युवाओं पर पड़ता सिनेमा का प्रभाव

आज के दौर में सिनेमा को मनोंरजन के रूप में गिना नहीं जाता, बल्कि उससे कुछ सीखा जाता है। आजकल के युवाओं पर फिल्में देख- देख कुछ फिल्मों से समाज तथा युवा वर्ग पर अच्छा प्रभाव भी पड़ता है। आजकल सिनेमाघरों में फिल्में लोगों के मन पर एक बड़ा प्रभाव छोड़ती है। युवाओं पर सिनेमा के प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है। इतना ही नहीं, उसके प्रभाव ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के वृद्ध लोगों पर और बच्चों पर भी अच्छी तरह से देखा जा सकता है। एक स्वस्थ शौक का स्वागत किया जा सकता है, लेकिन अकसर फिल्मों को देखना एक अच्छा शौक नहीं है। सामाजिक विषयों से संबंधित फिल्में युवावर्ग में देशभक्ति, खेल, राष्ट्रीय एकता और मानव मूल्यों का प्रसार करती हैं।  हाल ही में आई ‘सुल्तान’ ने युवाओं को बताया कि अगर हम ठान लें कि हमें यह काम करना तो हम उस चीज को पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। फिल्मों ने हमारे सामाजिक जीवन को एक अलग धारणा में पेश किया है। इसमें सामाजिक उद्देश्य प्रधान फिल्मों के निर्माण की आवश्यकता है। ऐसी फिल्में उबाऊ नहीं होनी चाहिए, क्योंकि दर्शक वर्ग उनके प्रति आकर्षित नहीं होगा । इसलिए सामाजिक संदेश वर्ग उनके प्रति आकर्षित नहीं होगा । इसलिए सामाजिक संदेश की फिल्में भी मनोरंजन से भरपूर होनी चाहिए । मार्गदर्शन भी होना चाहिए, जो आज के सिनेमा में नजर आ रहा है। युवा वर्ग देश का भावी निर्माता है, उन पर फिल्मों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए उन फिल्मों का निर्माण होना चाहिए, जिनमें मनोरंजन और मार्गदर्शन दोनों का सम्मिलित पुट है । हिंसा की भावना समाज की प्रगति में बाधक है। युवा वर्ग के अति संवेदनशील मस्तिष्क को सामाजिक और नैतिक गुणों से भरपूर फिल्मों के माध्यम से योग्य नागरिक के रूप में तैयार किया जा सकता है । यही समय है जबकि फिल्म निर्माता अपने दायित्व को समझें और अच्छी अच्छी फिल्मों का निर्माण करें ।

‘हंसी तो फंसी, हाईवे और ‘क्वीन, एयरलिफ्ट सुल्तान जैसी फिल्मों ने बिलकुल नए तरह के सिनेमा का विकास किया है। ये फिल्में न सिर्फ  जेंडर के सवालों से टकराती, बल्कि पूरी सामाजिक व्यवस्था से जूझती हैं। इन फिल्मों ने स्त्री नायकत्व को रचा है। सुखद यह है कि भारतीय दर्शकों ने इस सिनेमा को दिल खोल कर सराहा है। इन्होंने व्यवसाय भी खूब किया। इन फिल्मों ने मानो समांतर सिनेमा की अवधारणा को ही समाप्त कर दिया। कला सिनेमा और मुख्यधारा सिनेमा के अंतर को मिटा दिया है। कला फिल्में कही जाने वाली उन फिल्मों का दौर बीत गया लगता है, जिनका दर्शक एक खास किस्म का अभिजात वर्ग हुआ करता था। आज का सिनेमा अगर मुख्यधारा या व्यावसायिक सिनेमा है तो साथ ही वह अपने भीतर कला फिल्मों की सादगी और सौंदर्य को भी समेटे है। अब हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को समझा है, उसे आवाज दी है। अली अब्बास जफर अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसुरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज है।

— शिप्रा शर्मा