नारी अस्मिता व अस्तित्व के प्रश्न

By: Mar 8th, 2017 12:02 am

( ललित गर्ग लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं )

कब तक नारी के अस्तित्व एवं अस्मिता को नौचा जाता रहेगा? कब तक खाप पंचायतें नारी को दोयम दर्जे का मानते हुए तरह-तरह के फरमान जारी करती रहेगी? भरी राजसभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर खींचते हुए अंधे सम्राट धृतराष्ट्र के समक्ष उसकी विद्वत मंडली के सामने निर्वस्त्र करने के प्रयास के संस्करण आखिर कब तक शक्ल बदल-बदल कर नारी चरित्र को धुंधलाते रहेंगे? विडंबनापूर्ण तो यह है कि महिला दिवस जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने के बजाय उनका दुरुपयोग करने के माध्यम बनते जा रहे हैं…

संपूर्ण विश्व में नारी के प्रति सम्मान एवं प्रशंसा प्रकट करते हुए आठ मार्च का दिन उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में, उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन से पहले और बाद में हफ्ते भर तक विचार-विमर्श और गोष्ठियां होंगी, जिनमें महिलाओं से जुड़े मामलों जैसे महिलाओं की स्थिति, कन्या भू्रण हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, गांवों में महिला की अशिक्षा एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराध को एक बार फिर चर्चा में लाकर वाहवाही लूट ली जाएगी। लेकिन इन सबके बावजूद एक टीस सी मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी रहेगी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा? बलात्कार, छेड़खानी, भ्रूण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नौचा जाता रहेगा? कब तक खाप पंचायतें नारी को दोयम दर्जे का मानते हुए तरह-तरह के फरमान जारी करती रहेगी? भरी राजसभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर खींचते हुए अंधे सम्राट धृतराष्ट्र के समक्ष उसकी विद्वत मंडली के सामने निर्वस्त्र करने के प्रयास के संस्करण आखिर कब तक शक्ल बदल-बदल कर नारी चरित्र को धुंधलाते रहेंगे? विडंबनापूर्ण तो यह है कि महिला दिवस जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने के बजाय उनका दुरुपयोग करने के माध्यम बनते जा रहे हैं।

‘यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमंते देवता’ जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। इसके विपरीत आज हम देखते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है। उसे भोग की वस्तु समझकर आदमी अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहा है, यह बेहद चिंताजनक बात है। आज अनेक शक्लों में नारी के वजूद को धुंधलाने की घटनाएं शक्ल बदल-बदल कर काले अध्याय रच रही हैं। इनमें नारी का दुरुपयोग, उसके साथ अश्लील हरकतें, उसका शोषण, उसकी इज्जत लूटना और हत्या कर देना मानो आम बात हो गई हो। महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अत्याचारों की एक लंबी सूची रोज बन सकती है। न मालूम कितनी महिलाएं कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, नारी को अपमानित करते हैं। एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है, इसीलिए आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडंबना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर धर्मग्रंथ एवं सामाजिकता के नाम पर खाप पंचायतें घेरे बैठी हैं। पुरुष समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्त्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा, जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढलान में उतर गए, जहां रफ्तार तेज है और विवेक में अनियंत्रण हैं। उसी का परिणाम है नारी पर हो रहे नित नए अपराध और अत्याचार। पुरुष समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं, बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है, जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है।

पुरुषवर्ग नारी को देह रूप में स्वीकार करता है, लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय देना होगा। उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा। ‘मातृदेवो भवः’ यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय पत्र है। ऋषि-महर्षियों के तप से सिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह नारी भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। रामायण उद्गार के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहां नारी शक्ति की पूजा होती आई है, फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं? प्राचीन काल में भारतीय नारी को विशिष्ट सम्मान दिया जाता था। सीता, सती-सावित्री आदि अगणित भारतीय नारियों ने अपना विशिष्ट स्थान सिद्ध किया है। इसके अलावा अंग्रेजी शासनकाल में भी रानी लक्ष्मीबाई, चांद बीबी आदि नारियां रही हैं, जिन्होंने अपनी सभी परंपराओं आदि से ऊपर उठ कर इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। लेकिन समय परिवर्तन के साथ-साथ देखा गया कि देश पर अनेक आक्रमणों के पश्चात भारतीय नारी की दशा में भी परिवर्तन आने लगे। अंग्रेजी और मुस्लिम शासनकाल के आते-आते भारतीय नारी की दशा अत्यंत चिंतनीय हो गई। दिन-प्रतिदिन उसे उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता था। वैदिक परंपरा में दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में नारी की आराधना होती रही है। नारी स्नेह का स्रोत है। मांगल्य का महामंदिर है। परिवार की पीढि़का है। पवित्रता का पैगाम है। उसके स्नेहिल साये में जिस सुरक्षा, शातलता और शांति की अनुभूति होती है, वह हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली नारी फिर क्यों बार-बार छली जाती है?

एक वक्त था जब आयातुल्ला खुमैनी का आदेश था,  ‘जिस औरत को बिना बुर्के देखो, उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दो। जिसके होंठों पर लिपस्टिक लगी हो, उन्हें यह कहो कि हमें साफ करने दो और उस रूमाल में छुपे उस्तरे से उसके होंठ काट दो। ऐसा करने वाले को आलीशान मकान व सुविधा दी जाएगी।’ खुमैनी ने इस्लाम धर्म की आड में और इस्लामी कट्टरता के नाम पर अपने देश में नारी को जिस बेरहमी से कुचला उसी देश में आज महिलाएं खुमैनी के मकबरे पर खुले मुंह और जींस पहने देखी जाती हैं। नारी को अपने आप से रू-ब-रू होना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता, लक्ष्य की तलाश और तैयारी दोनों अधूरी रह जाती हैं। स्वयं की शक्ति और ईश्वर की भक्ति भी नाकाम सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीने की हर दिशा में नारी औरों की मोहताज बनती हैं, औरों का हाथ थामती हैं, उनके पदचिन्ह खोजती हैं। कब तक नारी औरों से मांगकर उधार के सपने जीती रहेगी। कब तक औरों के साथ स्वयं को तौलती रहेंगी और कब तक बैशाखियों के सहारे मिलों की दूरी तय करती रहेंगी यह जानते हुए भी कि बैशाखियां सिर्फ सहारा दे सकती है, गति नहीं? बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-‘आंचल में है दूध’ को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएं रखें और भ्रूण हत्या जैसा घिनौना कृत्य कर मातृत्व पर कलंक न लगाएं, बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्हे उगते अंकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का सिंचन दें, ताकि वे शतशाखी वृक्ष बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें। जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे, जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें, सहयोग के दरवाजे, अनुशासन की खिड़कियां और समता की फलवाड़ी हो। उसका पवित्र आंचल सबके लिए स्नेह, सुरक्षा, सुविधा, सुख और शांति का आश्रय स्थल बने, ताकि इस सृष्टि में बलात्कार, गैंगरेप, नारी उत्पीड़न जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाज से हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाए।


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