सेवा से समाज को पोषित करतीं पुष्पा

By: Oct 15th, 2017 12:07 am

मन में कुछ करने की चाहत हो तो मुश्किलें अपने आप दूर हो जाती हैं। अध्यापन के साथ-साथ समाज सेवा करके नेशनल लीडरशिप अवार्ड प्राप्त करने वाली राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला गोड़ा (सोलन) की प्रधानाचार्य पुष्पा कांडा ने कठिन डगर तय करते हुए यह मुकाम हासिल किया है। एक मध्यमवर्गीय परिवार में सन् 1962 में जन्मी पुष्पा के पापा की एक दुकान है और माता गृहिणी हैं। घर में तीन बेटियों के होने के बावजूद माता-पिता ने उनकी पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी। पुष्पा घर में सबसे बड़ी बेटी है। पापा की चाहत थी कि उनकी बेटी डाक्टर बने, पर पुष्पा के मन में तो युवावस्था में ही एक अध्यापक ने जन्म ले लिया था। उनका कहना है कि अध्यापन कार्य सबसे पवित्र और चुनौतीपूर्ण कार्य है। एक अध्यापक को कक्षा के हर विचित्र बच्चे को एक साथ पढ़ाना है, समझना है और अगली कक्षा में पहुंचने लायक बनाने के साथ-साथ उसे सभ्य व्यक्ति भी बनाना है। अतः कहीं न कहीं अपने ज्ञान और योग्यता के बलबूते बने अध्यापक उन्हें हमेशा इस व्यवसाय को चुनने के लिए प्रेरित करते रहे। दसवीं के बाद उन्होंने बीएससी की। तत्पश्चात चंडीगढ़ से बीएड की, जिसने पुष्पा को दुनियावी तथ्यों से रू-ब-रू करवाया। बीएड में उन्होंने हर प्रतियोगिता में अग्रणी रहना सीखा। 1984 में पुष्पा की शादी आरके कांडा के साथ हुई। उनकी नौकरी हिमाचल में टीजीटी (स्थायी तौर पर) के रूप में लग जाने के कारण उन्हें सोलन आना पड़ा, जहां 1984 में कोटला-जौणाजी से उन्होंने अध्यापन कार्य आरंभ किया। नौकरी के साथ-साथ पुष्पा ने समाजशास्त्र में एमए भी कर ली। सलोगड़ा स्कूल की प्रधानाचार्या प्रोमिला लांबा ने उनको आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हिमाचल सरकार ने उन्हें शिमला विश्वविद्यालय से एमएससी की पढ़ाई करने के लिए दो साल के वेतन सहित मास्टर डिग्री करने का मौका दिया। इसमें उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल कर, सेवारत अध्यापकों की खराब छवि को सुधारा। उसके बाद उन्होंने एमएड और एमफिल भी किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद उनकी पदोन्नति लेक्चरर के पद पर हुई और अपने स्कूल में ईको क्लब गठित करवाया। इसके तहत वातावरण को संरक्षित रखने के लिए अथक प्रयास किए गए। दूसरी ओर उन्होंने विद्यार्थियों को पढ़ने के साथ-साथ नैतिक मूल्यों को ग्रहण करने की शिक्षा दी। उन्होंने अपने प्रयासों से बच्चों के अंदर आत्मविश्वास पैदा किया। वर्ष 2010 में उनकी प्रोमोशन पिं्रसीपल के रूप में सनौरा (सिरमौर) में हुई। इसी दौरान एक घटना ने उन्हें बहुत व्यथित कर दिया। उनके 26 वर्षीय बेटे का देहांत हो गया, लेकिन इस बीच भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया। उनके दुख को देखकर उस समय की सरकार ने उनका तबादला सोलन गर्ल्ज स्कूल में कर दिया। वहां पर दो शिफ्टों में 2100 छात्राओं को पढ़ाया जाता था। यहां तक कि अवकाश वाले दिन भी विद्यार्थियों की कक्षाएं चलती थीं। इस दौरान पुष्पा सामाजिक कार्यों में भी अपनी भूमिका अनवरत निभाती रही। जो बच्चे बिना मां-बाप के थे, उनको उन्होंने निशुल्क शिक्षा दी और कई अन्य सामाजिक कार्य भी किए। इसी वजह से नेशनल इंस्टीच्यूट फार लीडर्ज इवैलूएशन ने उनका चयन नेशनल लीडरशिप अवार्ड के लिए किया। 4 अक्तूबर को बंगलूर में इन्फोसिस के पूर्व चेयरमैन एनआर नारायण मूर्ति ने उन्हें यह अवार्ड सौंपा। पूरे प्रदेश व विशेषकर सोलन जिला के लिए यह गर्व की बात है। सामाजिक कार्यों के तहत पुष्पा ने कई गरीब कन्याओं को अपनी नेक कमाई से घर बसाने के लिए सामान की आपूर्ति भी करवाई। इस तरह के कामों को वह दिल से अंजाम दे रही हैं।

