स्वर्ग सा दिखता है कांगड़ा ‘दुर्ग’

कई वर्षों से एक लालसा थी कि कांगड़ा दुर्ग के दर्शन करें और प्रसिद्ध किले की जानकारी जुटाएं।  आज वह समय आ गया था कुछेक पलों में हम दुर्ग के द्वार पर थे। गाड़ी पार्क करके शीघ्र ही हम दोनों टिकट काउंटर पर आ गए। आगे बढ़ कर पंद्रह- पंद्रह रुपए के दो टिकट लेकर, टिकट चैक द्वार पर पहुंचे। अंदर प्रवेश करते ही सुंदर उद्यान को देख कर मन खुशी से झूम उठा। आज मैं खुशी से फूले नहीं समा रहा था क्योंकि तिहत्तर वर्ष की आयु में पहली बार अपने जिला के अनुपम दुर्ग को देखने का पुण्य अवसर जो मिला था। मन में अनेकों विचार उठ रहे थे, भीतर किला कैसा होगा, राजा लोग कहां रहते होंगे, दुश्मनों ने इसे कैसे लूटा होगा आदि। उद्यान के साथ भव्य संग्रहालय भवन था। भीतर नूतनतम टाइलों से सुसज्जित कमरों में अति पुरातन शिलालेख एवं देवी-देवताओं की मूर्तियों और मोहरों को सहेज संवार कर रखा गया था। कमरे में प्रवेश करते यूं लगा कि यहां दो संस्कृतियों का अनोखा संगम हो। अपनी अति पुरातन धरोहरों को देख कर मन को सुकून और शांति मिली। आगे चलकर एक अन्य द्वार आया, जहां एक शिला पर आहिनी दरवाजा लिखा था। इस का क्या इतिहास है बताने वाला कोई नहीं। कुछ आगे चलकर अमीरी दरवाजा मिला और कुछ आगे जहांगीरी दरवाजा। इन सब के इतिहास की कोई जानकारी नहीं। चलते- चलते हम दर्शनी दरवाजे के पवित्र स्थान तक पहुंच गए। मन की कौतुहलता बढ़ती गई। इन दरवाजों के इतिहास की कोई जानकारी नहीं। ऐसे में आज की सरकारी व्यवस्थाओं पर अनेक प्रकार के प्रश्न उठने लाजिमी थे। ये सभी द्वार जैसे मूक खड़े अपनी व्यथा मौन शब्दों में बता रहे हों। दर्शनी ड्योढ़ी के भीतर जाने पर एक भव्य मंदिर मिला जहां लक्ष्मी- नारायण एवं शीतला माता और अंबिका देवी की प्रतिमाएं विद्यमान थीं। खेद की बात यह कि यहां भी पुजारी आदि की कोई व्यवस्था नहीं और न ही किसी दान पात्र की व्यवस्था। यदि कोई भेंट चढ़ाना भी चाहे तो कहां डाले। बाहर एक पुराना वाटर कूलर यात्रियों की प्यास शांत करने के लिए मौजूद है। मंदिर के ठीक सामने सभागारनुमा खुला स्थान था और किनारे पर भवन तुल्य खंडरात, जो किसी आबादी के संकेत दे रहे थे। आंगन के बीच अति पुराना पीपल का पेड़ आबादी का साक्षी बन कर अपने अंतिम सांस गिन रहा है। दीवारों पर पुराने शिलालेख अपनी क्या कहानी कहना चाहते हैं, हमारी समझ से सब परे था। यहां भी कोई सूचनापट्ट अथवा इतिहास बताने की कोई व्यवस्था नहीं। पहले सीढि़यां चढ़ कर खुला आंगन और बरामदानुमा स्थान मिला, जिसे देखने से लग रहा था कि शायद राजा लोग यहां बैठ कर मंत्रिमंडल की बैठक करते हों। यहां भी कुछ पुराने पत्थर बेतरतीब इधर- उधर बिखरे पड़े थे, जो अपने जीवन की मौन व्यथा बतलाने में पर्याप्त थे।  एक ओर ठीक सामने जयंती माता का मंदिर मानो आवाजें लगा कर बुला रहा हो और किले को देख कर नाक भौें सिकोड़ कर पूछ रहा हो बताओ तुम्हारा क्या बना। मैं आज भी जीवंत हूं, लेकिन तुम अपने अतीत पर आंसू बहाते खड़े हो। मानो जयंती माता कह रही हो, समय बड़ा बलवान होता है। यह किसी को भी नहीं छोड़ता। इस दुर्ग के बड़े- बड़े मतवाले बलवान राजा महाराजा, सुल्तान, लुटेरे, बलशाली सिख सरदार और अंग्रेज सब आज कहां हैं। आज तो तुम आजाद हो, लेकिन तुम्हारी अपनी सरकारों ने कितनी सुध ली है। मात्र पंद्रह रुपए का दर्शन टिकट लगा कर शेष सारी व्यवस्था तुम्हारे ऊपर छोड़ दी है। कब तक खड़े-खड़े अपनी व्यथा मौन पर्यटकों के माध्यम से सुनाते रहोगे, जो कुछ  शेष बचा था 1905 के भयंकर भूकंप ने उजाड़ डाला। तुम्हारी मूक आवाज सुनने वाला कोई नहीं है।   मन में अभी भी एक प्रश्न झकझोर रहा था कि यहां के राजा लोगों के महल कहां होंगे। उनके वंशज कौन होंगे आदि सोचते आगे बढ़ने पर एक सुरक्षा गार्ड दिखा। मैंने आवाज लगा कर पूछा, क्या आप बता सकते हैं कि राज महल कहां थे। मंदिर के साथ ऊपरी भाग में ही राज महल थे। वाह कितनी बड़ी जानकारी से महरूम हम घर गांव में जाकर अन्य सदस्यों को क्या बतलाते कि हम क्या- क्या देखकर आ रहे हैं। यूं लगता है संस्था ने पंद्रह रुपए का टिकट बेच कर दो- चार कर्मचारी रखकर मात्र औपचारिकता निभाने तक अपने को सीमित कर लिया है। किले के विकास और निखार हेतु सब कुछ नगण्य है। सैकड़ों की तादाद में पर्यटक, धार्मिक यात्री तथा देश- प्रदेश के छात्र किले की जानकारी और दर्शन हेतु प्रतिदिन यहां पहुंचते हैं। विडंबना इस बात की है कि भ्रमण करने के पश्चात वे हमारी तरह क्या- क्या जानकारियां लेकर वापस लौटते होंगे।

– नंद किशोर परिमल, प्रधानाचार्य, गुलेर