विकास के प्रतिबंध

By: Jul 17th, 2017 12:02 am

विकास की मौजूदा दौड़ के बीच निर्माण रोकने की आवश्यकता को हम राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल के हालिया फैसले में देख सकते हैं। हरिद्वार से उन्नाव के बीच गंगा में कचरा फेंकने पर पचास हजार जुर्माने के अलावा नदी के आसपास सौ मीटर के दायरे में ‘नो डिवेलपमेंट जोन’ की घोषणा, एक बड़ा संदेश है। विकास के प्रतिबंध को समझने के लिए नागरिक समाज की मर्यादा का उल्लेख एनजीटी ने किया है। यह ऐसा ही दर्द है जो रोहतांग में सूखती बर्फ को देख कर, राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने मानवीय हलचल को नियंत्रित करते हुए महसूस किया। हिमाचल के संदर्भ में ऐसे कई नदी-नाले हैं, जहां गंगा की तरह कचरा बहने लगा है। शहरीकरण की महत्त्वाकांक्षा ने प्राकृतिक जल निकास पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया है, तो नदियों के नजदीक बस्ती पहुंच चुकी है। हिमाचल में अतिक्रमण के निरंकुश इरादे न केवल कूहलों-नालों पर पांव जमा रहे, बल्कि प्रकृति के खिलाफ निर्माण भी कर रहे हैं। मानसून के पहले हफ्ते की करतूत में ही अगर हिमाचली निर्माण खोखला सिद्ध हो रहा है, तो विकास के बीच प्रतिबंध को अनुमति देनी होगी। कुछ वर्ष पहले कुल्लू घाटी में मची तबाही और धर्मपुर के आंचल  में बसा विकास अपराधी बना तो इसलिए, क्योंकि बहते जल की कोशिश को नजरअंदाज किया गया। विडंबना यह भी रही कि शहरी नियोजन ने जल निकासी की प्राकृतिक इच्छा के खिलाफ कई बार अनुमति दे दी। हरित पट्टियों के खिलाफ हुए विकास के चिन्ह डलहौजी, मकलोडगंज, मनाली, सोलन, कसौली और मंडी जैसे अनेक शहरी कस्बों को डरा रहे हैं, तो एनजीटी के ताजा निर्णय की चोट हमारे परिवेश तक पहुंच रही है। हिमाचल को एनजीटी के हर फैसले की संवेदना में अपनी योजनाओं को नया आकार देने पर विचार करना होगा। हिमाचल में नदी की व्याख्या में हर जल स्रोत को कूड़ेदान से बचाने की आवश्यकता है। खास तौर पर मंडी जैसे शहर के साथ नदियों के संगम पर हम अपनी बिगड़ती सूरत देख सकते हैं। तमाम पर्यटक व धार्मिक स्थलों की पवित्रता इसी में है कि इनके साथ बहते जल की गरिमा बनी रहे। खास तौर पर नो डिवेलपमेंट जोन की अवधारणा में विकास के संतुलन को समझना होगा। हिमाचल की घाटियों में बसी दृश्यावलियों को जिस प्रकार निर्माण की शृंखलाओं ने चूस लिया है, उस पर तुरंत तवज्जो की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए परवाणू से शिमला, कुल्लू से मनाली या संपूर्ण कांगड़ा घाटी में जिस प्रकार नवनिर्माण हो रहा है, उस पर कड़ा संज्ञान लेने की आवश्यकता है। खास तौर पर पर्यटक व धार्मिक स्थलों पर फैलती पैसों की भूख ने पर्वतीय अस्तित्व को ही नोच लिया है। मनाली, शिमला, डलहौजी व मकलोडगंज में जंगल को हड़पने में बाकायदा एक माफिया ईजाद हुआ है और भयंकर अधोसंरचना पहाड़ से टकरा रही है। राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने शिमला की बोझ क्षमता या कसौली की हरित चादर के छेद देख लिए हैं, लेकिन सरकारी तंत्र व समाज अपनी आंखों में सुरमा डाल कर घूम रहे हैं। ऐसे में विकास की संभावना के साथ-साथ इसकी आचार संहिता को भी रेखांकित करना पड़ेगा। हर साल बढ़ते पर्यटन और  हिमाचल की प्रति व्यक्ति आय के प्रदर्शन में हम अपने अस्तित्व को विकराल नहीं बना सकते। शहरों के जल निकासी का फर्ज निभा रहे प्राकृतिक नालों व खड्डों को कूड़ा स्थल बना चुकी हमारी प्रगति को एनजीटी का इशारा बताना पड़ेगा। ग्राम व शहर योजना की मूल अवधारणा  का निरूपण करते हुए हिमाचली विकास के साथ, नो डिवेलपमेंट जोन का सहचर्य आवश्यक है। हर गांव से शहरी निकाय तक के अधिकार से यह सुनिश्चित होना चाहिए कि विकास के साथ प्रतिबंध भी जुड़े। उजड़ते खेतों की दास्तान, गायब होती दृश्यावलियों की पीड़ा और नाजुक जमीन को छलनी करते निर्माण को एक सीमा से आगे नहीं रोका, तो विनाश हमसे दूर नहीं है। हर शहर और गांव के विस्तार का नियोजन तभी संभव है अगर पूरे हिमाचल में ग्राम एवं नगर योजना कानून सही मायने से अमल में लाया जाए।

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