कोदा-चौलाई के दिन लदे

 नौहराधार —सिरमौर जिला के गिरिपार में किसानों का रूझान नकदी फसलों की ओर जाने से पारंपरिक अनाजी फसलें विलुप्त होने की कगार पर है। आधा दर्जन से अधिक फसलों पर लुप्त होने का खतरा पूरी तरह से मंडरा गया है। मौसम का बदलता मिजाज भी अनाजी फसलों के लुप्त होने का एक प्रमुख कारण माना जा रहा है। अनाजी फसलों के लुप्त होने को लेकर क्षेत्र के बुद्धिजीवी काफी चिंतित है। बुद्धिजीवी इसे आने वाले समय के लिए खतरनाक संकेत मान रहे हैं। अनाजी फसलों को लुप्त होने से बचाने के कृषि विभाग से कदम उठाए जाने की मांग भी अब जोर पकड़ने लगी है। जानकारी के अनुसार 70 के दशक तक उगाई जाने वाली कोदा (मंडुआ), राई चौलाई, भंगजीरा, चिनोई (चेनी), कावणी (कांगन) व शांवक आदि अनाजी फसलों को जहां सेहत के लिए काफी फायदेमंद माना जाता था। वहीं शावक चौलाई कालीजीरी व कोदा अनाजी को दवाइयों के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। गेंहू, जौं व मक्की के अलावा यह सभी फसलें किसान नियमित रूप से उगाते थे। दशकों पहले गिरिपार क्षेत्र के कई गांव अकाल की चपेट में आ जाते थे। भुखमरी के उस दौर में चिणोई चेनी व कावणी कांगन की फसलों को अकाल से निपटने के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता था। 70 के दशक तक गिरिपार क्षेत्र के किसान इन दोनों फसलों को प्रमुखता से उगाते थे। नकदी फसल के रूप में उस दौरान गिरिपार क्षेत्र के लोग अदरक व मिर्च ही उगाते थे। 70 के दशक में कुछ इलाकों में अफीम की खेती भी बड़े पैमाने पर की जाती थी। 80 के दशक के बाद गिरिपार क्षेत्र के किसानों ने आलू, मटर व लहसुन आदि नकदी फसलों को उगाना शुरू किया। नकदी फसलों को उगाने से गिरिपार क्षेत्र के किसानों की आर्थिकी में तेजी से सुधार हुआ है। नकदी फसलों को उगाने से किसानों की आर्थिकी पटरी पर आने लगी और किसानों का ध्यान धीरे-धीरे पारंपरिक अनाजी के उगाने से हटने लगा। 90 के दशक तक पहुंचते ही नौबत यहां तक पहुंच गई कि कभी भुखमरी में काम आने वाली कांगन व चेनी की फसलें भी खेतों से बिलकुल गायब हो गई है जो कि एक चिंता का विषय बना हुआ है।