भक्तों की भावना से खिलवाड़ करता ज्वालामुखी मंदिर प्रशासन

बात भावना की है और सदियों की आस्था यहां खींच लाती है। वरना उस मंदिर में कोई क्यों आए जिसे संभालने वाला प्रशासन लंबी तानकर सो रहा हो और चाटुकार सियासत में व्यस्त हों। ज्वालामुखी मंदिर प्रबंधन आखिर श्रद्धालु को समझता क्या है, यही कि उसके चढ़ावे की बेकद्री होती रहे। क्या कभी श्रद्धालु को यहां के कारिंदों ने चैन की सांस लेने दी। ये ऐसे प्रश्न है जो देवी मां के दर्शनों को आए श्रद्धालु कभी उठाते नहीं क्योंकि उन्हें तो सिर्फ ‘मां’ से मतलब है। यही कारण है कि आस्था के नाम पर भावनाओं की लूट यहां खुलेआम होती आई है। मसलन कूड़ेदान साफ करना कोई कुत्तों का काम तो नहीं है, फिर भी मंदिर परिसर में कुत्ते क्यों घुसते हैं। परिसर का कोई भी कोना ऐसा नहीं जहां गंदगी के ढेर न लगे हों। मंदिर परिसर के बाहर तो गंदगी का ही साम्राज्य है। जहां शायद सफाई पसंद व्यक्ति का दम घुट जाए। मंदिर के नाम पर चांदी कूटने वाला यह शहर आज तक इतना विकसित नहीं हो पाया कि कंकरीट के जंगल सेबाहर भी उसे दूसरी दुनिया नजर आए। यहां के साथ बहते नाले हों या नालियां, हर जगह नर्क का नजारा आता है। यानी कोई योजना नहीं, नजर सिर्फ श्रद्धालु की जेब पर है। व्यवस्था का यही आलम है तो श्रद्धालु का चढ़ावा आखिर जाता कहां है। यह चित्र हमारे पाठक ने अपने व्हाट्सऐप नंबर 78078-60000 (अविनाश ने ढलियारा) से हमें भेजा।

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