सम्मान की रक्षा का पवित्र बंधन

By: Aug 7th, 2017 12:02 am

ललित गर्ग

लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं

राखी भाई और बहन के बीच प्यार के बंधन को मजबूत बनाती है तथा इस भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करती है। राखी के दो धागों से भाई-बहन ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा नाता रहा है। भाई-बहन के रिश्ते को यह फौलाद सी मजबूती देने वाला है। आदर्शों की ऊंची मीनार है। सांस्कृतिक परंपराओं की अद्वितीय कड़ी है…

रक्षाबंधन हिंदू धर्म का प्रमुख सांस्कृतिक, सामाजिक और पारिवारिक पर्व है। यह आपसी संबंधों की एकबद्धता एवं एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपक्रम है। प्यार के धागों का एक ऐसा पर्व, जो घर-घर मानवीय रिश्तों में नवीन ऊर्जा का संचार करता है। यह जीवन की प्रगति और मैत्री की ओर ले जाने वाला एकता का एक बड़ा पवित्र त्योहार है। मध्यकालीन भारत में जहां कुछ स्थानों पर महिलाएं असुरक्षित महसूस करती थीं, वे पुरुषों को अपना भाई मानते हुए उनकी कलाई पर राखी बांधती थीं। इस प्रकार राखी भाई और बहन के बीच प्यार के बंधन को मजबूत बनाती है तथा इस भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करती है। राखी के दो धागों से भाई-बहन ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा नाता रहा है। भाई और बहन के रिश्ते को यह फौलाद सी मजबूती देने वाला है। आदर्शों की ऊंची मीनार है। सांस्कृतिक परंपराओं की अद्वितीय कड़ी है। रक्षाबंधन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे तथा सोने व चांदी जैसी महंगी वस्तु तक की हो सकती है। सगे भाई-बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बंधे होते हैं, जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के उपदेश की पूर्णाहुति इसी दिन होती थी। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदाई लेता था, तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बांधता था, जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बांधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे।

  इसी परंपरा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बांधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिए परस्पर एक-दूसरे को अपने बंधन में बांधते हैं। इसी दिन गुरु उन्नत शासन के लिए राजाओं के हाथों में रक्षासूत्र बांधते थे। प्रकृति भी जीवन की रक्षक है, इसलिए रक्षाबंधन के दिन कई स्थानों पर वृक्षों को भी राखी बांधी जाती है। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा भी प्रारंभ हो गई है। हिंदोस्तान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य परस्पर भाईचारे के लिए एक-दूसरे को भगवा रंग की राखी बांधते हैं। यह सांस्कृतिक पर्व बहनों में उमंग और उत्साह को संचारित करता है। बेहद शालीन और सात्विक यह पर्व सदियों पुराना है। नारी सम्मान एवं रक्षा पर केंद्रित यह विलक्षण पर्व है। इस दिन बहनें अपने भाई के दाएं हाथ पर राखी बांधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। राखी के रंग-बिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बंधन को मजबूत करते हैं और सुख-दुख में साथ निभाने का विश्वास दिलाते हैं। राखी के त्योहार का ज्यादा महत्त्व पहले उत्तर भारत में था। आज यह पूरे भारत में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इसे नारली पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है। लोग समुद्र में वरुण राजा को नारियल दान करते हैं। दक्षिण भारत में इसे अवनी अविट्टम के नाम से जाना जाता है। राखी का त्योहार कब शुरू हुआ, इसे ठीक से कोई नहीं जानता। कहते हैं देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ, तो दानव हावी होते नजर आने लगे। इससे इंद्र बड़े परेशान हो गए। वह घबराकर वृहस्पति के पास गए। इंद्र की व्यथा उनकी पत्नी इंद्राणी ने समझ ली थी। उसने रेशम का एक धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर इंद्र के हाथ में बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इस युद्ध में इसी धागे की शक्ति से इंद्र की विजय हुई थी। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन रेशमी धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है।

शायद इसी प्रथा के चलते पुराने जमाने में क्षत्रिय जब युद्ध के लिए जाते थे, तो महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाकर हाथ में रेशमी धागा बांधती थीं। इस विश्वास के साथ कि धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आएगा। राखी के बारे में प्रचलित अनेक कथाएं हैं, जो सोचने पर विवश कर देती हैं कि कितने महान उसूलों और मानवीय संवेदनाओं वाले थे वे लोग, जिनकी देखा-देखी एक संपूर्ण परंपरा ने जन्म ले लिया और आज तक बदस्तूर जारी है। आज परंपरा भले ही चली आ रही है, लेकिन उसमें भावना और प्यार की वह गहराई नहीं दिखाई देती। अब उसमें प्रदर्शन का घुन लग गया है। पर्व को सादगी से मनाने के बजाय बहनें अपनी सज-धज की चिंता और भाई से राखी के बहाने कुछ मिलने के लालच में ज्यादा लगी रहती हैं। भाई भी उसकी रक्षा और संकट हरने की प्रतिज्ञा लेने के बजाय जेब हल्की कर इतिश्री समझ लेता है। इसलिए जरूरत है दायित्वों से बंधी राखी का सम्मान करने की, क्योंकि राखी का रिश्ता महज कच्चे धागों की परंपरा नहीं है। लेन-देन की परंपरा में प्यार का कोई मूल्य भी नहीं है। बल्कि जहां लेन-देन की परंपरा होती है, वहां प्यार तो टिक ही नहीं सकता। इस परम पावन पर्व पर भाइयों को ईमानदारी से पुनः अपनी बहन ही नहीं, बल्कि संपूर्ण नारी जगत की सुरक्षा और सम्मान करने की कसम लेने की अपेक्षा है। तभी राखी का यह पर्व सार्थक बन पड़ेगा।

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