100 दिन की गति में मंत्री

By: Feb 26th, 2018 12:05 am
(इस बार था 1627 करोड़ का बजट)                 (गांव से शहर को पलायन)  
(लगातार खेती छोड़ रहे लोग)                      (सरकार की प्राथमिकता पर भारी कमियां)

प्रदेश की आबादी का बड़ा तबका गांवों में बसता है, लेकिन रोजगार की तलाश में युवा शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। स्कूल से लेकर अस्पताल जैसी सुविधाओं की दिक्कतें भी मुंह बाए खड़ी हैं। नई सरकार  100 दिन के एजेंडे पर काम कर रही है, जिसने स्वरोजगार,गोवंश संवर्द्धन और खेती बचाने को प्राथमिकता में शामिल किया है। प्रदेश सरकार का विजन और चुनौतियां बता रहे हैं, शिमला से शकील कुरैशी…

बेशक आज भी प्रदेश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गांव में बसता है, लेकिन  रोजगार की दृष्टि से लोग गांव से शहरों की ओर पलायन को मजबूर हैं। वह समय आ गया है, जब यह चिंतन होने लगा है कि ग्रामीण व्यवस्था को मजबूत किया जाए परंतु इसके लिए गंभीरता से प्रयास करने जरूरी होंगे। राष्ट्रीय स्तर से प्रदेश स्तर पर इसके लिए कई योजनाएं भी सरकार ने चलाई हैं, जिससे गांव में रहने वाले लोग वहीं पर अपनी आर्थिकी को मजबूत करें, लेकिन इसमें पूरी तरह से सफलता नहीं मिल पा रही है। हिमाचल प्रदेश में लोग गांव से शहरों की ओर रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं। हालांकि उनका बसेरा आज भी गांव में है, लेकिन यहां शहरों में भीड़ भी बढ़ रही है।  नई सरकार के सामने भी यह चुनौती है कि शहरों के साथ-साथ ग्रामीण व्यवस्था को मजबूत किया जाए, लेकिन इसमें बाधक कई कारक हैं, जिनका निराकरण होना पहले जरूरी है। ऐसे में नई सरकार भी 100 दिन के एजेंडे पर काम कर रही है, जिसने स्वरोजगार, गौवंश संवर्द्धन और खेती बचाने को प्राथमिकता में शामिल किया है। गांव का विकास किसी एक महकमे का उद्देश्य नहीं है बल्कि सरकार के सभी महकमे किसी न किसी रूप में ग्रामीण विकास से जुड़े हुए हैं। खासकर पंचायती राज विभाग, जिसके जरिए गांव के विकास की रुपरेखा तैयार की जाती है। इसे पंचायती राज के साथ जोड़कर देखें तो इसके लिए करोड़ों रुपए का बजट है मगर अलग से सरकार ग्रामीण विकास विभाग को भी अलग-अलग योजनाओं में बजट रखती है। यह महकमा पंचायती राज विभाग से जुड़ा हुआ है जिसे मौजूदा वित्त वर्ष में 1627 करोड़ रुपए का बजट दिया गया था। इस स्टेट बजट के अलावा ग्रामीण विकास के लिए कई दूसरी योजनाएं भी हैं, जो कि केंद्र सरकार की हैं। मौजूदा वित्त वर्ष में इस विभाग को मुख्यमंत्री ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत 10 करोड़ रुपए का बजट प्रदान किया गया था, वहीं राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन में केंद्र सरकार सात फीसदी की ब्याज दर पर स्वयं सहायता समूहों को ऋण उपलब्ध करवाती है। ग्रामीण सड़कों के रखरखाव को पहली दफा मुख्यमंत्री सड़क योजना तैयार की गई, जिसमें 20 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजट दिया गया। इसके साथ पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से गांव का विकास सुनिश्चित बनाया जाता है, जिसके लिए सरकार ने 352 करोड़ इन संस्थाओं के नुमाइंदों को अलग से दिया था। इसके साथ गांव के विकास के लिए कई दूसरी योजनाएं चलाई जाती हैं, जिनमें ठोस कूड़ा कचरा प्रबंधन की एक योजना चलाई गई। यहां स्वच्छता अभियान के तहत बजट दिया जाता है, जिसके बाद हिमाचल को बाह्य शौचमुक्त होने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तमगा भी मिल चुका है। जल संरक्षण, वर्षा जल संग्रहण, कृषि भूमि सिंचाई योजना जैसी कई तरह की योजनाएं गांव के लिए बनी हैं। गांव में बीपीएल परिवारों को आशियाना बनाने की योजना भी चलाई गई है जिससे कई लोगों को घर बने हैं। ऐसी कई तरह की योजनाएं सीधे गांव के साथ जुड़ी हैं, जिनके अलावा दूसरे विभागों की भी कई योजनाएं हैं, जो कि ग्रामीण विकास पर आधारित हैं।

