खतरे में खुशियों की गोरैया

By: Mar 25th, 2018 12:20 am

आधुनिक बनावट वाले मकानों में गोरैया को अब घोंसले बनाने की जगह ही नहीं मिलती। जहां मिलती है, वहां हम उसे घोंसला बनाने नहीं देते। अपने घर में थोड़ी-सी गंदगी फैलने के डर से हम उसका इतनी मेहनत से तिनका-तिनका जुटाकर बनाया गया घर उजाड़ देते हैं…

घर हमारे बडे़-बड़े हो गए हैं, पर दिल इतने छोटे कि उनमें नन्ही-सी गोरैया भी नहीं आ पा रही। घर-घर की चिडि़या गोरैया आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। यूरोप में गोरैया संरक्षण-चिंता के विषय वाली प्रजाति बन चुकी है और ब्रिटेन में यह रेड लिस्ट में शामिल हो चुकी है। भारत में भी पक्षी वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले कुछ सालों में गोरैया  की संख्या में उल्लेखनीय गिरावट आई है। लगातार घटती इसकी संख्या को अगर हमने गंभीरता से नहीं लिया, तो वह दिन दूर नहीं, जब गोरैया  हमेशा के लिए हमसे दूर चली जाएगी।

गोरैया  के इस तरह गायब होते जाने के कारणों की पड़ताल की जाए, तो हम मनुष्यों की आधुनिक जीवन शैली और पर्यावरण के प्रति उदासीनता इसका सबसे बड़ा कारण नजर आती है। आधुनिक बनावट वाले मकानों में गोरैया को अब घोंसले बनाने की जगह ही नहीं मिलती। जहां मिलती है, वहा हम उसे घोंसला बनाने नहीं देते। अपने घर में थोड़ी-सी गंदगी फैलने के डर से हम उसका इतनी मेहनत से तिनका-तिनका जुटाकर बनाया गया घर उजाड़ देते हैं। इससे उसके जन्मे-अजन्मे बच्चे बाहर बिल्ली, कौए, चील, बाज जैसे परभक्षियों का शिकार बनते हैं।

गोरैया  छोटे पेड़ों या झाडि़यों में भी घोंसला बनाती है, लेकिन मनुष्य उन्हें भी काटता-छांटता जा रहा है। वह बबूल, कनेर, नींबू, अमरूद, अनार, मेहंदी, बांस, चांदनी आदि पेड़ों को पसंद करती है। पर अब या तो इन्हें लगाने के लिए अब जगह नहीं बची है या इतना सब सोचने की हमारे पास फुर्सत नहीं है। शहरों और गांवों में बड़ी तादाद में लगे मोबाइल फोन के टावर भी गोरैया  समेत दूसरे पक्षियों के लिए बड़ा खतरा बने हुए हैं। इनसे निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें उनकी प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव डालती हैं। इसके अलावा उनके दाना-पानी की भी समस्या है। गोरैया  मुख्यतः काकून, बाजरा, धान, पके चावल के दाने और कीड़े खाती है। आधुनिकता उनसे प्राकृतिक भोजन के ये स्रोत भी छीन रही है।

गोरैया  का कम या विलुप्त होना इस बात का संकेत है कि हमारे आसपास के पर्यावरण में कोई भारी गड़बड़ चल रही है, जिसका खामियाजा हमें आज नहीं तो कल भुगतना ही पड़ेगा। अगर हम गोरैया  को संरक्षण प्रदान कर उसे जीवनदान देते हैं, तो वह भी पारिस्थितिक तंत्र के एक हिस्से के रूप में हमारे पर्यावरण को बेहतर बनाने में अपना योगदान देती है। वह अपने बच्चों को अल्फा और कटवर्म नामक कीड़े भी खिलाती है, जो हमारी फसलों के लिए हानिकारक होते हैं। प्रकृति की सभी रचनाएं कहीं न कहीं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे पर निर्भर हैं और हम भी उनमें शामिल हैं।

विश्व भर में गोरैया की 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 5 भारत में देखने को मिलती हैं। नेचर फॉरेवर सोसायटी के अध्यक्ष मोहम्मद दिलावर के विशेष प्रयासों से पहली बार वर्ष 2010 में विश्व गोरैया  दिवस मनाया गया था। तब से ही यह दिन पूरे विश्व में हर वर्ष 20 मार्च को गोरैया  के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है। गोरैया  के जीवन संकट को देखते हुए वर्ष 2012 में उसे दिल्ली के राज्य पक्षी का दर्जा भी दिया गया था। पर हालात अभी भी जस के तस ही हैं। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के सहयोग से बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी सिटीजन स्पैरो के सर्वेक्षण में पता चला कि दिल्ली और एनसीआर में वर्ष 2005 से गोरैया  की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। सात बड़े शहरों में हुए इस सर्वेक्षण में सबसे खराब नतीजे हैदराबाद में देखने को मिले। उत्तर प्रदेश में भी सपा सरकार के समय गोरैया  के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास और जागरूकता अभियान चलाए गए थे, पर वर्तमान में वे सब ठप पड़े हैं।


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