नेतृत्व गंवाता अमरीका

By: Jun 28th, 2017 12:05 am

( डा. अश्विनी महाजन लेखक, प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज दिल्ली से हैं )

डा. अश्विनी महाजनहाल ही तक सब विषयों में अमरीका एक नेतृत्व की भूमिका में रहा है। पेरिस संधि से बाहर आने के बाद अमरीका की इस भूमिका पर असर पड़ेगा और उसका स्थान भारत, चीन, जापान जैसे देश ले सकते हैं, क्योंकि अब ये देश दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के मसीहा के रूप में देखे जा सकते हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस संदर्भ में बयान दिया था कि पेरिस संधि हो या न हो, हमारे बच्चों को स्वच्छ वातावरण के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता…

अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा 2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते से बाहर आने के निर्णय ने दोबारा से क्योटो समझौते की यादें ताजा कर दी हैं। ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से 1997 में क्योटो समझौते को अंजाम दिया गया था, जिसके तहत अमीर मुल्कों द्वारा अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2012 तक 1990 के स्तर से पांच से आठ प्रतिशत नीचे लाना तय किया। इस प्रतिबद्धता से भारत, चीन, ब्राजील इत्यादि को मुक्त रखा गया, क्योंकि ऐसा माना गया कि ये मुल्क अपने आर्थिक विकास के प्रथम चरण में हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबद्धता से उनका आर्थिक विकास बाधित हो सकता है। लेकिन अमरीका ने क्योटो समझौते से स्वयं को तब भी बाहर कर लिया था। उसका तर्क था कि अमरीका को क्योटो समझौते को पूरा करने से नुकसान होगा। उसका यह भी कहना था कि चीन और भारत द्वारा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है, इसलिए वास्तव में उन्हें ही अपने गैस उत्सर्जन को कम करना चाहिए। जार्ज डब्ल्यू बुश, जो उस समय अमरीका के राष्ट्रपति थे, के नेतृत्व में अमरीका का यह भी कहना था कि वह अपना ‘लाइफ स्टाइल’ बदलने के लिए तैयार नहीं है। यह सही है कि जिन विकसित देशों ने क्योटो संधि को स्वीकार किया था, उन्होंने प्रयासपूर्वक अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया। इसके लिए उन्हें खर्च करना पड़ा, तो भी उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार किया। इसलिए कहा जा सकता है कि शायद अमरीका ने विश्व के मौसम परिवर्तन और मानवता के प्रति उनके दायित्व से ज्यादा धन को महत्त्व दिया और स्वयं को क्योटो समझौते से बाहर रखा।

पेरिस पर्यावरण समझौते के अनुसार सभी देशों ने ग्रीन हाउस उत्सर्जन को कम करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दी है। हालांकि उसे पूरा करने के लिए कोई बाध्यता उनके लिए नहीं होगी। सक्षम मुल्कों से ग्रीन क्लाइमेट फंड हेतु योगदान की भी प्रतिबद्धता समझौते में की गई है। ट्रंप का कहना है कि पेरिस समझौता गैर बराबरी का है, क्योंकि इस समझौते में रहने से ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीएसएफ) के लिए अमरीका को दसियों अरब रुपए खर्च करने पड़ेंगे और भारत पर विशेष तौर पर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा कि भारत को इसमें अरबों डालर मिलेंगे। लेकिन इस संदर्भ में सच्चाई यह है कि विकसित देशों ने ‘जीसीएफ’ के लिए हर साल 100 अरब डालर देने का संकल्प किया था, जिसमें अमरीका को मात्र तीन अरब डालर ही देने थे। इसमें से अभी तक उसने मात्र एक अरब डालर ही दिए हैं। यही नहीं, ट्रंप का यह कहना कि अमरीका को अकेले ही सारा बोझ सहना पड़ेगा, तो बिलकुल सही नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा संकल्पित योगदान तो अमरीका की जीडीपी के अनुपात में और प्रति व्यक्ति योगदान के अनुपात में कहीं कम ही है।