मुलाकात

‘कर्म ही पूजा’ का सिद्धांत मुझे संतुष्टि देता है…

आपकी नजरों में महिला सशक्तिरण की पहली सीढ़ी कब और कहां से शुरू होती है?

मेरी नजर में महिला  सशक्तिकरण की शुरुआत समाज में महिलाओं के प्रति आस्था और विश्वास होने से आरंभ हुई है। सरकार की ओर से बेटियों को हर क्षेत्र में प्रोत्साहन और सुरक्षा प्रदान हुई है, जिस की वजह से घर और समाज, हर तरफ महिलाओं को सम्मान और कामयाबी हासिल हुई।

क्या समाज का नजरिया पूरी तरह बदल गया या आज भी पुरुष समाज में औरत को कठपुतली बना कर रखा जाता है?

समाज का इस ओर नजरिया वास्तव में बदल रहा है। जहां एक ओर बेटी के जन्म लेते ही उसके विवाह और देहज की चिंता सताने लगती थी, मगर आज के संदर्भ में बेटी को घर की लक्ष्मी का दर्जा हासिल होने लगा है मगर अभी पूरी तरह महिलाओं के प्रति सकारात्मक सोच आने में वक्त लगेगा।

ऐसा क्यों होता है कि किसी महिला अधिकारी के मातहत बनते ही ऐसी सोच की चूलें हिलने लगती हैं?

जी हां, यह बात वास्तव है कि कहीं भी किसी महिला अधिकारी के मातहत काम करते हुए कुछ पुरुष अपने को अपमानित मानने लगते हैं। सभी नहीं, कुछ ऐसे पुरुष- कर्मचारी भी मिले, जिन की वजह से अधिक प्रशंसा भी मिली

लीडरशिप अवार्ड  को आप कैसे देखती हैं और इसकी व्याख्या कैसे करेंगी?

लीडरशिप अवार्ड के लिए नाईल द्वारा हिमाचल से और वह भी जिला सोलन के सरकारी विद्यालयों से सिर्फ दो प्रिसींपलों का एक लंबी और कठिन प्रक्रिया से गुजरने के बाद चयन सचमुच रोमांचित करता है और हम दोनों लीडर्ज आईटी सेक्टर की अग्रणी, इन्फोसिस के सौजन्य से , सरकारी तथा पब्लिक सभी विद्यालयों के प्रधानाचार्यों की प्रतिस्पर्धा रही, जिसमें सभी 37 फाइनलिस्टों को एक मंच पर उनके प्रयासों के लिए सम्मानित करना, कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना है।

हिमाचल में सरकारी स्कूलों के प्रदर्शन की वास्तविकता और शिक्षा की प्रासंगिकता?

