क्या शिंदे, पांडे बन पाएंगे

By: Aug 5th, 2017 12:05 am

राजनीति भले ही गुणात्मक नहीं हो सकती, लेकिन मात्रात्मक पंक्तियों के बीच हिमाचल कांग्रेस के मतभेद अगर चौराहे पर खड़े होंगे, तो पार्टी जाएगी कहां? हिमाचल में कमोबेश हर नेता अपनी मंजिल सुनिश्चित करने की होड़ में पार्टी चरित्र में बुलंद नहीं हो पा रहा है। हिमाचल कांग्रेस के नए प्रभारी  सुशील कुमार शिंदे के स्वागती तरानों में दर्ज हुई नारेबाजी को केवल प्रदेश की टोपी पहनकर तो नहीं समझा जा सकता। धु्रव के समीप ध्रुव का होना सियासी महत्त्वाकांक्षा का फासला कम नहीं करता और हो भी यही रहा है कि प्रदेश का सत्तारूढ़ दल अपने निरीक्षण व परीक्षण के ऐन वक्त पर स्वयं को परिभाषित नहीं कर पा रहा है। सुक्खू के खिलाफ नारेबाजी कांग्रेस के खिलाफ नहीं है, फिर भी ऐसे नाजुक मोड़ पर पार्टी का दलदल तो स्पष्ट है। इस युद्ध के खलनायक कांग्रेस की छाती पर सवार हैं, तो शिंदे चीर-फाड़ करेंगे किस यथार्थ की। आश्चर्य भी यही कि न तो कांग्रेस यथार्थवादी दृष्टिकोण से अपने इर्द-गिर्द देख रही है और न ही भीतर तक खुद में झांक रही है। काल्पनिक महल में रह रहे नेताओं को जिस प्रकार स्वयं पर भ्रम है, उसी प्रकार पार्टी को भी खुशफहमी है कि विपक्षी हमलों को किसी एक नेता की तलवार पछाड़ सकती है। प्रभारी भी यही संदेश देने के लिए हिमाचल में तशरीफ लाए हैं कि एकजुटता की प्रमाणिकता में आगामी चुनाव लड़ा जाए। छवि के अपने घराने में कमजोर होकर बैठी कांग्रेस के लिए हिमाचल एक आसरा हो सकता है, लेकिन आंतरिक अनुशासनहीनता के वर्तमान दौर में शिंदे किस चादर को समेट पाएंगे। यहां पार्टी से बड़ा घोषित होने की अगर कोई मुहिम नहीं, तो पार्टी के साथ चलने की तहजीब भी दिखाई नहीं दे रही। कांग्रेस ने प्रदेश प्रभारी के रूप में शिंदे के सामने हिमाचल की सत्ता बचाने की कसौटी तो परोस दी, लेकिन बदलाव का सामर्थ्य शायद उनके पास नहीं। पीटरहॉफ में सुक्खू विरोधी नारों में चिन्हित क्या हुआ, आक्रोश या अहंकार। दोनों परिस्थितियों में कांग्रेसी वजूद की शिनाख्त का अधिकार किसके पास है। यहां भाजपा की तैयारियों का जवाब नहीं खोजा जा रहा है, बल्कि कांग्रेस अपने ही रक्त की जांच कर रही है। यहां प्रश्न कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष को पीछे धकेलने का है या मौजूदा सत्ता के स्तंभ को गिराने का है, तो क्या शिंदे भाजपा के प्रदेश प्रभारी मंगल पांडे बन पाएंगे। इस प्रभार का अंतर और अंतरधारा में भिन्नता को परखना होगा। ऐसा नहीं है कि भाजपा में सत्ता के जादूगर नहीं हैं, लेकिन वहां शक्ति के केंद्र हटा कर पार्टी अपनी जीत के लिए कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा रही है। दूसरी ओर कांग्रेस अपनी शक्ति को नेताओं के सुपुर्द कर चुकी है और जब तक सभी एक धरातल पर आगे बढ़ने की कोशिश नहीं करेंगे, मनोबल नहीं बढ़ेगा। हालांकि  इशारों में शिंदे शिखर को धरातल की बात बता रहे हैं, लेकिन जमीन पर बिखरे कुनबे को एकजुट करने की भाषा को सख्त पैमानों की जरूरत है। स्पष्ट गुटबाजी के दो दरवाजे आमने-सामने हैं, तो प्रभारी एक साथ दोनों की ओर कदम नहीं बढ़ा सकते और न ही चुनावों की सही दिशा का आकलन वर्तमान परिस्थितियां कर पाएंगी। क्या कांग्रेस की जीत के लिए केवल सरकार की उपलब्धियों का जाम पिया जाए या सत्ता के वर्तमान मूड के अनुसार पार्टी अध्यक्ष का चेहरा बदला जाए। ऐसा नहीं है कि सुक्खू अकेले हैं या उनकी ताजपोशी के पीछे दिल्ली तक पहुंच रखने वालों की रखवाली नहीं है, फिर भी कतार और दीवार के बीच शिंदे को अपने प्रभार के कंधे पर किसी एक मकसद को तो उठाना ही पड़ेगा। क्या वह वीरभद्र सिंह विरोधी खेमे की गुप्त मंत्रणाओं में से कुछ चुन लेंगे या अपनी गिनी चुनी प्रदेश सरकारों से आगे बढ़ने का विशेषाधिकार छीन लेंगे। यहां एक मुख्यमंत्री कमोबेश पंजाब सरीखा चुनाव दोहराने के लिए ऐसी फौज चाहता है, जो उसके हुक्म की तामील करे। दूसरी ओर भविष्य की दीवारों पर चिन्हित राजनीति में अपने हस्ताक्षर ढूंढती महत्त्वाकांक्षा अगर ऊर्जा से भरी है, तो इस उत्साह को बरकरार रखने की चुनौती को संबोधित करना ही होगा।

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