुए प्राचीन पांडुलिपियों , सिक्कों और दुर्लभ वस्तुओं का ऐसा संग्रह किया ,जो आज निजी क्षेत्र का अमूल्य संग्रहालय बन चुका है, लेकिन इस धरोहर को भी सरकारें पहचान नहीं सकी।

समय के साथ आ रहे बदलाव

समय के साथ सांस्कृतिक राजधानी की विरासत में भी बदलाव आए हैं। हालांकि न तो मंडी का खान-पान बदला है और न ही बोली बदली है। पहनावे में जरूर बदलाव आया है, लेकिन बात अगर सांस्कृतिक स्तर की हो तो मंडी के बडे़ हिस्से से अब प्राचीन लोक संगीत गायब होता जा रहा है। हर शादी में जहां ढोल-नगाडे़ बजते थे। वहीं अब डीजे की धुनें हावी हैं। मंडी में पहले करवाचौथ का व्रत महिलाएं नहीं मनाती थीं। वहीं अब ऊपरी क्षेत्रों को छोड़ कर यह व्रत महिलाएं पिछले कई वर्षो से कर रही हैं।  सांस्कृतिक मेले में अब लोकगीत-संगीत और प्राचीन समय से चले आ रहे नाट्य उत्सवों की जगह अब पंजाबी व मुंबइया कलाकारों ने ले ली है। मंडी शिवरात्रि की जलेब और सांस्कृतिक संध्याओं में भी परिवर्तन आ चुका है। बेशक देव परंपराएं नहीं बदली हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव और राज्य स्तर के मेलों का आयोजन सुविधा के अनुसार प्रशासन करता है। अब राजाओं के समय की तरह नहीं होता है। वे लोग इन मेलों को अब करवा रहे हैं, जिनका जिला की संस्कृति से कुछ लेना-देना नहीं है, जबकि पहले इन मेलों में जनता की सारी भागीदारी होती थी।

आयोजनों तक सीमित हैं सरकारी प्रयास

मंडी की सांस्कृतिक विरासत को बचाने के प्रयास सरकारी स्तर पर सिर्फ आयोजनों तक ही सीमित हैं। यह बडे़ गर्व की बात है कि मंडी की युवा पीढ़ी की रुचि गीत-संगीत,थियेटर, लोकगीत, नाटक और साहित्य में है, लेकिन हिमाचल के एक मात्र हिमाचल सांस्कृतिक शोध संस्थान को छोड़ दें तो यहां पर सीखने के लिए और कुछ नहीं है। जबकि सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखने के लिए यहां पर इस तरह के संस्थान होने चाहिए थे। जिला भाषा एवं संस्कृति अधिकारी आरके सकलानी की मानें तो विभाग वर्ष भर सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए एक दर्जन से अधिक आयोजन करवाता है। जिसमें कवि सम्मेलन, साहित्यक सम्मेलन,गोष्ठियां, यशपाल जयंती, हिंदी व संस्कृत दिवस, बंजतरी प्रतियोगिता और अन्य ऐसे आयोजन शामिल हैं।

ब्यास आरती की नई रीत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछले वर्ष हुई मंडी रैली में बेशक प्रदेश के लिए कोई बड़ी घोषणा नहीं हुई हो, लेकिन नरेंद्र मोदी की इस रैली के बहाने मंडी के सांसद राम स्वरूप शर्मा ने ब्यास आरती की शुरुआत कर एक नया अध्याय लिख दिया है। गंगा की तर्ज पर मंडी में ब्यास आरती हो रही है। हर पूर्णमासी को हनुमानघाट पर लोग ब्यास आरती करने के लिए उमड़ रहे हैं। इस रीत की फिर से शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली की पूर्व संध्या पर पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल, केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा और सांसद राम स्वरूप शर्मा ने खुद  आरती कर की थी। इसके लिए मंडी के सांसद की सोच बधाई की पात्र है, लेकिन यह दुखद है कि अभी मंडी का प्रशासन इसे धार्मिक पर्यटन से नहीं जोड़ सका है। वहीं इस दिशा में एकादश रुद्र मंदिर की टीम व स्वामी सुंदरम, ब्राह्मण सभा, राजपूत सभा, गणपति मंदिर, इप्टा, रतन सिंह सर्राफ एंड सन्ज मोती बाजार और चेतन शर्मा के प्रयास अति सरहानीय हैं। जो हर पूर्णमासी को ब्यास आरती को सफल बनाने में मेहनत करते हैं। अब ब्यास आरती से पहले भगवान सत्यनारायण की कथा का भी आयोजन किया जा रहा है। बड़ी बात यह भी कि इस आयोजन की शुरुआत बेशक राजनीतिक जलसे के साथ हुई, लेकिन मंडी के सांसद राम स्वरूप की टीम ने इसके साथ अब सभी को जोड़ने का प्रयास किया है।

भूतनाथ मंदिर में फिर जिंदा हुई परंपराएं

मंडी के प्राचीन भूतनाथ मंदिर में भी संस्कृति और मंदिर की प्राचीन परंपराओं को अब फिर से जीवित कि या जा रहा है। भूतनाथ मंदिर में भस्म आरती, झाल आरती, शिवरात्रि तक भूतनाथ की पिंडी को अलग-अलग देवी देवताओं के रूप में सजाया जा रहा है। इस सबके पीछे महंत भूतनाथ मंदिर स्वामी देवानंद सरस्वती की सोच और उनकी टीम में संजीव शास्त्री, अनु, हितेश, भानू, शक्ति, भरत और चंदन जैसे कई और ऐसे युवा हैं, जिन्होंने लुप्त हो चुकी परंपराओं को फिर से जिंदा करने का बीड़ा उठाया है।

