साधना संपदा और स्वाध्याय के अरण्य

By: Jun 30th, 2018 12:20 am

आधुनिक युग में, एक ओर तो मानव विकास के शीर्ष पर पहुंच चुका है, दूसरी ओर अनेक प्राकृतिक विसंगतियां उत्पन्न हो गई हैं। फलतः प्रकृति अपना संतुलन खोती जा रही है। पर्यावरण के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार विकास का चोला पहनकर आया। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो अति प्राचीन है और यह देश अपने विकास के अनेक स्वर्ण युग देख चुका है…

भारतीय प्रज्ञा के अनुसार मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं, उसकी संतान है। अपने पर्यावरण के प्रति ऋषि-मुनियों की भावुकता और उनका अनुराग इस धारणा को पुष्ट करता है। इसकी झलक वेद-उपनिषदों एवं अन्य पौराणिक साहित्यों में भी मिलती है। ऋग्वेद के पृथ्वी सूक्त में मानव और पृथ्वी के स्नेह बंधन अनेक रूपों में वर्णित है। ‘माता भूमिः पुत्रोस्हं पृथिव्याः’, ‘विश्वंभरा बसुधानी प्रतिष्ठा हरिण्य वक्षा जगतो निवेशिनी’ (ऋग्वेद 12.1.6.) इत्यादि ऐसी अनुभूति के द्योतक हैं। संतानोत्पत्ति से लेकर पालन-पोषण और संसार को अपने आसमानी आंचल से ढके रखने के कारण प्रकृति को मनुष्य ने स्त्री रूप में देखा है। भूमि की उर्वरा शक्ति से प्रेरित होकर श्रद्धा और उपासना भाव की विशिष्टतम परिणति मातृ-भूमि की अवधारणा में हुई है। अथर्ववेद की (12.1.14) ऋचा में एक ओर उस शक्ति से अपार सुख पाने की आशा है तो दूसरी ओर उसकी रक्षा करने का भाव छलक उठता है। वेद की अनेक ऋचाओं में प्रकृति के विभिन्न तत्वों – सूर्य, चांद, तारे, आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति इत्यादि की देव रूपों में उपासना की गई है। ये ऋचाएं प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति आभार व्यक्त करने का माध्यम है और इनमें आध्यात्मिक अनुभूतियां भी निहित हैं। पर्यावरण में उपस्थित सभी तत्त्वों का आपस में विशेष सामंजस्य होता है, जो संपूर्ण प्रकृति में संतुलन बनाए रखता है। उन तत्त्वों के प्रति लापरवाह होने पर उनकी संगति बिगड़ जाती है और संतुलन भंग हो जाता है।

आधुनिक युग में, एक ओर तो मानव विकास के शीर्ष पर पहुंच चुका है, दूसरी ओर अनेक प्राकृतिक विसंगतियां उत्पन्न हो गई हैं। फलतः प्रकृति अपना संतुलन खोती जा रही है। पर्यावरण के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार विकास का चोला पहनकर आया। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो अति प्राचीन है और यह देश अपने विकास के अनेक स्वर्ण युग देख चुका है। इस संदर्भ में यदि ‘महाभारत’ का उल्लेख किया जाए, तो असंगत नहीं होगा। ‘महाभारत’ के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास ने ऐसे विनाश की आशंका व्यक्त की थी। आदि पर्व (अ.139) में ‘ब्रह्मास्त्र’ के विषय में कहा गया है कि यह पूरी पृथ्वी को जलाकर राख कर सकता है। जब भीष्म और परशुराम ने एक-दूसरे के विरुद्ध ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो सारा संसार प्रज्वलित हो उठा और तब देवताओं को भागकर उनको रोकना पड़ा (उद्योग पर्व, अ. 187)।

‘पाशुपतास्त्र’ के विषय में अर्जुन बताते हैं कि यह तीनों लोकों के जीवित, निर्जीव – सभी वस्तुओं को नष्ट कर सकता है। एक युग का अंत होने पर पूरे ब्रह्मांड को समाप्त करने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। इसलिए वे इसके स्थान पर सामान्य रूप से प्रचलित अस्त्र-शस्त्र का ही प्रयोग करते है (उद्योग पर्व, अ.196)। ‘पाशुपतास्त्र’ संबंधी इस उपाख्यान से यह पता चलता है कि भारत में भी प्राचीन काल में व्यापक रूप से विनाश करने वाले अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे, किंतु उनके प्रयोग का अधिकार रखने वाले व्यक्तियों को उन अस्त्र-शस्त्र के प्रभाव का पूरा ज्ञान था और साथ ही वे स्वार्थी या गैरजिम्मेदार नहीं थे। उनका निर्णय विवेकपूर्ण होता था। द्रोण पर्व ( अ .197) में ‘नारायणास्त्र’ को भी ऐसा अस्त्र बताया गया है जिसके प्रयोग से संपूर्ण पृथ्वी प्रकंपित हो उठती है, पर्वत मालाएं बिखरने लगती हैं, विशाल समुद्रों में मंथन होने लगता है। कुरुक्षेत्र युद्ध के प्रायः समाप्त होने पर जब कौरवों का पूरी तरह विनाश हो गया था, तो अश्वत्थामा का विवेक भी उसका साथ छोड़ गया और उसने पांडवों के प्रति विद्वेष की भावना से प्रेरित होकर उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु-पुत्र को समाप्त करने के लिए ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रयोग किया था। तब श्रीकृष्ण ने ब्रह्मास्त्र के प्रभाव को निरस्त करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया और उत्तरा के गर्भ की रक्षा की अर्थात उन अस्त्रों के मारक प्रभाव के निराकरण का उपाय उपलब्ध था। एक बार युधिष्ठिर ने इस प्रकार के किसी अस्त्र का संचालन देखने की इच्छा व्यक्त की थी, तो नारद ने ऐसा करने पर निषेध लगा दिया था (वन पर्व अ. 175)।

भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के मूलभूत नियमों में सदा एक सुसंगति, एकात्मता और परस्पर आदर का भाव रहा है। किंतु आज संपूर्ण समाज में भौतिकता का वर्चस्व हो गया है। अति भौतिकवादिता ने घृणा, द्वेष, छल, बल, भय, दुष्टता, स्वार्थ, असत्य, लोभ और निर्दयता को जीवन की वास्तविकताओं के रूप में स्थापित कर दिया है। भौतिक विकास की सफलताओं ने मनुष्य में अहंकार भर दिया है। इसी अहंकार और अविवेक के प्रमाद में वह निरंतर प्रकृति का तिरस्कार और शोषण करता जा रहा है। महाभारत का यह उपाख्यान पेडों, जंगलों के प्रसंग पर ध्यातव्य है। इस कथा में पर्यावरण के प्रति महर्षि व्यास की संवेदनशीलता और परोक्ष रूप से तत्कालीन मानवीय मूल्यों का दर्शन होता है। द्यूत क्रीड़ा में पराजय के बाद निर्वासित हुए पांडवों ने द्वैत वन में शरण ली। वहां वे लगभग एक वर्ष आठ महीनों तक रहे। प्रवास की उस अवधि में पांडवों के आखेट से वन के पशु धीरे-धीरे समाप्तप्राय हो गए। इसी बीच एक दिन युधिष्ठिर ने स्वप्न में देखा कि बचे हुए जानवर उनके सम्मुख विलाप कर रहे हैं कि इस प्रकार तो उनका समूल नाश हो जाएगा। वे उनसे निवेदन करते हैं कि मनुष्य जंगली जानवरों पर दया करे।

तब युधिष्ठिर उस वन को छोड़कर दूसरे वन की ओर प्रस्थान करने का निर्णय लेते हैं (वन पर्व, अ. 258)। यह कथा विभिन्न प्रकार के प्राणियों के बीच सह-अस्तित्व और उनके बीच प्राकृतिक संतुलन के भारतीय दृष्टिकोण को पुष्ट करती है। शांति पर्व (अ. 282) में भीष्म एक कथा सुनाते हैं-जब इंद्र ने वृत्र (असुर) का वध कर दिया, तो ब्रह्महत्या उनके पीछे पड़ गई। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास गए। तब ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या को शांत करने के लिए कई स्थानों पर प्रश्रय दिया, उनमें से एक इस पृथ्वी का वनस्पतिजगत है। इस पर पेड़-पौधों ने ईश्वर से निवेदन किया कि ब्रह्महत्या का भाड़ वहन करना अत्यंत कठिन है, इसे किसी और को सौंप दें। तब ब्रह्मा ने वरदान दिया कि जब भी मनुष्य बेमौसम या लोभवश पेड़ काटेगा, तो ब्रह्महत्या का भाड़ स्वतः उस पर चला जाएगा। इस प्रकार यह कथा वनस्पतियों के संरक्षण की अनिवार्यता की ओर इंगित करती है। हजारों वर्ष पूर्व जब महाभारत की रचना हुई थी, तब व्यास जैसे महान पुरुष ने मनुष्यों को प्रकृति के समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों के संरक्षण के प्रति जागरूक एवं सावधान करने का प्रयत्न किया था। यदि हम भारतीयता के झरोखे से अतीत में झांककर देखें तो हमें ‘अरण्य संस्कृति’ के दर्शन होंगे। विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने भारतीय संस्कृति को ‘अरण्य’ की संस्कृति कहा है। हमारा इतिहास, दर्शन, हमारी परंपरा, संस्कृति अरण्यों में ही निहित और परिपोषित हुई है। यहां के ऋषि-मुनि, तपस्वी, दार्शनिक, विद्वान अरण्य की शरण में ही अपनी साधना करते रहे। अंग्रेजों ने अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए भारतीय ताने-बाने को नष्ट कर जो ढांचा बनाया, हम आज भी लगभग उसी को ढोए चले जा रहे हैं। प्रकृति से जुड़ी अपनी परंपरा और संस्कृति को हम भुला बैठे हैं। हमने प्रकृति और परंपरा के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ लिया है। समाज प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसका दंड भुगत रहा है।


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