मृत मौनपालन को संजीवनी देते राजकुमार ठाकुर

By: Jan 17th, 2018 12:11 am

राजकुमार ठाकुर के अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय शोध पत्र, पुस्तकें, तकनीकी बुलेटिन, व्यावहारिक मैनुअल, एक्सटेंशन प्रकाशनों के रूप में 300 से अधिक प्रकाशन हैं। उन्होंने दक्षिण कोरिया के डेजॉन में एपीआईएमआईएनआईएआई (2015) अंतरराष्ट्रीय एपिकल्चरल कांग्रेस में भाग लिया और एपिकल्चरल डिवेलपमेंट में भारत के परिदृश्य को दिखाने के लिए एशियाई एपिकल्चरल एसोसिएशन को संबोधित करने के अलावा तीन शोध पत्र प्रस्तुत किए…

डा. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी और वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी के कीटविज्ञान और मधुमक्खी पालन विभाग के वैज्ञानिक, डा. राज कुमार ठाकुर को अंतरराष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया है। डा. ठाकुर को चेन्नई में आयोजित वीनस इंटरनेशनल रिसर्च अवार्ड्स (वीआईएआरए) में ‘मधुमक्खी पालन में प्रतिष्ठित वैज्ञानिक’ के पुरस्कार से नवाजा गया है।

जानकारी के अनुसार डा. राज कुमार ठाकुर, ऐपिकल्चर (मधुमक्खी पालन) के क्षेत्र के एक प्रसिद्ध विशेषज्ञ हैं। वर्तमान में वह नौणी विवि के विस्तार शिक्षा निदेशालय में सयुंक्त निदेशक (संचार) के रूप में कार्यरत हैं। नौणी विवि से अपनी पीएचडी डिग्री करने के बाद डा. ठाकुर ने जर्मनी के बर्लिन शहर स्थित हंबोल्ड यूनिवर्सिटी से अपनी पोस्ट डाक्टरेट पूरी की। उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एआईसीआरपी (मधुमक्खियों और पोलिनेटर) में परियोजना समन्वयक के रूप में भी कार्य किया है। इस कार्यक्रम में उन्होंने अनुसंधान के लिए 26 एआईसीआरपी केंद्रों को नेतृत्व प्रदान किया और देश के विभिन्न राज्यों में मधुमक्खी पर आदिवासी उप-योजना के प्रशिक्षण की व्यवस्था की। नौणी विवि के कुलपति डा एचसी शर्मा और अन्य संकाय ने इस मौके पर डा. ठाकुर को बधाई दी।

वीनस इंटरनेशनल रिसर्च अवार्ड्स की शुरुआत 2015 में वीनस इंटरनेशनल फाउंडेशन के सेंटर फॉर एडवांस्ड रिसर्च एंड डिजाइन (सीएडीआर) ने की थी ताकि कृषि, इंजीनियरिंग, मेडिकल साइंस, मैनेजमेंट, मानविकी और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले विशेषज्ञों को सम्मानित किया जा सके। इस पुरस्कार के साथ एक प्रमाण पत्र, कांस्य पदक और स्मृति चिन्ह है।  डा. राजकुमार ठाकुर वर्तमान में वाईएस परमार बागबानी और वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी सोलन हिमाचल प्रदेश विस्तार  निदेशालय में संयुक्त निदेशक संचार के रूप में काम कर रहे हैं।  डा. राजकुमार ठाकुर का जन्म गांव लोहाट, घुमारवीं जिला बिलासपुर में हुआ है।

उन्होंने परियोजना समन्वयक आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली में हनी मधुमक्खियों और पोलिनेटर पर सितंबर 2012 से सितंबर 2017 तक परियोजना समन्वयक के रूप में कार्य किया। इससे पहले वह डा. वाई.एस. परमार बागबानी और वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी सोलन में प्रिंसीपल साइंटिस्ट (एपिकल्चर) थे। वह सीएसकेएचपीकेवी पालमपुर से कृषि कीट विज्ञान के पद स्नातक हैं और बी-ब्रीडिंग में विशेषज्ञता के साथ कीट विज्ञान में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की है।  उन्होंने जून 1995 से सितंबर 1997 तक जर्मनी से अपनी पोस्ट-डाक्टरेट की, जहां उन्होंने एपिस मेलिफेरा कार्निका के व्यवहार संबंधी अध्ययनों के लिए इंफ्रा-रेड तकनीक के विकास पर अग्रणी अनुसंधान किया।

