चावल को मिले टिकाऊ आधार

By: Mar 9th, 2017 12:03 am

( भारत डोगरा  लेखक, प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं )

हमारे देश में सबसे महत्त्वपूर्ण अनाज और भोजन है। यही स्थिति पूरे एशिया महाद्वीप के स्तर पर भी है। अतः धान की फसल की उत्पादकता को बेहतर करना होगा। इसके लिए जरूरी सवाल है कि धान की उत्पादकता को बेहतर करने के लिए जो तकनीक व तौर-तरीके अपनाए जाएंगे, वे टिकाऊ होंगे या नहीं। कुछ तकनीकें ऐसी हैं, जो कुछ समय तो उत्पादकता को बढ़ा सकती हैं, पर बाद में यह प्रगति अवरुद्ध हो जाती है व उत्पादकता टिकाऊ तौर पर बेहतर नहीं हो सकती। दूसरी व इससे जुड़ी हुई बात यह है कि इन तौर-तरीकों व तकनीकों का पर्यावरण पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ना चाहिए, अपितु ये पर्यावरण रक्षा के अनुकूल होनी चाहिएं। इसके विपरीत हाल के समय में ऐसे तौर-तरीके अपनाए गए, जिनसे जहरीले रसायनों का उपयोग बढ़ा, पर्यावरण की क्षति बढ़ी। तीसरी जरूरी बात यह है कि तौर-तरीके कम लागत के होने चाहिएं, पर हाल के समय में तो महंगे तौर-तरीके अपनाए गए, जिससे किसानों का संकट बना। इतना ही नहीं, भविष्य में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में केंद्रित ऐसे जीएम बीजों की स्वीकृति के कुप्रयास भी हो सकते हैं, जिनसे किसानों का खर्च बहुत बढ़ जाएगा व उनकी चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भरता भी बहुत बढ़ जाएगी। अब आगे जरूरत इस बात की है कि इन गलतियों को दूर किया जाए, ताकि धान की उत्पादकता को बेहतर करने के प्रयास पर्यावरण रक्षा, छोटे किसानों व टिकाऊपन के अनुरूप हों। इस संदर्भ में चावल के अति वरिष्ठ वैज्ञानिक व केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (कटक) के पूर्व निदेशक स्वर्गीय डा. आरएच रिछारिया के विचार बहुत मूल्यवान हैं। डा. रिछारिया के शब्दों में, ‘मुख्य समस्या अनचाही नई चावल किस्मों को जल्दबाजी में जारी करना है। हमने देशी ऊंची उत्पादकता की किस्मों को नकार कर बौनी (विदेशी) अधिक उत्पादकता की किस्मों पर अपनी रणनीति निर्धारित की। हम सूखे की स्थिति को भी भूल गए, जब इन विदेशी उत्पादकता की किस्मों में उत्पादकता गिरती है। अधिक सिंचाई व पानी में उगाई जाने पर ये किस्में बीमारियों व नाशक जंतुओं से अधिक प्रभावित रहती हैं, जिनका नियंत्रण आसान नहीं है व इस कारण भी उत्पादकता घटती है। गन्ने और गेहूं की फसल से चावल का एक मुख्य भेद यह है कि व्यापक अनुकूलशीलता बहुत कम चावल के क्षेत्र पर लागू होती है, लगभग 10 प्रतिशत ही। इस कारण भिन्न-भिन्न चावल की किस्मों की स्थानीय पसंद होती है।’ चावल उत्पादकता बढ़ाने के लिए देशी जनन द्रव्य पर आधारित अनुकूलित चावल की किस्मों के अनुवांशिक सुधार पर व उनसे ऊंची उत्पादकता प्राप्त करने पर डा. रिछारिया ने जोर दिया। अनुसंधान व प्रसार दोनों क्षेत्रों में डा. रिछारिया अधिकाधिक विकेंद्रीकरण को महत्त्व देते थे। यह धान के पौधों की अपनी विशिष्टताओं के कारण भी अनिवार्य है। उनके शब्दों में, ‘करोड़ों के लिए भोजन देने वाले चावल के पौधों की यदि सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता बतानी हो तो यह इसकी (भारत व अन्य चावल उगाने के क्षेत्रों में फैली) हजारों किस्मों में अभिव्यक्त विविधता है।’ अतः उन्होने चावल उगाने वाले पूरे क्षेत्र में ‘अनुकूलन चावल केंद्रों’ का एक जाल सा बिछा देने का सुझाव दिया है। अनुकूलन चावल केंद्र अपने क्षेत्र से एकत्र सभी स्थानीय चावल की किस्मों के अभिरक्षक होंगे। भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए इन्हें अपने प्राकृतिक माहौल में ही जीवित रखा जाएगा। इन केंद्रों का पहला कार्य चावल के विकसित आनुवांशिक संसाधनों को भविष्य के अध्ययनों के लिए उपलब्ध कराना होगा। इसे इसके मूल रूप से भारत या बाहर के किसी केंद्रीय स्थान पर सुरक्षित रखना तो लगभग असंभव है। इसे इसके मूल रूप में तो किसानों के सहयोग से इसके प्राकृतिक माहौल में ही सुरक्षित रखा जा सकता है। दूसरा, युवा किसानों को अपनी आनुवांशिक संपदा के मूल्य व महत्त्व के विषय में शिक्षित करना व उनमें किस्मों का पता लगाने, एकत्र करने की रुचि जागृत करना। अपने विस्तृत अनुभव के आधार पर डा. रिछारिया बताते हैं कि चावल क्षेत्रों में मुझे ऐसे किसान मिलते ही रहे हैं, जो चावल की अपनी स्थानीय किस्मों में गहन रुचि लेते हैं व अलग-अलग किस्मों की उपयोगिता, यहां तक कि उसका इतिहास बता सकते हैं। इन केंद्रों की जिम्मेदारी ऐसे चुने हुए, प्रतिबद्ध किसानों को सौंपी जाएगी। हजारों किस्मों की पहचान करने, उन्हें सुरक्षित रखने की उनकी जन्मजात प्रतिभा का लाभ वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उठाना चाहिए। मध्य प्रदेश में अनुभव के आधार पर डा. रिछारिया ने लिखा है कि इस तकनीक के प्रसार में महिलाओं का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। बरौंदा (रायपुर के पास) स्थित चावल अनुकूलन अनुसंधान केंद्र में उन्होंने नोट किया कि महिला कर्मचारी नए विचारों व विधियों को बहुत शीघ्र समझती थीं। सुधरी किस्मों को तेजी से फैलाने के लिए कृंतक प्रसार विधि बहुत उपयोगी हो सकती हैं। ओडिशा व अन्य स्थानों में इसके सफल प्रयोग हो चुके हैं। किसी भी चावल की किस्म की उत्पादकता इस विधि से बढ़ाई जा सकती है। इन रास्तों को अपनाने में देर नहीं करनी चाहिए। धान की खेती बढ़ाने के प्रयास आर्गेनिक खेती पर आधारित होने चाहिएं। इससे रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं पर किसान का खर्च कम होगा, चावल की गुणवत्ता बढ़ेगी व इसकी बेहतर कीमत प्राप्त होने की संभावना के साथ मिट्टी का उपजाऊपन भी बढ़ेगा।


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