दहकते जंगल

By: Jun 4th, 2018 12:05 am

हर साल की तरह इस बार भी जंगल की आग में करोड़ों की वन संपदा राख हो चुकी है। यहीं नहीं, प्रचंड दावानल ने तीन अमूल्य जिंगदियों को भी लील लिया है। हर बार सरकार आग से निपटने की कई योजनाएं बनाती है पर आखिरकार नतीजा सिफर ही होता है। प्रदेश में सुलग रहे जंगलों व आग से निपटने के इंतजामों के बारे में बता रहे हैं, शकील कुरैशी तथा खुशहाल सिंह…

1 .61 करोड़ से ज्यादा की वन संपत्ति राख

1544 अग्निकांड

प्रदेश के जंगलों में इस साल भी हर बार की तरह आग का तांडव मचा हुआ है। एक तरफ बिना पानी के लोगों के हलक सूख चुके हैं,तो दूसरी ओर जंगलों में आग ने वन संपदा को स्वाह कर दिया है। जहां देखो वहां आग का मंजर दिखाई दे जाता है। राजधानी शिमला में ही इस साल करीब दो दर्जन से अधिक मामले सामने आ चुके हैं, जिसमें शहर के चारों तरफ फैले जंगल आग से धुआं-धुआं दिख रहे हैं। राजधानी शिमला में इस दफा ऐसा हाल है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रदेश के दूसरे जिलों में क्या हालत होगी। वन विभाग के मुताबिक इस साल अभी तक जंगलों की आग के 1544 मामले सामने आ चुके हैं और एक करोड़ 61 लाख रुपए से अधिक की वन संपदा इसमें स्वाह हो गई है।  इस बार 148.6 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को नुकसान उठाना पड़ा है, जबकि पिछले साल 45.86 वर्ग किलोमीटर एरिया प्रभावित हुआ था। आग केवल जंगलों को ही तबाह नहीं कर रही, बल्कि इनके साथ लगती बस्तियों को भी नुकसान पहुंचा रही है। एक दिन पहले ही शिमला ग्रामीण के लूणसू में जंगल की आग एक घर तक पहुंच गई, जिसमें एक बुजुर्ग महिला और एक 17 वर्षीय युवती झुलस गए। ऐसी घटनाएं ननखड़ी में भी सामने आई है। ऊपरी शिमला के कांगल के हत्तिया में सेब बागीचे को भी आग ने जकड़ लिया जिसमें 250 पौधे जले। जिला की कुमारसैन तहसील के मोगड़ा, जंजैली, कांगल, कोटीघाट पंचायतों में सभी जंगल आग की चपेट में आ चुके हैं।

लोग खुद भी कर रहे नुकसान

लोग अपनी घासनियों में बेहतर घास उगे, इसके लिए इस मौसम में आग लगाते हैं। इनका अपना फायदा तो होता है परंतु जो नुकसान वन संपदा को होता है, उससे इन लोगों का कोई सरोकार नहीं है।

धरातल पर नहीं उतरी योजनाएं

जयराम सरकार ने भी जंगलों को बचाने के लिए कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन ये योजनाएं धरातल पर नहीं उतर पा रहीं।  अब हेलिकाप्टर से वर्षा करने की भी बात हो रही है परंतु इसमें करोड़ों रुपए का खर्चा होगा,जिसके लिए सरकार तैयार नहीं हो पा रही है। इस सरकार ने भी विशेष मुहिम शुरू की, जिसमें जनता को जागरूक करने के साथ आग लगाने वालों  को पकड़ने पर उन्हें सजा तक का प्रावधान रखा है परंतु इससे भी लोगों में भय नहीं और जंगल लगातार आग की भेंट चढ़ाए जा रहे हैं।

चीड़ के पेड़ आग का बड़ा कारण

वन नीति के तहत किसी भी राज्य का 66 फीसदी हिस्सा पहाड़ी राज्यों की फेहरिस्त में वनाच्छादित होना चाहिए। मगर हिमाचल में यह 45 से 50 फीसदी के लगभग आता है। दावे चाहे कुछ भी हों, मगर यह हकीकत है कि हरित पट्टी प्रदेश में चीड़ की पैदावार से ही बढ़ती दिखती है, जबकि यही वन जंगल फायर का कारण बनते हैं। इनसे गिरने वाली पत्तियां हर साल आग सुलगाती हैं। हिमाचल ने हालांकि अब मिश्रित पौधारोपण करने का कदम उठाया है, मगर जानकार मानते हैं कि जब तक पुराने चीड़ के पेड़ों के कटान की अनुमति सुप्रीम कोर्ट नहीं देता, तब तक आग की इन घटनाओं को रोकना मुश्किल होगा।