मजबूत नहीं है सरकारी ढांचा

गांव के लोगों को गांव में ही पूरी सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। यहां के सरकारी संस्थान जिनमें स्कूल, अस्पताल प्रमुख हैं,आज खाली पड़े हैं। सरकार ने स्कूल तो बड़ी संख्या में खोल दिए हैं,लेकिन उनमें स्टाफ की कमी है। वहां आधारभूत ढांचा मजबूत नहीं, जिससे ग्रामीणों के बच्चे बेहतर शिक्षा के लिए शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं। इसी तरह से गांव के अस्पताल में सुविधाओं का भारी टोटा है। आज स्वास्थ्य विभाग के पास डाक्टर व अन्य स्टाफ की कमी है। गांव में पीएचसी तो है,लेकिन उसे चलाने वाला चौकीदार ही है क्योंकि वहां के लिए न तो फार्मासिस्ट है और न ही डाक्टर। सरकार को इसकी जानकारी है परंतु इस दिशा में कोई कारगर काम अभी तक नहीं हो सका है। वर्तमान सरकार ने भी इस दशा को सुधारने का बीड़ा उठाया है, जिसमें वह कहां तक सफल होगी यह समय बताएगा। गांव का पशु औषधालय भी इन्हीं कमियों से गुजर रहा है। वहां पर भी स्टाफ व उपकरणों की कमी अखर रही है। केंद्र व राज्य सरकारें इन सुविधाओं को लेकर दावे तो बड़े-बड़े कर रही हैं परंतु हो कुछ नहीं रहा। गांव में खुले दूसरे सरकारी संस्थानों में भी सुविधाओं का टोटा है। तहसीलों में पूरा स्टाफ नहीं है, पटवारियों के 800 से ज्यादा पर खाली हैं, जिनको भरने का प्रयत्न हो रहा है। पंचायती राज संस्थाओं में भी कमोबेश यही स्थिति सामने आ रही है। इन वजहों से गांव के लोग शहरों पर निर्भर हैं क्योंकि उनको हरेक सुविधा लेने के लिए शहरों की ओर आना पड़ता है।

गांव में कौशल विकास की जरूरत

गांव के विकास से जुड़ा सबसे बड़ा मामला  रोजगार का है। गांव में यदि रोजगार मिलेगा तो वहां के लोग शहरों को पलायन नहीं करेंगे। आज खेती छोड़कर लोग नौकरी करने को मजबूर हैं और इस पर कोई भी सरकार अब तक कुछ नहीं कर पाई है। जिन हाथों में पहले कुदाल होता था वे शहरों में आकर मजदूरी करने को मजबूर हैं। इससे सबक लेकर सरकार योजनाएं तो चला रही है, लेकिन उनका पूरा फायदा गांव को नहीं मिल पा रहा। कौशल विकास के लिए सरकार ने कौशल विकास भत्ता दिया और इससे युवाओं को जोड़ने की कोशिश की जा रही है, ताकि वहां के लोग स्किल्ड लेबरर की श्रेणी में आएं। मगर उनको घर द्वार पर रोजगार का प्रबंध करने के लिए सरकारी योजनाओं को गंभीरता के साथ लागू करना होगा।

स्वरोजगार बढ़ाने की आवश्यकता

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार को बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। कई विभागीय योजनाएं इस दिशा में चल रही हैं, जिनका  असर उतना ज्यादा नहीं हो पा रहा है। गांव में बुनकरों, दस्तकारों की लगातार कमी हो रही है। जो लोग पूर्वजों के समय से ये काम करते थे, अब वे भी यह काम छोड़ रहे हैं जिनको प्रोत्साहित करने की जरूरत है। क्योंकि उनके बनाए उत्पादों की बिक्री के लिए सरकार कोई अहम प्रयास नहीं कर पाई, लिहाजा अब ऐसे लोग कम हो रहे हैं। स्वयं सहायता समूहों के जरिए इन लोगों को गांव में बरकरार रखने के लिए काम किया जा रहा है, लेकिन ऐसी योजनाओं के प्रचार व प्रसार की कमी साफ नजर आ रही है।

