कविता

एक बार की बात, चंद्रमा बोला अपनी मां से।

कुर्ता एक नाप का मेरी, मां मुझको सिलवा दे।

नंगे तन बारहों मास मैं, यों ही घूमा करता।

गर्मी, वर्षा, जाड़ा

हरदम बड़े कष्ट मैं सहता।

मां हंसकर बोली सिर पर रख हाथ चूमकर मुखड़ा।

बेटा, खूब समझती हूं मैं तेरा

सारा दुखड़ा।

लेकिन तू तो एक नाप में कभी नहीं रहता है।

पूरा कभी, कभी आधा बिलकुल न कभी दिखता है।

आहा मां फिर तो हर दिन की मेरी नाप लिवा दे।

एक नहीं, पूरे पंद्रह तू कुर्ते मुझे सिला दे।

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