चाय संकट में

2300 में से अब महज हजार हेक्टेयर पर ही हो रहा उत्पादन

पालमपुर —वर्तमान में कांगड़ा चाय का अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं । इस बार अप्रैल तोड़ की चाय का उत्पादन  निराशाजनक रहा है । कारण चाहे कोई भी रहे हो । हालांकि कांगड़ा वैली में उत्पादित चाय  स्वाद और  सुगंध के लिए देश-विदेश में काफी मशहूर  हो चुकी थी। कांगड़ा घाटी के चाय बागान बेशक पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। विशेषकर पालमपुर क्षेत्र में चाय बागानों को देखने भारी  मात्रा में पर्यटक यहां पहुंचते हैं, लेकिन कांगड़ा चाय बागानों का  घटता रकवा चिंता का विषय बन गया  है। कभी 2300 हेक्टेयर पर होने वाली चाय की खेती एक हजार हेक्टेयर तक सिमट गई हैं। कांगड़ा घाटी की चाय दुनिया भर में अपना लोहा मनवा चुकी है। आश्चर्यजनक सत्य तो यह है कि लंदन, यूरोप व अफगानिस्तान तक इसकी महक पहुंच  चुकी है। कांगड़ा चाय का इतिहास लगभग 172 वर्ष पुराना है। 1905 में भारी भूकंप आने के कारण इलाके में बड़ी-बड़ी इमारते ध्वस्त हो गईं थीं । अंग्रेजी  इस भूकंप से डर गए तथा स्थानीय लोगों को औने-पौने दाम  लेकर चाय बागान बेचकर चले गए। इसके बाद भरपूर प्रयासों के बावजूद चाय  के उत्पादन को अभी तक संभाला नहीं जा सका है। चाहे कारण जो भी रहे हो, लेकिन इसे आसानी से विश्लेषित किया जा सकता है । पालमपुर में सबसे पहले चाय फैक्टरी 1980 में स्थापित की गई थी। हैरानी की बात है कि कांगड़ा की चाय पूरे भारत में नहीं जाती है। उत्पादन में कमी के कारण एक्सपोर्ट क्वालिटी की चाय भारत में ही रह जाती है। चाय की विशेष किस्म जहां पर्यटकों को उपलब्ध करवाई जाती है। मशहूर कंपनियों का लेबल लगाकर इसे बाहर भी भेजा जाता है। इस बार सर्दियों में  बारिश न होने  के कारण अप्रैल तोड़ पर विपरीत असर पड़ा है तथा रेड स्पाइडर वाइट ने भी चाय की फसल को प्रभावित किया है।

ये हैं चाय उत्पादन के आंकडें

चाय के उत्पादन की आंकड़ों की बात करें, तो सन् 2010 में कांगड़ा वैली में 10000 लाख किलो चाय का उत्पादन हुआ था, जिसमें अकेले पालमपुर ने उस समय तीन लाख किलोग्राम का उत्पादन दिया था। सन् 2016 में चाय का उत्पादन  नौ लाख 21 हजार हुआ था, लेकिन 2017 में यह घटकर नौ लाख  किलोग्राम तक सीमित हो गया है।

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