मनरेगा ने दिया संबल

राष्ट्रीय स्तर पर लागू हुई मनरेगा ने हिमाचल को भी बेहद लाभान्वित किया है।  जो लोग दो जून की रोटी को मजबूर हो रहे थे, वे आज मनरेगा में लगकर परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि हिमाचल में मनरेगा योजना का सफलता से संचालन हो रहा है क्योंकि इसकी कड़ी शर्तों ने प्रशासनिक अमले को बाध्य कर रखा है। यहां मनरेगा की दिहाड़ी ऑनलाइन मिलती है और जियो टैगिंग कर सभी कार्यों की मानिटरिंग हो रही है। एक निश्चित अवधि में मनरेगा के कार्य निपटाने पड़ते हैं और अधिक से अधिक मैनडेज के लिए राज्य सरकार को लक्ष्य सौंपे गए हैं। इसकी रिपोर्ट सीधे केंद्र सरकार लेती है, जिसमें हिमाचल का आंकड़ा अच्छा है। गांव में रोजगार की दिशा में मनरेगा अहम योजना साबित हो रही है, जिसको यूं ही चलाए रखना जरूरी है।

महिला उत्थान योजनाओं का नहीं होता प्रचार

गांव में महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए केंद्र सरकार व राज्य के महकमों की कई तरह की योजनाएं हैं, लेकिन इनका फायदा नहीं मिल पा रहा है। हालांकि कई जगहों पर महिलाएं इन योजनाओं से जुड़कर बेहतरीन काम कर रही हैं परंतु इन योजनाओं के प्रचार-प्रसार की कमी के लिए हर घर तक पता नहीं चल पाता। इन योजनाओं पर चल रहे कार्यों की धरातल पर मानिटरिंग की कमी अखर रही है।

खेती बचाने का नहीं हो पाया समाधान

विधानसभा के हरेक सत्र में विधायकों द्वारा खेती को बचाने की चिंता और आवारा पशुओं की समस्या पर बहस की जाती है। सदन में उठने वाला यह अहम मुद्दा है, जिस पर सभी विधायक तर्क व वितर्क देते हैं,लेकिन इस पर कोई भी समाधान अब तक किसी की तरफ से नहीं आया।

सोलर फेंसिंग की व्यवस्था से उम्मीद

पूर्व सरकार ने खेती को बचाने के लिए सोलर फेंसिंग की एक योजना शुरू की है। किसान इस योजना को अपनाने लगे हैं, जिसमें उनको सबसिडी भी दी जाती है। उम्मीद है कि इस योजना से खेती बच जाए।

प्रदेश के गांवों में बढ़ाएंगे स्वरोजगार

दिहिः प्रदेश के गोवंश को आवारा बनने और सड़कों पर टहलने से रोकने के लिए क्या प्रोजेक्ट है? कब मूर्त रूप लेगा? कऊ सेंक्चुरी कब तक बनेंगी?

वीरेंद्र कंवरः गोवंश के संवर्द्धन व संरक्षण के लिए पहली कैबिनेट में ही फैसला हो गया था। इनके लिए पालिसी नए सिरे से बनाई जा रही है। प्रदेश भर में कऊ सेंक्चुरी का निर्माण किया जाएगा, जहां पर आवारा गोवंश के लिए हरेक व्यवस्था की जाएगी। सड़क पर गाय क्यों आई, इसके लिए ब्रिडिंग पालिसी जिम्मेदार है, जिसका भी रिव्यू कर रहे हैं। लोगों को देशी गाय की नस्ल के प्रति जागरूक करेंगे।

दिहि : बाहरी राज्य भी हिमाचल में अपने आवारा व नाकारा पशुओं को छोड़ रहे हैं, इस पर कैसे रोक लगाएंगे?

