कारपोरेट संस्कृति से हाशिए पर सरकता साहित्य

By: Mar 13th, 2017 12:05 am

मीडिया और साहित्य को मैं एक दूसरे का पूरक मानता हूं यानी एक ही सिक्के के दो पहलू। मीडिया कर्मी और साहित्यकार दोनों का समाज की नब्ज पर हाथ रहता है। समाज के भीतर क्या कुछ पल रहा है, दोनों इसकी टोह लेते रहते हैं। भारत में एक दौर ऐसा भी था जब अधिकतर समाचार-पत्रों के संपादक जाने-माने साहित्यकार भी थे और बहुत से साहित्यकार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ बतौर पत्रकार भी जुड़े थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, धर्मवीर भारती, अज्ञेय, रघुवीर भारती, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, इलाचंद्र जोशी से लेकर राजेन्द्र माथुर, कन्हैया लाल नंदन, मृणाल पांडे, हिमाशुं जोशी, मंगलेश डबराल सरीखे अनेक नाम हैं, जिन्होंने साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता जगत को भी समृद्ध किया।

इन सबके दौर में पत्रकार या संपादक होने की यही अनिवार्य शर्त थी कि उनका रुझान साहित्य की तरफ भी हो। यही वजह है कि इन सबके संपादन में निकली पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य सृजन को हमेशा प्रमुख स्थान मिलता था और वैचारिक दृष्टि से ये पत्र-पत्रिकाएं अत्यंत समृद्ध हुआ करती थीं। उस दौर की राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्यिक पुट हावी होता था। तब सुधि संपादकों ने अपने पत्रों के जरिए हिंदी के कई साहित्यकार तैयार किए और पाठकों को सही भाषा लिखना भी सिखाया। लेकिन अब स्थिति में बदलाव आया है। मीडिया घरानों पर अब पूजीपतियों का दबदबा है और अधिकांश संपादक भी गैर साहित्यिक पृष्ठभूमि से हैं, जिनका दायित्व सिर्फ और सिर्फ पूंजीवाद प्रेरित मीडिया की व्यावसायिक सोच को आगे ले जाना और लोगों को उसका अनुगामी बनाना है।  हिंदी मीडिया में अब साहित्य हाशिए पर सरक रहा है और उसका स्थान फिल्मी दुनिया सहित मनोरंजन सामग्री से लैस परिशिष्टों ने ले लिया है। चूंकि मीडिया अब एक उद्योग में परिवर्तित हो चुका है लिहाजा अधिकतर संपादक अब मीडिया घरानों की नीति के अनुरूप ही चलते हैं। स्वतंत्र रूप से वे निर्णय नहीं ले पाते। उनकी आंख विज्ञापन और सर्कुलेशन पर अधिक रहती है। पूंजीपति घरानों का एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना रह गया है। यही वजह है कि साहित्य का स्पेस अखबारों में निरंतर कम होता जा रहा है जो चिंताजनक है।

अपने समय के साहित्य को आगे लाना और लेखकों को एक मंच प्रदान करना भी मीडिया का ही दायित्व है। जब भी हम पत्र-पत्रिकाओं से साहित्य को अलग कर देंगे तो पाठकों को साहित्यिक अभिरुचि को कैसे कायम रख पाएंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य सोच का परिष्कार करता है और मीडिया रुचि का। सोच अमूर्तन अवस्था है, लिहाजा उसका व्यावसायिक लाभ संभव नहीं है। इसीलिए पूंजीपति का ध्यान मीडिया की ओर होता है क्योंकि बाजार के विस्तार की संभावनाएं कहीं न कहीं रुचि के परिष्कार पर भी निर्भर होती है। रही बात सोशल मीडिया के आने से साहित्य के भविष्य और संभावनाओं की, तो मैं इतना ही कहूंगा कि सोशल मीडिया के आने से लेखकों की सक्रियता बढ़ी है और सोशल मीडिया पर अपने लेखकों की रचनाओं से हम रू-ब-रू हो रहे हैं, लेकिन कट एंड पेस्ट की मानसिकता के चलते बहुत से लोग महज अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने या फटाफट लोकप्रियता पाने के लिए दूसरों की रचनाएं भी अपने के साथ लगाने से गुरेज नहीं कर रहे। इसीलिए सोशल मीडिया पर भी मैं साहित्य के भविष्य के प्रति अधिक आशावान नहीं हूं।

-अपने व्यंग्यों की धार, कविता तथा कहानियों के लिए देश-विदेश में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित गुरमीत बेदी हिमाचल कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी पुरस्कार से अलंकृत सबसे युवा कवि हैं। उनके तीन व्यंग्य संग्रह एवं दो-दो कहानी तथा कविता संग्रह के अतिरिक्त बैजनाथ मंदिर पर पुस्तक प्रकाशित।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App