एक संवैधानिक दायित्व
पूर्व भाजपा अध्यक्ष एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू अब देश के नए उपराष्ट्रपति हैं। मतदान में उन्हें 516 और विपक्षी उम्मीदवार गोपाल गांधी को 244 वोट हासिल हुए। करीब 20 सांसदों ने वेंकैया के पक्ष में क्रॉस वोटिंग की। अब राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष इन चारों शीर्ष संवैधानिक पदों पर पहली बार भाजपा-संघ के चेहरे विराजमान हैं। यह एक विलक्षण सफलता और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। देश ने संघ परिवार को स्वीकृति दी है। अब संघ को ‘अछूत’ मानने वालों को खामोश होना होगा, लेकिन यह सफलता और उपलब्धि एक गंभीर संवैधानिक दायित्व का एहसास भी कराती है। इस एहसास के मायने वर्चस्ववादी मानस से नहीं है। संघ-भाजपा को लचीला होना होगा और विकेंद्रीकरण के सिद्धांत को लागू करना होगा। बेशक इस दौरान में पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सफलता के रथ पर सवार हैं। बुनियादी तौर पर दोनों ही सरकार और पार्टी के ‘सारथी’ हैं। यदि जदयू सरीखा राजनीतिक दल और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक जैसी पार्टी के दोनों गुट, अंततः भाजपा के साथ एनडीए में शामिल होते हैं, तो यह भाजपा की व्यापक स्वीकृति है। जनाधार और जनादेश के आधार पर अभी स्वीकृति शेष है। यह स्थिति ऐसी है कि विपक्ष के पास एक भी सर्वसम्मत चेहरा नहीं है। एक भी नेता ऐसा नहीं है, जिसका प्रभाव एक बड़े राज्य के साथ दो-तीन छोटे राज्यों में भी हो। राजनीतिक संगठन और विस्तार भी हो। कुछ सीमा तक कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का नाम लिया जा सकता है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और व्यापक पार्टी है। 1984-85 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दौर में कांग्रेस का भी विस्तार ऐसा ही था, जैसा आज भाजपा का है। देश के 17-18 राज्यों में सरकारें थीं और चारों शीर्ष संवैधानिक पदों पर कांग्रेस के ही नेता विराजमान थे। समय बदला और कांग्रेस के प्रति मोहभंग गहरा होता गया। नतीजतन आज की स्थिति देश के सामने है। देश राहुल गांधी को वैकल्पिक नेता के तौर पर स्वीकारने को तैयार ही नहीं हो पा रहा है। पीएम मोदी को फिलहाल चुनौती देने में राहुल सक्षम नहीं हैं। आखिर क्यों… इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता, क्योंकि देश को फिलहाल पीएम मोदी के नेतृत्व में विश्वास है। राहुल के अलावा, मायावती, अखिलेश यादव, शरद यादव, ममता बनर्जी, लालू यादव विपक्ष के ऐसे चेहरे हैं, जो अपने राज्यों में ताकतवर हैं। मायावती और अखिलेश के दल उत्तर प्रदेश में बुरी तरह पराजित हुए हैं। लालू एक दागी नेता हैं। उनके पूरे परिवार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। उनके परिजनों को जेल भी जाना पड़ सकता है, लिहाजा वह चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किए जा सकते हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों में विपक्षी एकता का पाखंड और दिवालियापन भी बेनकाब हुए हैं। कुल मिलाकरपीएम मोदी और अमित शाह के लिए कोई भी गंभीर चुनावी चुनौती नहीं है, लेकिन संघ और भाजपा में एक तबका ऐसा है, जो इस वर्चस्ववादी राजनीति का पक्षधर नहीं है। उसका सवाल है कि स्थितियां विपरीत होने लगीं और काडर भी नाराज हुआ, तो मोदी-शाह की सियासत का परिणति क्या होगी? बेशक एनडीए के व्यापक होने और भाजपा की स्वीकृति बढ़ने से 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी-शाह के लिए कोई बड़ी दिक्कत नहीं होनी चाहिए, लेकिन मुद्दा यह है कि सरकार और पार्टी विकेंद्रीकरण की भावना से चलती महसूस होनी चाहिए। लिहाजा हम एक संवैधानिक दायित्व की बात कर रहे हैं। अब तो राज्यसभा में भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी हो गई है और उपराष्ट्रपति के तौर पर राज्यसभा के सभापति भी भाजपा के हैं। चारों ओर सकारात्मक स्थितियां हैं, लिहाजा मोदी-शाह को भविष्य की राजनीति पर भी विमर्श करते रहना चाहिए।
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