वह भारत में बम्बली मधुमक्खी पालन तकनीक को मानकीकृत करने के लिए एक अग्रणी शोधकर्ता हैं और पोलिहाउसों के तहत परागकारी फसलों के लिए बम्बली मधुमक्खियों का इस्तेमाल करते हैं। निजी क्षेत्र में रहने के दौरान उन्होंने एपिकल्चर सेंटर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाररा, नेपाल और दरंग पालमपुर, में अंतरराष्ट्रीय मानकों के तहत भारत और नेपाल में वाणिज्यिक राणी मधुमक्खी का पालन-पोषण किया और नेपाल और भारत में सूखे रेगिस्तान में शहद उत्पादन के लिए अद्वितीय स्थलों की पहचान की। हिमाचल प्रदेश के लाहुल- स्पीति जहां मधुमक्खी के कारोबारी शहद बनाने के लिए पलायन कर रहे हैं। वहां वह विभिन्न वित्तपोषण एजेंसियों से शोध अनुदान पाने में सफल रहे और विभिन्न शोध परियोजनाओं को संभाला। उन्होंने एमएससी और पीएचडी छात्रों को निर्देशित किया है और विश्वविद्यालय के अनुसंधान, शिक्षण और विस्तार गतिविधियों में शामिल रहे और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के फैकल्टी के रूप में शामिल हैं। वह विभिन्न व्यावसायिक संस्थाओं के सदस्य हैं। उनके अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय शोध पत्र, पुस्तकें, तकनीकी बुलेटिन, व्यावहारिक मैनुअल, एक्सटेंशन प्रकाशनों के रूप में 300 से अधिक प्रकाशन हैं।

उन्होंने दक्षिण कोरिया के डेजॉन में एपीआईएमआईएनआईएआई (2015) अंतरराष्ट्रीय एपिकल्चरल कांग्रेस में भाग लिया और एपिकल्चरल डिवेलपमेंट में भारत के परिदृश्य को दिखाने के लिए एशियाई एपिकल्चरल एसोसिएशन को संबोधित करने के अलावा तीन शोध पत्र प्रस्तुत किए। उन्होंने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने के लिए जर्मनी, पोलैंड, बेल्जियम, नेपाल, ऑस्ट्रेलिया, सर्बिया, दक्षिण कोरिया और मलेशिया का दौरा किया।

उन्होंने देश भर में जनजातीय लोगों की जीवनशैली में स्थिरता और उत्पादकता में सुधार के लिए मधुमक्खी सहित परागणकों की शोषण के लिए एक व्यापक आदिवासी परियोजना योजना तैयार की है। वह भारतीय पक्ष की ओर से बहुपक्षीय इंडो-आस्ट्रेलियाई परागण पर परामर्शदाता और स्टिंगलैस मधुमक्खी अनुसंधान में सहयोगी हैं।

– माहिनी सूद, नौणी

जब रू-ब-रू हुए…

सरकार शहद की प्राइसिंग पालिसी बनाए…

मौन पालन अपनी परंपराओं से अनुसंधान तक कितना बदला है?

वैज्ञानिक तौर- तरीके अपना कर ही आज लगभग 90 हजार टन शहद का उत्पादन देश में हो रहा है। इटालियन मधुमक्खी के परिचय के बाद इसका व्यवसायीकरण  हुआ है। वैज्ञानिक ढंग विभिन्न बीमारियों व शत्रु कीटों का प्रबंधन स्वाभाविक हुआ है। रानी प्रजनन से मधुमक्खियों के वंशों की संख्या में बढ़ोतरी हुई और मधुमक्खी पालक बढ़े हैं।

प्रमुख तीन कारण जिनमें आहत मौन पालक किनारा कर रहे हैं?

