स्मृतियों के हाशिए पर जोरावर सिंह

By: Apr 24th, 2017 12:07 am

जोरावर सिंह के प्रारंभिक जीवन के संबंध में दो मत विद्यमान हैं। पहले विचार के अनुसार कि जब जोरावर सिंह 16 वर्ष के थे, तो भूमि विवाद को लेकर उनके हाथों चचेरे भाई की हत्या हो गई। वह पश्चाताप के लिए हरिद्वार चले गए। 1803 ई.में इनकी मुलाकात मरमत गलियां के जागीरदार राणा जसवंत सिंह से हुई। राणा ने उसे अपनी सेवा में ले लिया व जम्मू ले आए। यहीं पर उसने तीरंदाजी व तलवारवाजी तथा अन्य सैनिक शिक्षा प्राप्त की। कुछ समय बाद उन्होंने राणा की सेवा त्याग दी व महाराजा गुलाब सिंह की सेवा में आ गए…

उत्तरी भारत की सीमाओं को सुरक्षित बनाने में  जनरल जोरावर सिंह की अविस्मरणीय भूमिका रही है। जोरावर सिंह एक महान योद्धा, कुशल प्रशासक थे। वह बहुत दूरदृष्टा थे। उनकी दूरदृष्टि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व उत्तरी सीमा से भारत को होने वाले खतरे का आभास हो गया था। अतः उन्होंने सीमा विस्तार मैदानी क्षेत्रों की तरफ  करने के बजाय दुर्गम भूभाग की ओर किया। इस महान योद्धा की वीरता के परिणामस्वरूप लद्दाख, महाराजा गुलाब सिंह के राज्य का हिस्सा बना और वह  आज भी भारत का भूभाग है। इस महान सेनानायक ने अपने सैन्य कौशल से लद्दाख, बाल्टिस्तान व स्कर्दू जैसे दुगर्म क्षेत्रों को जीतकर जम्मू रियासत में मिलाया था और तिब्बत की ओर अभियान चलाया। जोरावर सिंह अपने 5000 सैनिकों के साथ 19,000 फुट की ऊंचाई के ग्लेशियरों को पार करके 6 दिनों में लेह पहुंचे थे। जोरावर सिंह का जन्म 13 अप्रैल, 1786 ई. को चन्द्रवंशी राजपूत हरजे सिंह ठाकुर के घर गांव अंसरा मौजा हथोल, तहसील नादौन, जिला हमीरपुर में हुआ। गांव में भूमि विवाद को लेकर झगड़े के कारण वह घर छोड़ कर हरिद्वार चले गए। जोरावर सिंह के प्रारंभिक जीवन के संबंध में दो मत विद्यमान हैं। पहले विचार के अनुसार यह कि जब जोरावर सिंह 16 वर्ष के थे, तो भूमि विवाद को लेकर उनके हाथों चचेरे भाई की हत्या हो गई। वह पश्चाताप के लिए हरिद्वार चले गए। 1803 ई.में इनकी मुलाकात मरमत गलियां के जागीरदार राणा जसवंत सिंह से हुई। राणा ने उसे अपनी सेवा में ले लिया व जम्मू ले आए। यहीं पर उन्होंने तीरंदाजी व तलवारवाजी तथा अन्य सैनिक शिक्षा प्राप्त की। कुछ समय बाद उन्होंने राणा की सेवा त्याग दी व महाराजा गुलाब सिंह की सेवा में आ गए। दूसरे विचारानुसार जोरावर सिंह पारिवारिक विवाद के बाद आजीविका की तलाश में लाहौर चले गए। वहां महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भर्ती हो गए। यहां पर किसी बात को लेकर सैनिक टुकड़ी के नायक से झगड़ा हो गया। अब उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह की सेना को त्याग दिया व कांगड़ा के शासक महाराजा संसार चंद की सेना में भर्ती हो गए। अतः वह यहां से जम्मू की ओर चले आए। जम्मू में उनकी मुलाकात महाराजा गुलाब सिंह से हुई और वह महाराज गुलाब सिंह की सेवा में आ गए। जब जोरावर सिंह गुलाब सिंह की सेवा में आए तो उन्हें रियासी के किलेदार का सैनिक बनाकर भेजा। गुलाब सिंह ने उन्हें रसद आपूर्ति के लिए निरीक्षक नियुक्त किया। अब वह महाराजा के विश्वसनीय अधिकारियों में एक थे। 1820 में जोरावर सिंह को वजीर की उपाधि दी गई। उन्हें अब कर निर्धारण करने, स्वतंत्रतापूर्वक सेना का गठन करने व ईद-गिर्द की रियासतों को जीतने की स्वतंत्रता दे दी गई। जब 1821 में महाराजा गुलाब सिंह ने किश्तवाड़ को अपने अधीन किया, तो जोरावर सिंह को किश्तवाड़ का गर्वनर नियुक्त किया। वह इस पद पर 1836 तक रहे। यहीं पर लद्दाख व सुदूर हिमालय अभियान के लिए सेनाओं को प्रशिक्षित किया गया।