कंवरः ऐसी शिकायतें हैं, जिस पर कड़ाई से नजर रखी जा रही है। यहां के पशुओं की टैगिंग आदि पहले की जाती रही है, जिनका पंजीकरण भी किया गया। बाहर से पशु न छोड़े जाएं, इस पर सख्ती के साथ काम किया जाएगा और नए इंतजाम करेंगे।

दिहिः ग्रामीण विकास, ग्रामीण आर्थिकी और ग्रामीण स्तर पर रोजगार के लिए क्या योजना है आपके पास?

कंवरः  रोजगार के लिए गांव में लाइवलीहुड एक्टिविटी शुरू करने की सोच है। स्वरोजगार से इसे जोड़ा जाएगा। गांव की स्मॉल स्केल इंडस्ट्री जो खत्म हो गई है, उसको दोबारा से शुरू करने की सोच है, 100 दिन में इस पर काम होगा।

दिहिः मनरेगा को भटकने से कैसे रोकेंगे? कब यह योजना सचमुच ग्रामीण विकास की रीढ़ बन पाएगी?

कंवरः मनरेगा योजना का सफल संचालन किया जा रहा है। जहां कहीं पर भी कमियां होगी, उसे यह सरकार दूर करेगी।

दिहिः दूध उत्पादन संगठन (मिल्क फेडरेशन) के घाटे के क्या कारण हैं? इसे कब आप अमूल बना पाएंगे?

कंवर : हमारा मिल्कफेड गुजरात के साथ शुरू हुआ था, लेकिन आज गुजरात का अमूल कहीं आगे निकल गया है। हम मिल्कफेड की तरफ ध्यान नहीं दे पाए हैं या फिर उसे पूरी तरह से नेगलेक्ट किया गया है। दूध बहुतायत में है, जिसको मार्केट नहीं दी गई। यह सरकार पूरा ध्यान देगी और इसको रिवाइव किया जाएगा।

दिहि : जीरो बजट फार्मिंग तो लांच हो गई, पर इस दिशा में सब कुछ कैसे-कैसे करेंगे?

कंवर : मैंने अपने विधानसभा क्षेत्र की दो पंचायतों से इसे शुरू किया है। स्वेच्छा से लोगों को इसमें जोड़ा जाएगा और एक मॉडल तैयार कर पूरे प्रदेश में लागू करेंगे।

दिहिः कृषि वैज्ञानिक ग्रामीणों की जरूरतों के मद्देनजर खेतों तक नहीं पहुंच रहे हैं, न बीज सही क्वालिटी, दाम और समय पर मिल रहे हैं? क्यों?

कंवरः इस दिशा में जो भी शिकायतें होंगी,उनको गंभीरता से लिया जाएगा और आने वाले समय में कमियों को दूर करेंगे।

दिहि : तीन प्राथमिकताएं, जिन्हें अपने दायित्व से पूरा करने का वादा करते हैं?

कंवर : बेसहारा पशुओं को आश्रय देना,  गांव में स्वरोजगार के साधनों का मॉडल खड़ा करना तथा जल संरक्षण व पर्यावरण  के क्षेत्र में काम करना।

मत्स्य प्रोजेक्ट्स को नहीं मिला पैसा

सरकार स्वरोजगार की दिशा में मत्स्य पालन को भी महत्त्व देती है। इस रोजगार से प्रदेश में करीब 13 हजार लोग जुड़े हैं। इसे बढ़ाए जाने की सोच है जिसके लिए केंद्र सरकार से कुछ प्रोजेक्ट मांगे गए हैं। यहां केंद्र सरकार के पास प्रदेश के 13 करोड़ रुपए से अधिक के प्रोजेक्ट लंबित हैं, जिन पर मंजूरी तो मिल चुकी है, लेकिन अभी पैसा स्वीकृत नहीं हुआ। यहां 15 हैचरी स्थापित की जानी हैं, वहीं 72 ट्राउट रेस-वे स्थापित किए जाने हैं। फिश हैचरी की ये योजनाएं सभी जिलों के लिए हैं, लेकिन प्रोजेक्ट लंबित हैं। प्रदेश में इस रोजगार को बढ़ाने के लिए ब्लू रेवोल्यूशन मिशन चलाया जा रहा है। प्रदेश में मछली उत्पादन का आंकड़ा 12 हजार 500 मीट्रिक टन का है और खपत इससे कम है। इसलिए प्रदेश से बाहर भी मछली भेजी जाती है।