हिमाचल में सरकारी स्कूलों के प्रदर्शन और प्रासंगिता के संदर्भ में मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि अन्य शिक्षा तंत्रों  की अपेक्षा, यहां अध्यापकों की योग्यता उच्चतर होती है। विद्यार्थियों में प्रतिभा की कमी नहीं होती, परंतु पारिवारिक पृष्ठभूमि कई बार बच्चों को घर पर पढ़ाई करने से रोकती है और हां यदि हर सरकारी स्कूल में कोई भी रिक्त पद न हो, अध्यापकों से सिर्फ अध्यापन का ही कार्य लिया जाए तो सफलता मिलना निश्चित होगा।

क्या अब भी बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह  आते हैं और स्कूल के सांचे में ढल जाते हैं या केवल साक्षरता के उद्देश्यों में ही शिक्षा जीवित है?

आज के युग के बच्चे काफी हद तक बदल रहे हैं। वे शिक्षा के क्षेत्र में काफी हद तक एडवांस हो गए हैं। ऐसा अब कम ही पाया जाता है कि बच्चे स्कूल के ढांचे में आसानी से ढल जाएं। न स्कूल का भय न अध्यापकों को सिर्फ शिक्षा का ही काम।

ऐसा क्यों है कि मैरिट में आने वाले बच्चे प्रायः निजी स्कूलों को वरीयता देने लगे हैं?

अकसर मैरिट में आने वाले बच्चे निजी स्कूलों को चुनने में अपना बड़पन समझते हैं। शायद इस लिए भी कि उन विद्यालयों का इन्फ्रास्ट्रक्चर कई मायनों में हमारे तंत्रों से बेहतर होता है। वहां शायद इसलिए भी कोई रिक्त स्थान अध्यापन हेतु अकसर रिक्त नहीं रहता।

आपने शिक्षा को अपने कर्म से अहमियत दी है, तो छात्र समुदाय की कुठां को कैसे समझती हैं और इस वर्ग को भविष्य के लिए कौन सी शक्ति सींच सकती है?

शिक्षण कार्य मेरे लिए सचमुच एक ऐसा पुण्य कार्य है, जो मुझे अपनी क्षमता, योग्यता और ऊर्जा से ऊपर उठ कर कार्य करने में  आनंद का एहसास करवाता है। अपने विद्यालय विद्यार्थी और अपने अध्यापक साथियों की सफलता, मुझमें और एनर्जी से कार्य करने को प्रोत्साहित करता है।

कोई ऐसा संतोष जो केवल शिक्षा के प्रोफेशन में ही मिला?

मैंने शिक्षा के क्षेत्र में अपने जीवन को पूरी तरह से समर्पित किया है। यह शायद इसलिए भी कि मेरे लिए ‘कर्म ही पूजा है’ का सिद्धांत कार्य करता है और यही मुझे संतोष देता है।

बच्चों में लीडरशिप के गुण सहज-स्वाभाविक हैं? या शैक्षणिक माहौल से यह सब अर्जित किया जा सकता है?

कुछ बच्चों में लीडरशीप के गुण सहज और स्वाभाविक भी आवश्यक तौर पर विद्यमान होते हैं। मगर व्यक्तिगत स्तर पर, एक अध्यापिका और विद्यालय प्रमुख होने के नाते, मेरा ऐसा मानना है कि बच्चे में विद्यमान लीडरशीप क्वालिटी को सकारात्मक दिशा में कार्य करवाने में माता-पिता से अधिक शिक्षक का योगदान रहता है।

कोई सपना?

एक सपना जो मैं अभी भी देखती हूं कि काश मेरे भारतवर्ष का हर नागरिक, अपने माता-पिता गुरुजनों का दिल से आदर करे, बुराइयों की ओर न जा कर, अपने में सुधार करे। अपने वातावरण को संरक्षित रखे और अपने क्षेत्र और अध्यापकों का नाम रोशन करें।

—मुकेश, सोलन


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