अमोल अमोनकर

संगीत के प्रति समर्पण के कारण ही उन्होंने दुनियावी सफलताओं-असफलताओं के बारे में बहुत ध्यान नहीं दिया और न ही आलोचना-प्रशंसा को बहुत गौर से सुनने की कोशिश की। उनमें सीखने की नम्रता और ज्ञान को सम्मानित नजरिए से देखने की ठसक, दोनों मौजूद थीं। उनके समर्पण से तो सभी वाकिफ थे लेकिन उनकी ठसक से लोगों का परिचय तब हुआ जब उन्होंने कालिदास सम्मान को ठुकरा दिया…

भारत में संगीत को साधना माना जाता रहा है और इसे ईश्वर आराधना के माध्यम के रूप में अपनाया जाता रहा है। किशोरी अमोनकर को देखकर इन मान्यताओं को जीवंत रूप में महसूस किया जा सकता था। संगीत के प्रति समर्पण के कारण ही उन्होंने दुनियावी सफलताओं-असफलताओं के बारे में बहुत ध्यान नहीं दिया और न ही आलोचना-प्रशंसा को बहुत गौर से सुनने की कोशिश की। उनमें सीखने की नम्रता और ज्ञान को सम्मानित नजरिए से देखने की ठसक, दोनों मौजूद थीं। उनके समर्पण से तो सभी वाकिफ थे लेकिन उनकी ठसक से लोगों का परिचय तब हुआ जब उन्होंने कालिदास सम्मान को ठुकरा दिया।नब्बे के दशक में किशोरी अमोनकर को मध्य प्रदेश सरकार ने कालिदास सम्मान से नवाजने की घोषणा की थी, लेकिन उन्होंने यह सम्मान लेने से साफ मना कर दिया। कारण बताते हुए उन्होंने कहा था कि ‘पहली बार लता मंगेशकर को यह सम्मान मिला था, फिर मुझसे जूनियर कई कलाकारों को यह सम्मान मिल चुका है। मेरी याद इतनी देर में आई उनको? लिहाजा, मुझे अपमानजनक लगा, इसलिए मना कर दिया। ठसक और नम्रता का ऐसा दुर्लभ संयोग कम ही लोगों में देखने को मिलता है।   10 अप्रैल, 1931 को मुंबई में ही पैदा हुई किशोरी ताई ने अपनी मां और विख्यात गायिका मोगुबाई कुर्डिकर को अपना गुरु माना और संगीत साधना की। किशोरी अमोनकर का संबंध जयपुर-अतरौली घराने से था, लेकिन उन्होंने सभी सीमाओं को तोड़कर संगीत का एक राष्ट्रीय परिदृश्य रचा। साठ के दशक में उन्होंने संगीत के क्षेत्र में इतना ऊंचा मुकाम हासिल कर लिया था, सम्मान-आलोचना जैसे विषय उन पर बहुत प्रभाव नहीं डाल पाते थे।  उनकी खासियत यह थी कि उन्होंने सीखे गए रागों को अपनी कल्पना का पुट देकर नई उड़ान दी। वह किसी लीक से नहीं बंधी, उन्होंने शास्त्रीय संगीत के साथ अनेकों प्रयोग किए। आप उनकी रिकॉर्डिंग सुनिए। कोई दो रिकार्डिंग एक जैसी नहीं होगी। वह एकांत को लेकर बहुत संवेदनशील थीं। उन्हें अकेले रहना पसंद था और उसमें व्यवधान पड़ने पर उखड़ भी जाती थीं, इसी कारण कई बार बाहरी लोगों को उनका व्यक्तित्व अक्खड़ या तुनकमिजात प्रतीत होता था। वास्तव में उनका यह रूप अपने एकांत को बचाए रखने का प्रयास होता था।  उनका जाना एक युग के अवसान जैसा है। उन्होंने 1964 में आई फिल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’ में गायन किया था,जबकि 1991 में रिलीज हुई ‘दृष्टि’ फिल्म का उन्होंने संगीत निर्देशन किया था। शास्त्रीय संगीत में भावनाप्रधान गायन कला को पुनर्जीवित करने का श्रेय किशोरीताई को जाता है। उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान, 1985, पद्मभूषण सम्मान, 1987 संगीत सम्राज्ञी सम्मान, 1997 पद्मविभूषण सम्मान, 2002 संगीत संशोधन अकादमी सम्मान, 2002,संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, 2009 इत्यादि  प्रमुख अलंकरणों और पुरस्कारों से नवाजा गया। किशोरी अमोनकर को यह ऊंचाई इसलिए भी प्राप्त हुई क्योंकि किशोरी ताई की पहली और सबसे बड़ी गुरु  उनकी मां मोगूबाई कुर्दीकर थीं। मां की परवरिश और संगीत के प्रति लगाव के कारण किशोरी अमोनकर के जीवन में संगीत रच-बस गया था।  वह इस बात को स्वीकार करने में नहीं झिझकती थी नहीं थी। वह कहती थी कि मेरी मां से बड़ा कोई कलाकार मुझे दिखाई नहीं देता। मां की विरासत उनके लिए आस्था बन गई थी और इसी कारण वह अपना सर्वस्व संगीत को समर्पित कर पाईं।

-डा. जयप्रकाश सिंह