कर्मचारियों के लिए साधन नहीं

विभाग के कर्मियों को संवेदनशील व अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में वाहनों का कोई प्रावधान नहीं होता। वॉकी-टॉकी तो दूर कई क्षेत्रों में मोबाइल नेटवर्क तक नहीं है। आगजनी की घटना के समय में कर्मचारियों से संपर्क ही नहीं हो पाता। यह पता नहीं चल पाता कि आखिर कहां पर शिकायत करें। हालांकि सरकार ने टोल फ्री नंबरों की व्यवस्था भी कर रखी है लेकिन आम जनता को इसकी जानकारी नहीं है।

करोड़ों की नई पौध भी झुलसी

हिमाचल में जंगलों की आग ने करोड़ों के उस पौधारोपण को भी लगभग लील लिया है, जो कि पिछले सालों में लगाई गई थी। हालांकि इसका आंकड़ा अभी वन विभाग द्वारा जुटाया जा रहा है, लेकिन इसका नुकसान हुआ ह,ै इतना विभाग भी मानता है।

ऐसा है चीड़ का जंगल

हिमाचल में चीड़-पत्तियों का हर साल 15 लाख टन के करीब उत्पादन होता है। यानी इतनी पत्तियां 1250 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैल जाती हैं। इनमें तेल की मात्रा काफी होती है। जंगल में सिगरेट गिर जाए या तापमान बढ़ जाए तो ये खुद भी आग पकड़ने में सक्षम होती हैं। सूखे की स्थिति हो, बारिश कम हो तो यह सब आग में घी का काम करती है।

नहीं हुआ व्यावसायिक उपयोग

प्रदेश में इन पत्तियों से निजात पाने के लिए कई बार कार्यक्रम बने। वर्तमान सरकार ने भी चीड़ की पत्तियों को उठाकर उसे बेरोजगारों के लिए रोजगार का साधन बनाने की सोची है, जिसपर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने बजट में भी ऐलान कर रखा है। इससे पहले भी पूर्व सरकारों में इस तरह के ऐलान हो चुके हैं, जिनकी शुरुआत धूमल सरकार में हुई थी।  दुखद यह है कि जब मानसून आता है, तो सब भूल जाते हैं।

चारकोल बनाने की योजना अधर में

सीमेंट फैक्टरियों में ऊर्जा उत्पादन तो कभी चारकोल बनाने की घोषणाएं इन चीड़ की पत्तियों से करने की होती रही है।  चीड़ की पत्तियों में वेनेलिन नामक रसायन पाया जाता है। यह आईसक्रीम उत्पादन में भी काम आता है। दवाओं में भी इसका प्रयोग किया जाता है। चीड़ की पत्तियों में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में मिलता है। विदेशों में तो लेमन ग्रास की ही तर्ज पर इससे ब्लैक टी लोग प्रयोग करते हैं। मगर हिमाचल में ऐसा कुछ भी संभव नहीं हो सका है। लिहाजा जरूरत इस बात की है कि वन व उद्योग विभाग संयुक्त तौर पर 15 लाख टन के करीब हर साल झड़ने वाली चीड़-पत्तियों का औद्योगिक प्रयोग सुनिश्चित करें।

वन राखे रखने पर केंद्र का इंतजार

प्रदेश सरकार चाहती है कि मनरेगा योजना के तहत जंगलों में राखे रखे जाएं, जोकि आगजनी की इस तरह की घटनाओं को रोकने में शुरुआती तौर पर प्रभावशाली होंगे, मगर अभी तक केंद्र सरकार ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया।

सूचना देने वालों को इनाम

वन विभाग ने जंगल की आग रोकने के लिए गांववासियों को भी प्रेरित किया है। ऐसी किसी भी पंचायत को जिसके क्षेत्र में ऐसी घटनाएं पेश नहीं आएंगी, उसे 7 हजार तक का इनाम देने का प्रावधान पूर्व में किया गया। ज्वाइंट फोरेस्ट मैनेजमेंट कमेटियों के जरिए लोगों को जागरूक भी किया जाता है। ऐसी घोषणाओं का भी अब तक कोई नतीजा नहीं निकल पाया है। जयराम सरकार इस मामले में नई रणनीति अपनाने में लगी है।

कहां कितना खतरा

जिला     अति संवेदनशील    संवेदनशील

बिलासपुर 27         94

चंबा       18         50

धर्मशाला  37         122

हमीरपुर   9          118

कुल्लू      12         44

मंडी       82         60

रामपुर     35         26

नाहन      32         55

शिमला    49         41

वाइल्ड लाइफ विंग धर्मशाला —       19

वाइल्ड लाइफ शिमला         —        12

ग्रेट नेशनल हिमालयन पार्क  —       9

साल-दर-साल अग्निकांड

2009-10             1906

2012-13              1798

2013-14              397

2014-15              725

2016-17             518

2017-18              670

आग से तीन की मौत

प्रदेश में वनों में लगने वाली आग से तीन लोगों की मौत हुई हैं। इसमें चंबा के डलहौजी में तैनात डिप्टी रेंजर अशोक कुमार, सिरमौर के राजगढ़ से चंबेल सिंह, देहरा जसवां से सतविंद्र और शिमला के सुन्नी मतलू देवी शामिल है। इनके अलावा सुन्नी की महेश्वरी, देहरा जसवां के सुरेंद्र, राजगढ़ के सतीश कुमार, भटियात के राकेश, केवल व अनूप आग लगने के दौरान घायल हुए हैं।

