स्वयं के शरीर पर अत्याचार

By: Feb 4th, 2017 12:05 am

आपका शरीर एक अमूल्य खजाना है, यह एक से एक कीमती पुर्जों से बना है। एक बार नष्ट होने पर उन्हें पुनः नहीं बनाया जा सकता। शरीर के प्रति हमारा अत्याचार अत्यधिक है…

यदि हम अपने आहार-विहार में सजग रहें, तो कोई कारण नहीं कि हम अल्पकाल में ही मृत्यु के ग्रास बनें, किंतु हम शरीर जैसे सूक्ष्म मशीन की बहुत कम परवाह करते हैं। हम यह नहीं समझते कि यह कितनी बेशकीमती है, कितनी अमूल्य है? एक भी पूर्जे के इधर-उधर होने पर उसका विकल्प खोजना मुश्किल है। आपका दांत टूट जाता है, आप दंत चिकित्सा से दूसरा दांत लगवाते हैं। वह एक खूबसूरत दांत लगा देता है, किंतु एक हफ्ते बाद ही वह बुरा लगने लगता है, टूट जाता है या उतनी अच्छी तरह कार्य नहीं करता, जैसा प्राकृतिक दांत करता था। जब दांत जैसे साधारण पुर्जे की यह बात है, तो नेत्र, हृदय, फेफड़े या अन्य सूक्ष्म अवयवों की तो बात ही कुछ और है। इन्हें तो एक बार बेकार होने पर मानवीय बाजार में खरीदा भी नहीं जा सकता। स्मरण रखिए, आपका शरीर एक अमूल्य खजाना है, यह एक से एक कीमती पुर्जों से बना है। एक बार नष्ट होने पर उन्हें पुनः नहीं बनाया जा सकता। शरीर के प्रति हमारा अत्याचार अत्यधिक है। नेत्र सूर्य की प्राकृतिक रोशनी में कार्य करने के लिए विनिर्मित है, किंतु जो दिन में तो सोते हैं, रात में विद्युत की तेज रोशनी में पढ़ते हैं, सिनेमा देखते हैं। समय से पूर्व ही उन्हें बेकार बना डालते हैं। पेट की बात ही न पूछिए। मिर्च, मसाले, बासी पूरी, मिठाई, खटाई, मद्य, मांस, चाय, कॉफी, न जाने कितने राजसी पदार्थ भक्षण कर हम अग्निमांद्यता के शिकार होते हैं। तंबाकू खाना, पान, बीड़ी, भांग, चरपरे तैलयुक्त, गरिष्ठ पदार्थ पेट में भरकर असमय ही उनकी पाचन शक्तियां क्षीण कर देते हैं। मादक-द्रव्य तो प्रत्यक्ष विष हैं। कौन नहीं जानता कि चाय, कॉफी, कोको, चरस, शराब,  गांजा, भांग बुरी हैं? जानते-बूझते हुए भी हम अपने पेट को बेकार करते हैं। मनोविकारों का जाल मन तथा मस्तिष्क के प्रति हमारे अत्याचार इससे भी अधिक बढ़े हुए हैं। राजसी और तामसिक आहार से वैसे ही विचार उत्पन्न होंगे। तामसी आहार से मन चंचल, कामी, क्रोधी, लालची और पानी बन जाता है। चाहे हम कितनी भी साधना, एकाग्रता का अभ्यास करें, किंतु तामसी आहार से स्वयं रोग, शोक, दुःख, दैन्य वेग से बढ़ते हैं और मनुष्य का पुरुषार्थ घटता है, सौभाग्य दूर भागता है, सामार्थ्य न्यून होता है। राजसी और तामसिक पदार्थों, मांस, अत्यंत उष्ण,  तीक्ष्ण, गरिष्ठ, लहसुन, प्याज, अंडा, मछली, अत्यंत तले हुए-बासी, मिठाइयों से मनुष्य प्रत्यक्ष राक्षस बन जाता है। फिर यदि इन अप्राकृतिक चीजों को खाकर कोई मनुष्य काम, क्रोध ईर्ष्या, प्रति हिंसा के वशीभूत हो कुकर्म कर डाले तो क्या आश्चर्य? मनोविकारों की उत्तेजना से दाहक तत्त्व बढ़ते हैं। मनोविकारों के द्वंद्व हमारी वृत्तियों से संश्लिष्ट होकर रोगों की अनेकरूपता उत्पन्न करते हैं। मनोविकार हमारे रक्त में अनेक प्रकार के रासायनिक परिवर्तन किया करते हैं। जैसे यदि हम काम वासना से विक्षुब्ध हो उठते हैं, तो रक्त में एक प्रकार की गर्मी आ जाती है, रोम-रोम तरंगित हो उठता है। यदि वासना का तांडव अधिक रहे, तो गर्मी सूजाक, गुप्तांगों के अनेक रोग, स्वप्नदोष, बहुमूत्र और पेशाब के अनेक गुप्त रोग उत्पन्न होते हैं। जिनसे उद्वेग बढ़ता है, शांति, स्थिरता और बुद्धि भंग हो जाती है। मूलरूप में क्रोध भी हमारे अनेक शारीरिक रोगों का कारण बन जाता है।


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