फर्जी गरीबों पर कसेगा शिकंजा

नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद यहां बीपीएल और आईआरडीपी की सूचियों में धांधलियों पर नकेल कसनी शुरू कर दी है। यहां पर नए सिरे से ये सूचियां तैयार की जा रही हैं। हमेशा से ये सामने आता रहा है कि पैसे वाले लोग भी बीपीएल की सूची में शामिल होकर रियायतों का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे लोगों के घरों के बाहर बीपीएल परिवार के फट्टे भी लगाए गए हैं, ताकि समाज में गलत करने वाले लोगों की पहचान हो सके। नए सिरे से सूचियों को तैयार करने में गंभीरता बरती जा रही है और सरकार यह सुनिश्चित कर रही है कि जिन लोगों के लिए योजनाएं हैं,उनका लाभ उन्हीं को मिले। इनके चयन में पूर्व सरकार फ्लॉप रही है क्योंकि उसके समय में काफी धांधलियां सामने आईं। इसके बाद पूर्व सरकार ने ही लोगों के घरों के बाहर फट्टे लगाने शुरू किए।

मौसम की मार, आवारा पशुओं ने उजाड़ी खेती

प्रदेश के गांव में आज किसानों की सबसे बड़ी त्रासदी आवारा पशु हैं। आवारा पशुओं ने यहां के लोगों को अपनी खेती छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। इसमें मौसम की बेरुखी भी कुछ हद तक कारण है, लेकिन आवारा पशुओं ने यहां की पूरी खेती को नष्ट कर दिया है। आवारा पशुओं को खेती नष्ट करने से कोई नहीं रोक पाया। जो भी सरकार यहां रही उसने वादे किए व चिंता भी दिखाई परंतु कारगर कदम नहीं उठा पाई। वर्तमान सरकार के सामने भी आवारा पशुओं की समस्या ज्यों की त्यों खड़ी है। लोगों ने इनके कारण खेती करना छोड़ दिया है। मैदानी क्षेत्रों के साथ ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी इन आवारा जानवरों का आतंक बदस्तूर जारी है। नील गाय, जंगली सूअर, बंदर इसमें सबसे बड़े घातक साबित हो रहे हैं। आरोप है कि यहां प्रदेश में दूसरे राज्यों से भी आवारा पशुओं को छोड़ा जाता है। सीमायी क्षेत्रों में खासकर ऐसा हो रहा है। सरकार ने पूरी निगरानी रखने को कह रखा है, लेकिन फिर भी मामले सामने आ रहे हैं। इस पर कड़ाई से रोक लगाने की जरूरत है।

मनरेगा में राखे रखने  को नहीं मिली मंजूरी

खेती को बचाने के लिए राखे रखने की एक सोच सरकार के सामने आई है। पूर्व सरकार ने केंद्र सरकार के सामने एक प्रस्ताव भी रखा है कि मनरेगा के अधीन ऐसे राखे रखे  जाएं, लेकिन इस योजना को केंद्र सरकार की मंजूरी अभी तक नहीं मिल पाई है। हालांकि प्रदेश सरकार ने इस संबंध में एक प्रस्ताव केंद्र को भेजा है।

बंदरों को मारने में आस्था पड़ रही भारी

राज्य की 39 तहसीलों में बंदरों को वर्मिन भी घोषित किया गया है, जिनको मारा जा सकता है लेकिन इसमें धार्मिक आस्थाएं आड़े आ रही हैं। बंदरों की संख्या को कम करने के लिए नसबंदी योजना भी चलाई जा रही है, लेकिन इसका असर भी दिखता नजर नहीं आ रहा। ऐसे ही दूसरे आवारा पशु हैं। गांव में पशुओं के लिए जरूरी चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इसके लिए नई सरकार ने सोचा है कि 108 एंबुलेंस की तर्ज पर सुविधा दी जाए। इसमें डाक्टरों की टीम मौके पर जाकर पशु का उपचार करे और जरूरी हो तो उसे अस्पताल तक पहुंचाए। 100 दिन के एजेंडे में इस दिशा पर भी काम किया जा रहा है जिसमें सरकार कितनी सफल होगी यह समय बताएगा।


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