यूं बुझाई जाती है दावानल

झाड़ू-डंडों से शुरुआत

प्रदेश में जंगलों की आग बुझाने का कार्य अभी भी परंपरागत तरीके से हो रहा है। आग की सूचना पर तैनात कर्मी झाड़ू व डंडे लेकर इस आपरेशन को अंजाम देते हैं। यदि मानव बस्तियों के करीब इसके फैलने का खतरा हो ,तो पूरा गांव जान जोखिम में डाल देता है। पानी की बाल्टियां  भरकर आग बुझाने में लोग लगते हैं क्योंकि वहां पर पेयजल टैंकरों या फिर फायर ब्रिगेड का इंतजाम नहीं रहता।

चार गार्ड और कुछ कर्मियों की टास्क फोर्स

जंगलों को आग से बचाने के लिए ग्राम सभा की बैठक में जागरूकता पैदा की जाती है। फोरेस्ट गार्ड्स की फरवरी महीने से ही ड्यूटियां लगा दी जाती हैं। हर रेंज में 4 गार्ड व कुछ कर्मी तैनात किए जाते हैं। टास्क फोर्स के नाम पर यही होता है। जंगल की आग को सरलता से बुझाया नहीं जा सकता। यह लगातार फैलती है।

730 फायर वॉचर तैनात

सरकार ने इसके लिए 730 के लगभग फायर वॉचर तैनात कर रखे हैं, जो स्थानीय लोगों की सहायता से जंगल की आग पर काबू पाते हैं। ये संबंधित गांव या पंचायत के विश्वस्त आदमी होते हैं, जिनकी स्थानीय लोग भी सुनते व मानते हैं।

फरवरी में बनती है फायर लाइन

फरवरी में जंगलों में फायर लाइन तैयार की जाती है। यानी ये ऐसी लाइनें होती है, जहां झाडि़यां व अन्य पत्तियों को हटा दिया जाता है। ये थोड़ी गहरी भी रहती हैं, ताकि आग की स्थिति में यहां से ज्यादा फैलाव न हो।

कंट्रोल बर्निंग प्रोसेस की इजाजत नहीं

केंद्रीय वन मंत्रालय ने ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने का हवाला देकर जलाने से रोकी चीड़ की सूखी पत्तियां

हिमाचल में धू-धू जलते जंगलों को बचाया भी जा सकता था, बशर्ते कंट्रोल बर्निंग करने की परमिशन वन विभाग को समय पर दे दी जाती। उत्तराखंड में भी इसे लेकर विशेष मुहिम चल रही है, लेकिन वहां भी जंगलों में आग नहीं रुक रही। केंद्रीय वन मंत्रालय की तरफ से सभी राज्यों को यह हिदायतें दी गई थी कि कंट्रोल बर्निंग जो फरवरी से मार्च तक की जाती है, वह नहीं होगी क्योंकि इससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती है। यानी कार्बन गैसिज का इमिशन बढ़ जाता है। इस फरमान को जारी करने से पहले यह नहीं सोचा गया कि जब चारे के लालच में किसान जंगलों को आग की भेंट करेंगे तो कार्बन गैसों के उत्सर्जन को कैसे रोका जाएगा।  हिमाचल में हर साल अन्य पहाड़ी राज्यों की ही तर्ज पर कंट्रोल बर्निंग व फायर लाइन खींचे जाते हैं। इसका मकसद यही होता है कि अप्रैल से 15 जून तक सूखे की स्थिति होती है तो जंगल आग की भेंट न चढ़ें। कंट्रोल बर्निंग के दौरान पतझड़ के सीजन में झड़ी चीड़ की पत्तियां वन विभाग के कर्मियों द्वारा जला दी जाती हैं। इन्हीं पत्तियों के जरिए जंगलों में आग लगती है। इस मामले में केंद्र सरकार की मदद चाहिए, जो कि राज्य को नहीं मिल रही।

