सावन आया, झूले पड़ गयो

मेहंदी का महत्त्व

सावन में जब चारों ओर हरियाली का साम्राज्य रहता है, ऐसे में भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-शृंगार में हरे रंग का खूब इस्तेमाल करती हैं और जब महिलाओं के शृंगार की बात हो रही हो और उसमें मेहंदी की बात न हो तो बात अधूरी रह जाती है। वैसे भी सावन में मेहंदी का अपना महत्त्व है। मान्यता है कि जिसकी मेहंदी जितनी रंग लाती है, उसको उतना ही अपने पति और ससुराल का प्रेम मिलता है। मेहंदी की सोंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, लड़की की सुंदरता में भी चार चांद लग जाते हैं। इसलिए कहा भी जाता है कि मेहंदी के बिना दुल्हन अधूरी होती है। अकसर देखा जाता है कि सावन आते ही महिलाओं की कलाइयों में चूडि़यों के रंग हरे हो जाते हैं, तो उनका पहनावा भी हरे रंग में तबदील होता है। और ऐसे में मेहंदी न हो तो बात पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि सावन में छोटी से बड़ी मेहंदी की दुकान व बाजार लड़कियों और महिलाओं से पटे रहते हैं। सावन के महीने में  कोई भी ऐसी मार्केट नहीं होती जहां मेहंदी वाले नहीं होते। कई ब्यूटी पार्लरों में भी मेहंदी लगाने का काम होता है, परंतु वहां मेहंदी लगाने का मूल्य अधिक होता है इस कारण अधिकांश महिलाएं इन छोटी दुकानों पर ही मेहंदी लगाने पहुंचती हैं। अकसर लोग मारवाड़ी और राजस्थानी मेहंदी की मांग करते हैं। वैसे कई महिलाएं ऐसी भी होती हैं जो घर में ही मेहंदी लगाती हैं। सावन का महीना आते ही गांव के मोहल्लों में झूले पड़ जाते हैं और सावन की मल्हारें गूंजने लगती हैं। ग्रामीण युवतियां, महिलाएं एक जगह देर रात तक श्रावणी गीत गाकर झूला झूलने का आनंद लेती हैं। वहीं, जिन नव विवाहिता वधुओं के पति दूरस्थ स्थानों पर थे, उनको इंगित करते हुए विरह गीत सुनना अपने आप में लोक कला का ज्वलंत उदाहरण हुआ करते थे। झूले की पैंगों पर बुदियों भी जोशीले अंदाज में गायन शैली मात्र यादों में सिमट कर रह गई है। सामाजिक समरसता की मिसाल, जाति-पाति के बंधन से मुक्त अल्हड़पन लिए बालाएं उनकी सुरीली किलकारियां भारतीय सभ्यता को अपने में समेटे हुए सांकेतिक लोक गीत जैसे किसी दिली आकांक्षा की कहानी बयां करते थे उसका अंदाज ही निराला है। सावन को अपनी मस्ती में सराबोर देखना हो, तो किसी भी गांव में चले जाएं जहां पेड़ों पर झूला डाले किशोरियां, नवयुवतियां या फिर महिलाएं अनायास ही दिख जाएंगी। सावन के ये झूले मस्ती और अठखेलियों का प्रतीक होते हैं । पूरे गांव में आम, नीम व इमली के पेड़ों पर कई जगह झूले बांधे जाते थे, हम सब उन पर झूलते थे। ऐसा नहीं था कि केवल किशोरियां या स्त्रियां ही झूलती हों। किशोर, अधेड़ व बच्चे सभी झूलते थे। विशेष बात यह थी कि सभी जाति के लोग झूलते थे। जिस झूले पर ब्राह्मण का छोरा झूलता, उसी पर पहले या बाद में हरिजन की छोरी या छोरा भी झूलता था। एक बात अवश्य थी, सब साथ-साथ नहीं झूलते थे

स्वास्थ्यवर्धक हैं सावन के झूलेर: प्राचीन काल से परंपरागत रूप से सावन में झूला झूलने को प्राचीन परंपरा परिपालन या मात्र मनोरंजन की दृष्टि से नहीं देखिए। इन झूलों में झूलने से अच्छे स्वास्थ्य का लाभ भी मिलता है। ज्येष्ठ महीने की तपन और आषाढ़ के उमस भरे दिनों के पश्चात सभी को सावन की ठंडी फुहारों, मनोरम मौसम की विकलता से प्रतीक्षा होती है। सावन की रिमझिम बरसती बूंदें जब प्यासी धरती पर पड़ती हैं, उस समय मिट्टी से उठने वाली सोंधी-सोंधी सुगंध सभी का मन मोह लेती है। उस महीने में जितने तीज त्योहार आते हैं संभवतः उतने अन्य किसी महीने में नहीं आते। सावन के महीने में झूला झूलने की परंपरा सदियों में चली आ रही है। भगवान कृष्ण और राधा की रासभूमि पर सावन की बहार में स्वयं भगवान भी झूलने का मोह संवरण नहीं कर पाते। सावन के दिनों में ब्रज में रिमझिम-रिमझिम बरसात में भगवान राधा-कृष्ण को भी झूलों पर झुलाया जाता है। भगवान के झूलों को हिंडोला कहते हैं। ब्रज के मंदिरों में विशेष प्रकार के झूले डालकर और उनमें आराध्य देव की प्रतिमाओं को बिठाकर झूला झुलाने की प्रथा यहां अनादिकाल से चली आ रही है। सावन के महीने में मंदिरों में विभिन्न प्रकार की झांकियां सजाई जाती हैं और भक्तगण भगवान के झूले की डोर को खींचकर उन्हें झुलाने में स्वयं को कृतार्थ समझते हैं और गा उठते हैं सावन के झूले पड़े।