जैविक गांव कुगती जहां की खेती लाजवाब

गांव की अद्भुत सुंदरता को देखते ही मन आनंदित हो गया और गांव के एक छोर पर बहने वाले नाले की कल-कल करती आवाज मानो संगीत का एहसास करवा रही हो…

भरमौर से करीब 26 किलोमीटर दूर गांव को जैविक गांव का दर्जा क्यों दिया गया है, इसी सवाल के जवाब के लिए मैंने एक दिन गांव का भ्रमण करने का विचार किया। सुबह 5 बजे हम टैक्सी के माध्यम से वाया हड़सर व धरोल होते हुए कुगती पहुंचे। रास्ता ठीक न होने के कारण टैक्सी चालक ने हमें कुगती से करीब 2 किलोमीटर पीछे ही उतार दिया। पुल न बनने के कारण स्कूल से पीछे से उबड़-खाबड़ रास्ते से होकर हम कुगती पहुंचे। सबसे पहले हमने कुगती पहुंचकर कुछ देर आराम कर गांव के लोगों से उनके रहन-सहन के बारे में पूछा तो पता चला कि गांव वास्तव में जैविक पद्धति पर आधारित है। न तो गांव में मोबाइल सिगनल था और न ही इंटरनेट की सुविधा। कुछ घरों में मैंने लैंडलाइन फोन जरूर देखे, लेकिन लोग यही कहते सुने गए कि ये फोन कभी चलते हैं तो कभी नहीं। लकड़ी के मकान और उसमें रहने वाले लोगों को देखकर मेरे मन में कई सवाल पैदा हो रहे थे कि आखिर ये यहां कैसे रहते होंगे, लेकिन उनके लिए तो यहां सब कुछ सामान्य था। एक बुजुर्ग ने बताया कि बर्फबारी के दौरान गांव पूरी तरह भरमौर से कट जाता है। गांव के लोगों के जीवन-यापन और खानपान के बारे में भी कई अद्भुत जानकारियां हासिल हुईं। गांव की अद्भुत सुंदरता को देखते ही मन आनंदित हो गया और गांव के एक छोर पर बहने वाले नाले की कल-कल करती आवाज मानो एक संगीत का एहसास करवा रही हो। चारों ओर से बर्फ  से ढकी पहाडि़यां मानो गांव की सुंदरता को चार चांद लगा रही हों। देवदार और चीड़ की लकड़ी से बने घर मन को एक अजब अतीत से रू-ब-रू करवा रहे थे। एक छोटी सी दुकान पर चायपान किया और दुकानदार से गांव के बारे में जानकारी हासिल कर हमने वहां से निकल लिए। कुछ ही दूरी पर हम एक बाबड़ी पर रूक गए, वहां पर पास ही नाले में कपड़े धो रही एक महिला से बात करने का मौका मिला, जिसने हमें गांव के रीति-रिवाजों व खानपान की जानकारी दी। महिला का कहना था कि इस बार यहां इतनी बर्फबारी नहीं हुई, जितनी कि पहले हुआ करती थी। महिला के अनुसार यहां मक्की को कुकड़ी कहते हैं और मक्की की रोटी से बना सिड्डू विवाह-शादियों व अन्य समारोहों में धाम के दौरान परोसा जाता है। हालांकि गांव में गद्दी समुदाय के ही लोग रहते हैं और महिलाओं का मुख्य पहनावा नोआचड़ी और पुरुषों का गद्दी टोपी व चोला है, लेकिन समय के बदलाव के कारण आजकल बहुत कम लोग अपने प्राचीन पहनावे को पहनते हैं। हालांकि, विवाह-शादी व अन्य समारोहों में लोग इस पहनावे को जरूर पहनते हैं। लोगों के अनुसार गांव के करीब 90 फीसदी लोग कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। यूं तो यह गांव करीब 1514 हेक्टेयर में फैला हुआ है और गांव के 72 हेक्टेयर एरिया में खेती की जाती है। गांव की मुख्य फसल राजमाह, आलू, मक्की, जौ व कुट आदि हैं। इसके साथ ही सेब, अखरोट और खुमानी की पैदावार भी यहां भरपूर होती है। लोग ज्यादातर अपनी उगाई हुई फल-सब्जियों का ही उपभोग करते हैं। गांव के सीढ़ीदार खेत इसकी सुंदरता को चार चांद लगाते हैं। गांव में चूरी प्रजाति की गाय विशेष तौर पर पाई जाती है और इसका दूध काफी पौष्टिक माना जाता है। यहां के किसान रासायनिक खादों की जगह गोबर का इस्तेमाल करते हैं, यही कारण है कि यहां की फसलें आर्गेनिक होती हैं।

गांव के बच्चों की शिक्षा के लिए यहां एक प्राथमिक और एक हाई स्कूल खोला गया है। हाई स्कूल के पास ही यात्रियों व अफसरों के ठहरने के लिए एक रेस्ट हाउस भी बनाया गया है। इसके साथ ही लोगों के उपचार के लिए यहां पर एक आयुर्वेदिक व होमोपैथिक केंद्र भी खोला गया है। गांव में विकास कार्यों के लिए स्थानीय पंचायत अग्रसर है। गर्मियों में यहां देश-विदेश से पर्यटक आते हैं। बताया जाता है कि कुछ लोग यहां से रिसर्च करके भी गए हैं।

—  कपिल मेहरा, गांव जवाली, जिला कांगड़ा

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