शिखर पर
— रमेश पहाडि़या, नाहन
मुलाकात
आज जो कुछ भी हूं हिमाचल की वजह से ही हूं…
कब पता चला कि आपकी दिशा लेखन की ओर इशारा कर रही है?
यह सवाल मेरे लिए बहुत अहम है। दरअसल हर इनसान में एक लेखक बसता है। बस उसे पहचानने की जरूरत होती है। फर्क इतना है कि कुछ लोग शब्दों का सहारा लेकर अपने आपको परिभाषित कर पाते हैं और कुछ नहीं। जिंदगी आपको कई पड़ाव से गुजरने का मौका देती है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ है। घर परिवार, समाज और अपने आसपास की चीजों से गुजरते हुए मैंने अपने अंदर लेखन के बीज अंकुरित होते महसूस किए। मैं अपने भावों को दबाकर नहीं रख सकी और मेरा लेखन कार्य शुरू हो गया, जो जारी है।
लेखन अगर रोजी-रोटी का साधन बन जाए तो इसकी मौलिकता को साधना कितना मुश्किल हो सकता है?
हर लेखक की अपने लेखन में एक मौलिकता होती है। मैं इस सवाल का जवाब दो तरह से दूंगी, क्योंकि मैंने हमेशा ही लेखन को दो तरह से जिया है। एक तो अगर लेखन आपका रोजी-रोटी का साधन है, तो जाहिर सी बात है कि आपको कई बार इससे समझौते भी करने पड़ेंगे। लेखन साधना की तरह है और साधन मन से रूह से बिना किसी विघ्न के होती है वह भी निरंतर। मैंने इस विचार को हमेशा आगे रखा है और लेखन से कभी समझौता नहीं किया।
व्यावसायिक लेखन के बीच आपकी निजी संवेदना किन विषयों को छूना चाहती है?
मैंने हमेशा ही उन विषयों पर लिखा है, जो मेरी निजी संवेदनाओं के साथ-साथ सामाजिक संवेदनाओं से भी जुड़े हुए हैं। मैं उन सभी विषयों को छूना चाहती हूं जिन्हें आज के व्यावसायिक लेखन में फंसा लेखक छूने से डरता है। वह चाहे सामाजिक हो आर्थिक या मानसिक। आप जितना निजी संवेदनाओं से जुड़े होते हो उतने ही गंभीर रूप से आप समाज की संवेदनाओं को पकड़ने की कोशिश करते हो।
आपके जीवन को कलम ने निर्धारित किया या यही नियति थी कि आप लेखन में भूमिका तराशती रहीं?
कहीं न कहीं आपका लेखन आपके निजी जीवन को भी प्रभावित करता है, ऐसा मैंने महसूस किया है। जब आप कुछ भी लिखते हो तो पहला संवाद लेखन का आपसे ही होता है कि आप क्या कर रहे हो या क्या करने जा रहे हो। लेखन या कलम आपको असल मायने में तराशती है।
लेखन में सबसे अच्छा प्रयोग किस विधा में रहा और जिसे खोजने निकली वह कहां मिला?
मैंने फीचर राइटिंग के साथ-साथ समाज के उन विषयों को भी छूने की कोशिश की है जिन्होंने हमेशा से ही मुझे झिंझोड़ा है। जब आप एक पत्रकार की भूमिका में होते तो आपको अपना कोई निजी सरोकार छोड़ना पड़ता है। इसे मैं खुद से समझौता करना कहती हूं। मैंने स्वतंत्र लेखन को हमेशा ही तरजीह दी है। यहां मैं समाज के प्रति अपनी बात खुल कर रख सकती हूं।
क्या लिखना भी गुरु की दीक्षा से प्राप्त हो सकता है या आप किसी को इस रूप में देखती हैं?
दो चीजें होती हैं जिंदगी में। एक बनाई गई और दूसरी स्वरूप निर्मित। लेखन भी ऐसा ही है। आपके पहले खुद अंदर कुछ होना चाहिए उसे तराशने की बात बाद में आती है। गुरु या मार्गदर्शक इसमें अहम भूमिका निभाता है। मुझे बहुत सारे लोगों से मिलने का मौका मिलता है। सब कुछ न कुछ सिखाकर जाते हैं। किसी न किसी की कोई न कोई बात आपको कुछ न कुछ देकर जाती है।
लेखन से लेखक कब गिर सकता है या कलम की प्रतिबद्धता को जब नजरअंदाज करते हैं तो?
लेखन से जब समझौते होते हैं आपका लेखन आपको बनाकर नहीं रख पाता। आपका लेखन बता देता है कि आप किस स्तर पर हो। कलम की प्रतिबद्धता को जब नजरअंदाज करते हैं तो लेखन में गिरावट आती है। लेखन के प्रति ईमानदार रहना लेखक की लेखन से पहले सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
किसे पढ़ना अच्छा लगता है?
मुझे ज्यादातर इतिहास से जुड़ी किताबें पढ़नी अच्छी लगती हैं। कविता लेखन से भी जुड़ी हुई हूं। मैं पढ़ने के कोई मानक नहीं तय करना चाहती। जहां लगता है कि कुछ सीखने का मौका मिल रहा है उस साहित्य को पकड़ लेती हूं। फिर वह चाहे नवोदित लेखक का हो या किसी पुराने का।
किताबों के जखीरों में क्या खोज पाईं?
किताबें असल जिंदगी की तरजुमानी करती हैं। भाषा से साहित्य निर्मित होता है और साहित्य से ही संस्कार। इतना साहित्य रचा जा रहा है जिसका कोई अंत नहीं है। अंग्रेजी, पंजाबी की अनुवादित और हिंदी से जुड़ी किताबों से मैंने जिंदगी जीने की बारीकियों को बहुत नजदीक से देखा है। किताबें आपकी संवेदना को तराशती हैं। मैंने यही संवेदना किताबों से पाई है।
साहित्य की रचना सरल है या पत्रकार की कलम?
दोनों की अपनी विशालताएं हैं। यह कहना मुश्किल है कि दोनों में से कौन सा सरल है। मैं दोनों के ही बहुत पास हूं तो मैं दोनों में ही आत्मिक संतुष्टि महसूस करती हूं। साहित्य जितना आपको अंतरमन से जोड़ता है पत्रकारिता उतना ही आपको आकाश में उड़ने के लिए नए आसमान पैदा करती है।
लेखन में पुरस्कारों की जुगत के क्या मायने या समाज की आंख से लेखक की पहचान में अंतर कैसे आएगा?
अगर आप साधना की तरह लेखन करते हो तो पुरस्कार किसी जुगाड़ या जुगत से लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। समाज आपको आपके लेखन से ही जानता है न कि आपको मिले पुरस्कारों से। आपका लेखन ही आपका पुरस्कार है।
लौट के उसी माटी को कुछ देना हो ?
मैं भले काफी समय से चंडीगढ़ में रह रही हूं, लेकिन अपनी हिमाचली माटी से मेरा मोह कभी कम नहीं हुआ। यहां की आबोहवा मेरे जहन में हमेशा बनी रहती है। मैं क्या दे सकती हूं हिमाचल को, आज जो कुछ भी हूं मैं हिमाचल की वजह से ही हूं।
और कुछ हिमाचली गुनगुनाना हो?
हिमाचली अगर कुछ गुनगुनाना हो तो यह गुनगुनाऊंगी ‘माए नी मेरिए शिमले दी राहे चंबा कितनी के दूर…’।
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