रिवायत बदली, माघी पर नहीं कटेंगे बकरे

भुंतर – पशु बलि पर प्रतिबंध ने देवभूमि कुल्लू की एक सदियों पुरानी परंपरा पर विराम लगा दिया है। कभी इन परंपराओं के नाम पर जहां जिला में खूब पशु बलियां होती थीं, तो अब प्रतिबंध ने इन रिवायतों पर कछ हद तक ब्रेक लगा दी है। इन रिवायतों में माघी उत्सव की रिवायत भी प्रभावित हुई है और हर साल कटने वाले सैकड़ों बकरों की परंपरा पर काफी हद तक रोक लग गई है। लिहाजा जिला कुल्लू के रूपी-पार्वती सहित सैंज-बंजार में मनाए जाने वाले माघी उत्सव का मजा फीका हो गया है। जानकारों के अनुसार बलि प्रथा के चलते जिला के कई स्थानों पर इस बार भी पशु बलि नहीं हो पाएगी। बता दें कि जिला के अनेक क्षेत्रों में मनाए जाने वाले इस उत्सव में मेहमाननबाजी के लिए हर घर में बकरों की धाम पकाई जाती थी। पूरे माह में मनाए जाने वाले इस त्योहार में पुरानी परंपराओं का वहन किया जाता था। जिलावासियों के अनुसार माघ माह में नवविवाहिताएं अपने ससुराल को छोड़ मायके में आती हैं। गांवों में माघी पर्व का श्रीगणेश हालांकि नारियल काटकर किया जाता है तो लोहड़ी की रात को बकरों को भी काटा जाता रहा है। जानकार बताते हैं कई बार तो ऐसी भी नौबत आती थी कि बकरों की कमी महसूस होती थी, लेकिन बलि प्रथा पर लगी रोक के बाद घाटी के लोग सोचने को मजबूर हैं। जानकारी के अनुसार पिछले साल भी जिला के अधिकतर इलाकों में बलि प्रथा के विरोध में नारियल से कार्य चलाने के फैसले लिए गए थे और माघी उत्सव का आगाज भी नारियल काट कर किया गया था। जिला कुल्लू के देवसमाज के प्रतिनिधियों का कहना है कि बलि प्रथा पर रोक के बाद अब यह परंपरा समाप्त हो गई है । हालांकि मांस के शौकीन अपने शौक को पूरा करने के लिए बाजार से मीट-चिकन की खरीददारी जरूर करते हैं। जिला कुल्लू के उपायुक्त युनुस खान कहते हैं कि बलि प्रथा पर रोक के बाद सभी धार्मिक स्थलों पर बली पर रोक लगाने में धार्मिक समुदाय के प्रतिनिधियों का सहयोग मिला है और माघी जैसे उत्सव पर बलि को न अपनाने की पूरी उम्मीद है। बहरहाल, बलि प्रथा ने जिला कुल्लू की कई सदियों पुरानी रिवायतों को बंद कर दिया है।