एक तरफ जहां ट्रंप अमरीकी विकास की दुहाई देते हुए पेरिस समझौते से बाहर आने की बात कर रहे हैं, अमरीकी राज्यों के गवर्नर पेरिस समझौते के अनुरूप ऊर्जा के स्थायी स्रोतों के विकास, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी और स्वच्छ पर्यावरण के निर्माण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहरा रहे हैं। ‘हवाई’ के गवर्नर डेविड इगे का कहना है कि राज्यों के गवर्नरों के बीच तेजी से वार्ताएं चल रही हैं कि इन मुद्दों पर हमें ही नेतृत्व करना होगा। उनका कहना है कि कई अन्य राज्य भी मौसम परिवर्तन और समुद्री स्तर के बढ़ने जैसी समस्याओं के बारे में इसी प्रकार के विचार रखते हैं। जब राष्ट्रपति ट्रंप ने पेरिस समझौते से अलग होने की बात कही तो उसके कुछ ही दिनों में ‘हवाई’ राज्य ने पेरिस समझौते के अनुपालन हेतु नियमावली बना दी। यानी अमरीकी राष्ट्रपति के इस कृत्य के खिलाफ एक अमरीकी राज्य ने ही असहमति और असहयोग का बिगुल बजा दिया है। अमरीका के उद्योगों को पुनर्जीवित करने का तर्क देते हुए, जबकि ट्रंप का कहना है कि वह पेरिस नहीं ‘पिट्सबर्ग’ (जो एक बंद उद्योगों का शहर बन कर रह गया है) का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके जवाब में ‘पिट्सबर्ग’ शहर के ही मेयर का यह कहना है कि हम अपने लोगों, अपनी अर्थव्यवस्था और भविष्य के लिए पेरिस समझौते के दिशा निर्देशों का ही पालन करेंगे। इसी प्रकार से सैकड़ों शहरों के मेयरों ने यह स्पष्ट घोषणा की है कि वे ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री से कम (1990 के स्तर की तुलना में) रखने के पेरिस समझौते के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सभी उपाय करेंगे।

यदि अमरीका पेरिस संधि से बाहर रहने के अपने निर्णय पर अटल रहता है, तो उसकी कंपनियों को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। गौरतलब है कि यदि अमरीका ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ की अपनी बची हुई सहयोग राशि जमा नहीं करता तो उसके द्वारा विकासशील देशों को ग्रीन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को धक्का लगेगा। ‘जनरल इलेक्ट्रिक’ के प्रमुख ने हाल ही में ट्वीट करके कहा है कि अब उद्योग को खुद ही आगे बढ़ना होगा, सरकारी सहयोग पर निर्भरता नहीं चल सकती। अमरीका के पेरिस संधि से बाहर आने के बाद अमरीकी कंपनियों द्वारा ग्रीन प्रौद्योगिकी की बिक्री पर बुरा असर पड़ सकता है। हाल ही तक सब विषयों में अमरीका एक नेतृत्व की भूमिका में रहा है। लेकिन पेरिस संधि से बाहर आने के बाद अमरीका की इस भूमिका पर असर पड़ेगा और उसका स्थान भारत, चीन, जापान जैसे देश ले सकते हैं, क्योंकि अब ये देश दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के मसीहा के रूप में देखे जा सकते हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस संदर्भ में बयान दिया था कि पेरिस संधि हो या न हो, हमारे बच्चों को स्वच्छ वातावरण के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।

अमरीका से अलग सभी देशों ने एकजुट होकर के यह कहा है कि वे पेरिस संधि में किसी बदलाव को स्वीकार नहीं करेंगे। यूरोपीय संघ द्वारा ग्रीन क्लाइमेट फंड को 4.8 अरब डालर दिया जाना उसकी पेरिस संधि के लिए प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। जहां अमरीका का नेतृत्व वैश्विक मुद्दों पर कमजोर होगा, चीन समेत दूसरे मुल्क नेतृत्व को हथियाने की कोशिश करेंगे। उधर कई नई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं भी जन्म ले रही हैं, जो अमरीका के नेतृत्व को और कमजोर करेंगी।

जिस तेजी से भारत में सौर ऊर्जा क्षमताओं का निर्माण हो रहा है, ऐसा लगता है कि वह पेरिस में दी गई प्रतिबद्धताओं से कहीं आगे बढ़ जाएगा। भारत की विद्युत योजनाओं के अनुसार 2027 तक भारत की 57 प्रतिशत बिजली की आवश्यकताएं सौर ऊर्जा से पूरी होने लगेंगी, जबकि पेरिस समझौते में उसने 2030 तक 40 प्रतिशत की प्रतिबद्धता ही की थी। भारत के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सौर गठजोड़ (इंटरनेशनल सोलर एलाएंस) के माध्यम से सौर ऊर्जा क्षेत्र में भारत ने बड़ी पहल की है।

कहा जा सकता है कि अमरीका द्वारा पेरिस समझौते से अपने आप को अलग करने के निर्णय से क्षणिक रूप से चाहे मौसम परिवर्तन और मानवता के लिए एक खतरा जरूर दिखाई देता है, लेकिन विश्व स्तर पर मुल्कों की प्रतिबद्धता से और उभरते वैश्विक नेतृत्व से यह विश्वास जरूर बनता है कि अमरीका के इस कदम से उसके नेतृत्व की भूमिका और उसके बिजनेस को ही नुकसान होगा और दुनिया के दूसरे मुल्क अपनी जिम्मेदारी समझते हुए परिपक्वता से कार्य करेंगे और मानव को उभरते वैश्विक पर्यावरणीय खतरों से बचाया जा सकेगा।

 ashwanimahajan@rediffmail.com

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