मौन पालकों को अच्छे शहद के रेट नहीं मिलते, जिसके कारण वे स्थानांतरण का खर्चा भी नहीं निकाल पाते। शहद का भाव बड़ी-बड़ी कंपनियों के निर्णय से होता है। सरकार प्राइसिंग पॉलिसी में हस्तक्षेप नहीं करती। इसके अलावा मधुरस एवं पराग देने वाले पौधों का कटान। फसलों की ऐसी प्रजातियों का आना जो मधुमक्खियों के लिए लाभदायक नहीं है। मौसम का बदलाव मौन वंशों और फसलों को भी कुप्रभावित करता है।

हिमाचल के कौन-कौन से इलाके इस व्यवसाय के अनुरूप संभावनाओं से आगे हैं?

हिमाचल में देशी मधुमक्खी पालन प्रायः  किन्नौर, सिरमौर, शिमला, कुल्लू , मंडी या चंबा जिलों में पारंपरिक तौर पर किया जाता है और अच्छी गुणवत्ता वाला शहदोत्पादन होता है। इटालियन मधुमक्खी पालन व्यवसायिक तौर पर कांगड़ा, शिमला, किन्नौर, बिलासपुर, मंडी व सोलन के मधुमक्खी पालक करते हैं। यह मौन पालक स्थानांतरण मधुमक्खी पालन करके शहद उत्पादन करते हैं।

सहकारिता क्षेत्र के जरिए कई प्रयास हुए, तो विफलता की वजह क्या रही है?

सहकारिता संस्थाएं अभी भी कार्यरत हैं जैसे इच्छी कारपोरेटिव सोसायटी। यह व्यवसाय आर्थिक आमदनी हेतु स्थांनतरण से ही संभव है। आमतौर पर हिमाचल के लोग घर नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि इस व्यवसाय के लिए जंगल व खेतों में तंबू लगाकर भी रहना पड़ता है। नई पीढ़ी इन कामों को ज्यादा तवज्जो नहीं देती, इसलिए मौन पालन के साथ लोग नहीं जुड़ते।

शहद की मांग निरंतर बढ़ रही है, तो ऐसे में मौन पालक की हिचकिचाहट को दूर करने के लिए क्या करना होगा?

शहद की उपयोगिता बढ़ती जा रही है और पौष्टिक आहार का यह अभिन्न अंग बनता जा रहा है। किसानों को कौशल विकास योजना से जोड़ कर इस व्यवसाय को बढ़ावा देना चाहिए।

इस क्षेत्र में नवाचार की कमी रही है, तो ऐसे में कई विश्वस्तरीय प्रयोगों से हिमाचल दूर रहा है, जबकि तकनीकी सहायता भी न के बराबर है।

हिमाचल प्रदेश के लोग सौभाग्यशाली हैं क्योंकि मधुमक्खी पालन के क्षेत्र में अतरराष्ट्रीय स्तर के वैज्ञानिक दो कृषि विश्वविद्यालयों में उपलब्ध हैं। लगातार प्रशिक्षण किसानों को दिए जाते हैं और भरपूर तकनीकी जानकारी न केवल हिमाचल प्रदेश, बल्कि दूसरे राज्यों के किसानों को भी दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप कई सफल मौन पालक तैयार हुए हैं।

आपकी निगाह में कोई ऐसा स्टार्टअप या उद्योग समूह जो हिमाचली उत्पाद की दिशा बदल दे?

डाबर गु्रप या पतंजलि ग्रुप से आग्रह किया जा सकता है या हिमाचल के पढे़-लिखे युवक इस कार्य को कर सकते हैं। हम ऐसे समूहों की सहायता कर सकते हैं जो शहद उत्पादन से लेकर शहद विपणन कर सकें।

विश्वविद्यालय ने अब तक मौन उत्पादन के क्षेत्र में कौन सी उपलब्धियां अर्जित की हैं?

सबसे बडी उपलब्धि है इटालियन मधुमक्खी को देश में फैलाने के साथ रानी प्रजनन एवं कृत्रिम गर्भाधान जिससे मौन वंशों की संख्या को बढ़ाने और बीमारियों एवं हानिकारक शत्रुओं से मधुमक्खियों को बचाने जैसी उपलब्यिं विश्वविद्यालय ने अर्जित की हैं।


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