पर्याप्त संसाधन तक नहीं

यूं तो जंगलों के संरक्षण की पूरी जिम्मेदारी वन महकमे पर रहती है, लेकिन जब आग लगने की घटनाएं हो तो अग्निशमन विभाग के जवान भी आग को बुझाने में जूझते हैं। सीमित  संसाधन के बल पर अग्निशमन विभाग इस आग को बुझाने में भी वन महकमे का हर संभव साथ दे रहा है। हिमाचल की बात करें तो पहाड़ी राज्य होने के कारण यहां पर आग की घटनाओं की संभावना बहुत ज्यादा रहती है वहीं इसके लिए पर्याप्त संसधान विभाग के पास नहीं है।  प्रदेश में भी दमकल केंद्र की वैसे भी कमी है। हालांकि यह सही है कि राज्य सरकार अपने स्तर पर हर गांव या पंचायत स्तर पर दमकल केंद्र नहीं खोल सकती, लेकिन सरकार ने ऐसी भी नीति भी नहीं बनाई है, जिसमें आग जैसी घटनाओं को रोकने में समाज की सहभागिता ली जाए। राज्य में मौजूदा समय में 48 दमकल केंद्र काम कर रहे हैं। जाहिर है अभी भी तक कई विधानसभा क्षेत्रों में एक भी दमकल केंद्र नहीं हैं।  एक दमकल केंद्र के अधीन एक पूरा विधानसभा क्षेत्र है तो कई पर दो-दो क्षेत्रों की जिम्मेदारी है। ऐसे में दमकल विभाग की गाडि़यां समय पर घटनास्थल पर नहीं पहुंच पातीं। वहीं यहां के कई गांवों में तक सड़कें नहीं हैं। ऐसे में इन तक दमकल वाहनों का पहुंचना संभव नहीं रहता। वहीं यदि कुछ जगह सड़कें हैं भी तो उनकी हालात खराब है, जिन पर दमकल के भारी वाहन नहीं जा सकते। यही नहीं , दमकल विभाग को सीमित स्टाफ के बल पर भवनों में लगी आग के साथ ही जंगलों की आग से भी जूझना पड़ रहा है। खासकर शहरी इलाकों में दमकल विभाग इसके आसपास के इलाकों में रात-दिन आग से जूझ रहा है।

40 फीसदी हाइड्रेंट्स खराब

राज्य में कई बस्तियां और क्षेत्र आग की जद में हैं। प्रदेश में आग के लिए वे शहरी इलाके भी ज्यादा संवेदनशील हैं,जहां पर पुराने भवन है। मसलन शिमला शहर के कई हिस्सों में लकड़ी के पुराने भवन हैं। ऐसे में यहां एक चिंगारी भयानक तांडव मचा सकती है। वहीं राज्य में औद्योगिक क्षेत्रों में भी आग लगने की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं। यहां पर इसी तरह जंगलों के समीप बसे गांवों और नगर भी आग की चपेट में ज्यादा आ रहे हैं।  आग लगने पर कई बार दमकल विभाग को पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता। हालांकि आजकल गर्मियों में पानी की बड़ी किल्लत है, लेकिन आम दिनों में भी जंगलों के समीप बनी बस्तियों को आग बुझाने के लिए पानी की कोई पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित नहीं की जाती है।  वहीं राज्य में काफी संख्या में ऐसे शहरी केंद्र हैं, जहां पर हाइड्रेंट्स  की कमी है। जानकारी के अनुसार राज्य के विभिन्न नगरों में मौजूदा समय में करीब चालीस फीसदी हाइड्रेंट्स खराब पड़े हैं। मौजूदा समय में करीब 1172 फायर हाइड्रेंट्स स्थापित किए गए हैं, जिनमें से करीब 452 खराब चल रहे है। शिमला में 580 हाइड्रेंट्स  लगाए हैं, जिनसें से करीब 250 हाइड्रेंट्स या तो खराब चल रहे हैं या इनमें से कई दब चुके हैं।  ऐसे में आग लगने पर दमकल वाहनों के लिए पानी भी नहीं मिल पाता और उनको दूर-दूर से पानी आग  बुझाने के लिए लाना पड़ता है। इससे दमकल कर्मियों का अधिकतर समय पानी को ढोने में ही बीत जाता है।

जंगली जानवरों पर जंगल की आग भारी

जंगल फायर के दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित वाइल्ड लाइफ होती है। हिमाचल के जंगलों में पश्चिमी हिमालय के बेहद दुर्लभ वन्य जीव मौजूद हैं। यही सीजन इनमें से ज्यादातर का प्रजननकाल का भी होता है।  जंगलों की आग के चलते ये जानवर बस्तियों की ओर भागते हैं और फिर वहां नुकसान करते हैं। एक तरफ से जंगली जानवरों से फसलों व मानव जीवन को नुकसान पहुंचाने के लिए खुद मानव ही जिम्मेदार भी हैं। यदि जंगलों को संजोकर रखा जाए और इस तरह से आग की भेंट न चढ़ाएं तो ये जंगली जानवर भी वहीं रहेंगे, लेकिन आग के चलते ये भी बाहर की ओर भाग रहे हैं।

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