सोशल मीडिया का मैला आंचल

By: Feb 15th, 2017 12:01 am

सोशल मीडिया नामक जिस समुदाय से हिमाचली नेताओं का याराना बढ़ रहा है, उसकी दरारें व चुनौतियां भी स्पष्ट हैं। राजनीतिक तकनीक के सोशल मीडिया का चुंबक जब टूटता है, तो एक साथ कई चाबुकों जैसा दर्द भी महसूस होगा। अपने कारणों व प्रतीकों के सोशल मीडिया में सियासी हस्तियों का संवाद और शेषांक देखा जा सकता है। हिमाचल में भी सीधे मतदाता से मुखातिब होते नेताओं की महत्त्वाकांक्षा दिखाई देती है, तो टकराते अहम और टूटते वहम के बीच नफरत की शब्दावली भी तैयार हो रही है। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों का एक युद्धक्षेत्र सोशल मीडिया है तो दूसरी ओर अपने प्रशंसकों की तलाश भी जारी है। आत्मश्लाघा की खोज में नेताओं के बीच जो होड़ शुरू हुई, उससे प्रतिस्पर्धा का आचरण मैला होता जा रहा है। कांग्रेस के एक नेता का सोशल व्यवहार अगर नैतिकता को बेचता रहा है, तो अब आक्रमण एक-दूसरे के बीच हैकिंग या नकली परिचय से शुरू हो रहा है। ऐसे में सवाल यह कि हिमाचली नेता सोशल मीडिया को अपने कब्जे में करना चाहते हैं या लोगों के फीडबैक से अपने प्रदर्शन को सुधारना चाहते हैं। विडंबना यह कि सोशल मीडिया को एक सीमित परिदृश्य में समझा जा रहा है और इसके मार्फत तालियां बटोरी जा रही हैं या कीचड़ उछालने की कोशिश भी हो चुकी है। सोशल मीडिया की प्रासंगिकता इसके प्रभाव की स्पष्टता है, लेकिन किसी मलिनता से इसका उपयोग होगा तो गालियां ही नसीब होंगी। राजनीतिक अभिनय के शृंगार को हम सोशल मीडिया की एकरूपता में स्वीकार नहीं कर सकते। हिमाचल के कुछ मंत्रियों या ओहदेदारों ने अपनी विभागीय उपलब्धियों का जिक्र किया तो प्रशंसकों के काफिले आगे बढ़ गए और इसीलिए अपने पक्ष में समुदाय जोड़ने में नेताओं ने जो हासिल किया उसे हम निष्पक्षता से नहीं भांप पाएंगे। देखना तो यह होगा कि सोशल मीडिया के मार्फत हम कितने आलोचक, जागरूक, चिंतक व मार्गदर्शक खोज पाए। जाहिर तौर पर आगामी विधानसभा चुनावों की तैयारी में सोशल मीडिया का रंग और नखरे बदल रहे हैं और इसका इस्तेमाल एक अलग तरह की जंग की तरह होगा। हिमाचली युवाओं को राजनीति के जो खिलौने सोशल मीडिया में दिखाई देंगे, उन पर राय भी बनेगी और अगर कोई टूटा तो बेहिसाब दर्द होगा। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोख में जन्मी सियासत को सोशल मीडिया में पलने-बढ़ने का मौका कई तरह से निरंकुश भी हो सकता है। अतः यह भी देखना होगा कि क्या इस माध्यम से युवा विचारों की संगत लोकतांत्रिक तरीके से तय हो रही है या बहती धाराओं की तरह यह अपने ही छोर से बाहर निकलने की कोशिश बन जाएगी। युवाओं की निर्णायक क्षमता से राजनीति पूरी तरह वाकिफ है और अगर राजनीति अपने सोशल मीडिया हस्तक्षेप से इस वर्ग की रुचि, जानकारी तथा समझ को सही परिप्रेक्ष्य से जोड़ लेती है तो यह एक बड़े परिदृश्य को हासिल करने का प्रयास होगा। कहना न होगा कि सोशल मीडिया के खेत में राजनीति कभी भी अपनी पूरी फसल उगा पाएगी। यह दीगर है कि इस माध्यम से जनता की सियासी दूरियां कम होती हैं, लेकिन अभिमत या अभिव्यक्ति का सच कतई स्पष्ट नहीं होता। यह इसलिए भी कि ऑनलाइन अभिव्यक्ति की भावना केवल अपनी क्षमता और संतोष में ही निरूपित होती है। जिन्हें नेता अपने प्रशंसक के रूप में सोशल मीडिया में देखता है, वे या तो वैचारिक कारणों से मौजूद हैं या खुद को राजनीतिक व्यवस्था में जोड़ने की मंशा के साथ सीढ़ी लगाकर खुद को ऊपर चढ़ा रहे हैं। ऐसे में हिमाचली नेताओं की तकदीर का फैसला सोशल मीडिया करे या न करे, लेकिन पूरी राजनीति का आंचल अवश्य ही खराब करेगा। बेशक राजनीति को पारंपरिक मीडिया के दायरे पसंद न आ रहे हों, लेकिन अगर दर्पण में झांकने की हिम्मत पैदा करनी है तो सबसे अधिक महत्त्व लिखित शब्दों को ही देना पड़ेगा।


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