लद्दाख विजय

1834 में जनरल जोरावर सिंह ने किश्तवाड़ से लद्दाख के लिए अभियान शुरू किया। उस समय टिम्बस के राजा का पश्च्युम के राजा के साथ सीमा विवाद चल रहा था। अतः टिम्बस के राजा ने इसकी शिकायत अपने स्वामी लद्दाख के ग्यालपो ताशीपाल से की। कई दिनों तक जब ग्यालपो ने इस निवेदन पर कोई कार्यवाही नहीं की, तो उसने किश्तवाड़ के हाकिम वजीर जोरावर सिंह से सहायता मांगी। जोरावर सिंह 5000 डोगरा सैनिक लेकर लद्दाख की ओर बढ़े। जोरावर सिंह व उनकी सेना ने सुरु नदी घाटी में 1834 में प्रवेश किया। उनका पहला सामना लद्दाखी सामंत बक्रासीस से हुआ। उसने डोगरा आक्रमण की सूचना लेह भेजी। 16 अगस्त,1834 को टोग या स्टोग के युवा मंत्री दोरजे नामग्याल ने 5000 सैनिकों के साथ सकूं नामक स्थान पर डोगरा सेना को रोकने का प्रयास किया। यहां पर लद्दाखी सेना पराजित हुई व पीछे हटने पर मजबूर हुई। जोरावर सिंह ने सुरू पर अधिकार करने के बाद सुरू कर्त्से का किला बनाया व वहां एक महीना रहा। लद्दाखी सेना ने मौसम का लाभ उठाते हुए डोगरा सेना पर हमला कर दिया। लंकरसे में युद्ध हुआ, जिसमें लद्दाखी सेनापति व सैकड़ों सैनिक मारे गए। जोरावर सिंह ने आगे बढ़ते हुए पश्च्युम पर अधिकार कर लिया। दूसरी ओर लद्दाखी राजा ने मंत्री नगोरव स्टैंडजिन व वांनखापा के नेतृत्व में 4000 सैनिक सहायता के लिए भेजे। सोड के किले में 10 दिनों तक लद्दाखी व डोगरा सैनिकों में भंयकर युद्ध हुआ। मेहता बस्ती राम ने 500 सैनिकों के साथ रात्रि के तीसरे पहर में भंयकर हमला किया तथा सोड के किले पर अधिकार कर लिया। पश्च्युम के मुखिया व दूसरे लद्दाखी सैनिकों को पकड़ लिया गया। अब जोरावर सिंह व पश्च्युम के जमीदार के बीच में समझौते की बात शुरू हो गई। लद्दाखी सेनापति ने 15000 रुपए वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया व ग्यालपो को सूचना भेज दी। ग्यालपो व उसके मंत्री समझौता करने के लिए तैयार थे परंतु रानी ने इनकार कर दिया। उसने मंत्री नगोरव स्टेंडजिन व लुमरा के मंत्री को आदेश दिया कि या तो वे वजीर जोरावर का सिर काट लाएं या फिर अपना सिर कटवा दें। उधर, बंका काहलों नामक लद्दाखी सेनापति पहाड़ी की दूसरी ओर से डोगरा सेना पर अचानक हमला कर देता है। जोरावर सिंह को अब पीछे हटना पड़ा। उसने लंकरसे के किले में शरण ली व सर्दी के चार महीने वहां व्यतीत किए। इस दौरान बंका काहलों के अधीन 22000 लद्दाखी सेना जमा हो चुकी थी। अप्रैल 1835 को जब लद्दाखी सेना भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी, तो डोगरा सेना ने अचानक हमला कर दिया। वहां काहलों सहित 1200 से ज्यादा सैनिक बंदी बना लिए गए। लद्दाखी सेना को पीछे हटना पड़ा। जोरावर की सेना पश्च्युम, मूलबेग व खरबू से होते इस लामायारू पहुंच गई। लद्दाखी ग्यालपो इकावत महमूद (ताशीपाल) घबरा गया व स्वयं लामायारू में वजीर का स्वागत किया व उसे लेह ले गया। अब 5000 डोगरा फौज लेह पहुंच गई। ग्यालपो ताशीपाल नामग्याल ने जम्मू रियासत की अधीनता स्वीकार कर ली व 50000 रु.युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में देने व 20000 रु. वार्षिक कर देना स्वीकार किया। 37000रु. नकद दे दिए गए बाकी की राशि चार किस्तों में देना स्वीकार किया। अब जोरावर सिंह वापस लमायारू लौट आया। यहां पर उसे जानकारी मिली कि सोड व सुरु के किलों में लद्दाखियों ने बगावत करके डोगरा सैनिकों को मार डाला है। अतः जोरावर सिंह ने सोड व सुरु के किलों को अपने अधीन किया। अब जोरावर सिंह व डोगरा सेनाएं जंस्कार की ओर बढ़ी। जहां बिना कोई मुकाबला किए ही जमीदारों ने सारी शर्तें मान ली। जंस्कार से जोरावर सिंह अक्तूबर 1835 में किश्तवाड़ पहुंचा। वहां से जम्मू पहुंच कर महाराजा गुलाब सिंह को लद्दाख विजय के बारे में जानकारी दी। कुछ समय के पश्चात सूचना मिली कि लेह में बगावत हो गई है। अब जोरावर सिंह किश्तवाड़ से रुडोक होते हुए दस दिनों में सीधे लेह पहुंच गए। जैसे ही ग्यालपो को जोरावर सिंह के आने की सूचना मिली तो अपने लेह की सीमा पर पहुंच कर जोरावर सिंह का स्वागत किया। बगावत में ग्यालपो का बेटा संलिप्त था। वह घबरा कर लाहुल- स्पीति के रास्ते शिमला चला गया। जोरावर सिंह ने ग्यालपो से बकाया राशि के रूप में गहने, सोने-चांदी के बरतन व पश्मीना शालें वसूल की। वजीर ने अब ग्यालपो को उसकी जयादाद व कुछ आसपास के गांव की आमदन छोड़ कर लेह के सिंहासन पर प्रधानमंत्री मौडूक तेजिंग को नया ग्यालपो बनाया। लेह में जोरावर सिंह ने किले को निर्माण किया।  दलेल सिंह व थानेदार मगना राम को जिम्मेदारी देकर वह वापस जम्मू आ गए।

बाल्टिस्तान विजय

बाल्टिस्तान में राजा अहमदशाह व उसके बड़े बेटे मोहम्मद शाह के बीच मतभेद चल रहा था। इस स्थिति में जोरावर सिंह ने बाल्टिस्तान की ओर रुख किया। नवंबर 1839 में डोगरा सेनापति बंका काहलों, अन्य लद्दाखी अधिकारियों, लद्दाख के बूढ़े राजा व डोगरा सेना को बाल्टिस्तान की ओर चलने को कहा गया। जोरावर सिंह की सेना ने मरोल व खरमंग के रास्ते से बाल्तिस्तान में प्रवेश किया। अहमदशाह ने 20000 सैनिक सेनापति गुलाम हुसैन के नेतृत्व में मरोल के स्थान पर जोरावर सिंह की सेना का रास्ता रोकने के लिए भेजे। चेचे थंग के स्थान पर बाल्ती सेना ने पुल को तोड़ दिया।

— राकेश कुमार शर्मा , रिसर्च फैलो भारतीय इतिहास, अनुसंधान परिषद,

नई दिल्ली


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