अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा

By: Oct 13th, 2018 12:07 am

जिला कुल्लू का ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव इस बार 19 से 25 अक्तूबर तक मनाया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव समिति और जिला प्रशासन ने तैयारियां आरंभ कर दी हैं। जिला प्रशासन ने 305 देवी-देवताओं को निमंत्रण पत्र भेजे हैं। सभी देवी-देवता 18 अक्तूबर शाम और 19 अक्तूबर को दोपहर तक कुल्लू पहुंचेंगे। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला में मनाया जाने वाला दशहरा उत्सव न सिर्फ  देश में, बल्कि विदेशों में भी ख्याति प्राप्त है। कुल्लू दशहरा की धार्मिक मान्यताओं, आरंभिक परंपराओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, पर्यटन, व्यापार व मनोरंजन की दृष्टि से अद्वितीय पहचान है। कुल्लू का दशहरा सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं। आश्विन महीने की दशवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। कुल्लू का दशहरा पर्व परंपरा, रीति-रिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्व रखता है। जब पूरे भारत में विजयदशमी की समाप्ति होती है, उस दिन से कुल्लू घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है। यहां दशहरे पर अनेक रस्में निभाई जाती हैं। कुल्लू में दशहरा मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के समय से मानी जाती है। दशहरा उत्सव के मुख्यतः तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला तथा लंका दहन हैं। इस उत्सव के आयोजन में देवी हिडिंबा की उपस्थिति अनिवार्य है। देवी हिडिंबा के बिना रघुनाथ जी की रथयात्रा नहीं निकाली जाती है। दशहरे के आरंभ में सर्वप्रथम राजाओं के वंशजों द्वारा देवी हिडिंबा की पूजा-अर्चना की जाती है तथा राजमहल से रघुनाथ जी की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है। राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है। इस स्थान पर जिले के विभिन्न भागों से आए देवी-देवता एकत्रित होते हैं। रघुनाथ जी की इस रथयात्रा को ठाकुर निकालना कहते हैं। रथयात्रा के साथ देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की ध्वनि, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है। मोहल्ला के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। इस दौरान देवी-देवता आपस में इस कद्र मिलते हैं कि मानो मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों। मोहल्ला के दिन रात्रि में रघुनाथ शिविर के सामने शक्ति पूजन किया जाता है। दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ जी की मूर्ति को निकालकर रथ में रखा जाता है तथा इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है। देवी-देवताओं की पालकियों के साथ ग्रामवासी वाद्य यंत्र बजाते हुए चलते हैं। ब्यास नदी के तट पर एकत्रित घास व लकडि़यों को आग लगाने के पश्चात पांच बलियां दी जाती हैं तथा रथ को पुनः खींचकर रथ मैदान तक लाया जाता है। इसी के साथ लंका दहन की समाप्ति हो जाती है तथा रघुनाथ जी की पालकी को वापस मंदिर लाया जाता है। देवी-देवता भी अपने-अपने गांव के लिए प्रस्थान करते हैं। ठाकुर निकलने से लंका दहन तक की अवधि में पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण रहता है। इस दौरान उन्हें यहां की भाषा, वेशभूषा, देव परंपराओं और सभ्यता से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है तथा स्थानीय उत्पाद विशेष रूप से कुल्लू की शॉल, टोपियां आदि खरीदने का अवसर भी प्राप्त होता है।  दशहरा उत्सव में गीत-संगीत यानी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का पक्ष इतना मजबूत और आकर्षक होता है कि लोग बड़ी उत्सुकता, बेसब्री व तन्मयता से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का इंतजार करते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम दशहरा उत्सव का अहम भाग है।


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