अतिक्रमण की मार

मंडी में भगवान भी कब्जों से परेशान हैं। मंडी को छोटी काशी इस लिए कहा जाता है क्योंकि यहां पर 81 मंदिर हैं, जबकि काशी में अस्सी मंदिर हैं। लेकिन छोटी काशी इन मंदिरों में अब चंद मंदिर ही ऐसे बचे हैं, जिनके आसपास अतिक्रमण क ी मार नहीं हुई है।

इनसे देश भर में मिली ख्याति

ऐतिहासिक घटना पर आधारित ग्रीक नाटक इडिपस से नाट्य परंपरा का विधिवत सूत्रपात हुआ है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक सुरेश शर्मा के निर्देशन में पहली बार मंडी के रंगकर्मियों ने फुललेंथ प्ले का मंचन किया। अंकुर कला मंच ने ही हिमाचल की लोक गाथा मोहणा का नाट्य मंचन कर देश के कई प्रमुख नगरों में प्रस्तुतियां दीं। वहीं पर अंकुर कला मंच ने 2006 में मंडी में मंडवती ग्रीष्मोत्सव की शुरुआत कर यह साबित कर दिया कि मंडी जैसे छोटे से शहर में नाटक देखने वालों की कमी नहीं है। कुसुम सिनेमा में मुट्ठी भर धूल कहानी पर बने नाटक को देखने  के लिए हजारों की तादाद मेें दर्शक उमड़ पड़े थे। वहीं पर वर्ष 2007 में इंद्रराज इंदु द्वारा निर्देशित नाटक अथश्री किन्नर गाथा के मंचन ने मंडवती उत्सव की गरिमा को बरकरार रखा।

आकाशवाणी केंद्र तक नहीं

यूं तो मंडी को दर्जा सांस्कृतिक राजधानी का है, लेकिन हैरत इस बात की है आज तक मंडी जिला का अपना रेडियो स्टेशन तक नहीं है। मंडी जिला में आज तक आकाशवाणी केंद्र की स्थापना नहीं हो सकी है। जबकि संस्कृति, लोकगीत-संगीत, साहित्य, लोक मंच, देव समाज और पूरे प्रदेश में मंडी जिला को सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा प्रदान है। राज्यसभा सांसद आनंद शर्मा, मंडी संसदीय क्षेत्र से पंडित सुखराम और वर्तमान में प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भी केंद्र में मंत्री रहते हुए मंडी को आकाशवाणी केंद्र की सौगात नहीं दिला सके हैं।

कला केंद्र भी नहीं

यह भी बडे़ दुख का विषय है कि छोटी काशी और सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा प्राप्त होने के बाद भी  कलाकारों के लिए एक कलाकेंद्र तक नहीं है। यही नहीं,शहर में आज तक नेतागण एक ऑडिटोरियम भी नही बना सके हैं। यही वजह है कि शहर में होेने वाले कवि सम्मेलन, नाटक मंचन, शास्त्रीय संगीत सम्मेलन, लोक नृत्य या लोक नाटक कार्यक्रम और ऐसे अन्य कितने ही प्रकार के कार्यक्रम सब गांधी भवन या फिर किसी जुगाड़ की जगह में करवाने पड़ते हैं।

बड़े आयोजनों पर खलती है कमी

अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव के अवसर पर देश भर से जुटने वाले कवियों, साहित्यकारों व लोक कलाकारों को सांस्कृतिक राजधानी की अनुभूति मंडी अपनी कमियों से करवाती है। वहीं एक मात्र टाउनहाल अब संस्कृति की जगह स्पोर्ट्स का केंद्र बन चुका है। तो कुल्लू की तरह कला केंद्र का ध्यान कभी किसी को आया ही नहीं। होना तो यह चाहिए था कि मंडी की सांस्कृतिक विरासत को देखते हुए मंडी में भाषा कला अकादमी, गेयटी थियेटर की तर्ज पर थियेटर और बडे़ स्तर का कलाकेंद्र होता, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

राजमहल में सजतीं थी महफिलें

राजमहल परिसर के  एक भवन में चल रहे  डाकघर में अब स्याही ही घिसती है, जबकि एक समय था तो इस भवन में सुरों की महफिलें सजती थीं। कम लोग ही इस बात को जानते होंगे कि इसी  भवन में कभी इस देश के प्रसिद्ध गायक व अभिनेता कुंदनलाल सहगल 1930-40 के दौर में अपनी आवाज का जादू बिखेर चुके हैं। वहीं इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन मंडी कई बार मांग कर चुकी है कि इस विरासत को डाकखाने के बोझ से मुक्त कर कला केंद्र के रूप में बदला जाए।

देवी-देवता व पड्डल मुश्किल में

अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव मंडी का आयोजन देवताओं व मानव के मिलन का अनूठा संगम है, लेकिन यह भी दुखद है कि आज तक इस अंतरराष्ट्रीय स्तर के आयोजन के लिए सुविधाएं व ढांचागत विकास उस तर्ज पर नहीं हो सका है। अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव के लिए साल में एक बार आने वाले देवी-देवताओं व देव समाज के एक स्थायी पड़ाव तक नहीं है। धार्मिक गुरु का आगमन या फिर किसी नेता की जनसभा, इन सबका भार ऐतिहासिक पड्डल मैदान ही सहता आ रहा है। आज तक एक अलग मैदान मंडी में विकसित नहीं किया जा सका है। शिवरात्रि की सांस्कृतिक संध्याओं को सेरी मंच से पड्डल मैदान में शिफ्ट किया जा चुका है और अब पड्डल मैदान से पूरा ही मेला बदलने की कवायद चली हुई है।


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