जानलेवा साबित होता एक रात का जश्न

By: Nov 7th, 2018 12:05 am

योगेश कुमार गोयल

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

दिवाली पर साफ-सफाई की परंपरा रही है, किंतु अब हम दिवाली के अवसर पर जगह-जगह बारूद और कचरे का अंबार लगाकर ये कैसा जश्न मनाते हैं? दिवाली पर आतिशबाजी से प्रदूषण रूपी भयावह खतरे जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उसके मद्देनजर हम विशेषज्ञों की इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि यही हाल रहा, तो आने वाले दिनों में हमें पटाखे भी मास्क लगाकर व कानों में रूई ठूंसकर चलाने पड़ेंगे। इसलिए बेहतरी इसी में है कि दिवाली पर पटाखे भले ही चलाएं, लेकिन ऐसे पटाखों का इस्तेमाल हो, जो सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार ज्यादा विस्फोटक व अधिक धुआं उगलने वाले न हों…

दिवाली पर दीयों की जगमगाहट और आतिशबाजी का मेल यूं तो सदियों पुराना है, लेकिन करीब एक दशक से आतिशबाजी के स्वरूप और प्रचलन में काफी बदलाव आया है। अब तेज रोशनी वाले अत्यंत विस्फोटक पटाखों की भरमार रहती है, जो जरा सी लापरवाही से पलक झपकते ही न सिर्फ जान-माल का भारी नुकसान कर डालते हैं, बल्कि वातावरण को भी बुरी तरह प्रदूषित करते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार पटाखों के फूटने के करीब 100 घंटे बाद तक हानिकारक रसायन वातावरण में घुले रह सकते हैं। यही कारण रहा कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस दिशा में कदम उठाते हुए पटाखे चलाने के लिए रात के समय सिर्फ दो घंटे का समय तय किया गया और ग्रीन पटाखे बनाने तथा इस्तेमाल करने को भी कहा गया। माना जाता है कि दिवाली के मौके पर आतिशबाजी का चलन इस वजह से शुरू हुआ था, ताकि हल्की आतिशबाजियों के धुएं में बारिश के मौसम में उत्पन्न हुए कीट-पतंगे नष्ट हो जाएं और आतिशबाजी की आवाज से विषैले जीव-जंतु भाग जाएं, लेकिन अब जिस प्रकार के पटाखों का चलन बढ़ रहा है, उससे न केवल मनुष्यों, बल्कि धरती पर विद्यमान समस्त प्राणी जगत के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है। पटाखों के धुएं में सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, ऐस्बेस्टॉस के अलावा विषैली गैसों के रासायनिक तत्त्व भी पाए जाते हैं। बारूद और रसायनयुक्त पटाखों के जहरीले धुएं से श्वास संबंधी रोग, कफ, सिरदर्द, आंखों में जलन, एलर्जी, उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, एम्फिसिया, ब्रोंकाइटिस, निमोनिया, अनिद्रा सहित कैंसर जैसी असाध्य बीमारियां फैल रही हैं। पटाखों की कानफोडू़ आवाज से कानों के पर्दे फटने तथा बहरेपन जैसी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। जहरीले पटाखों के कारण बैक्टीरिया तथा वायरस संक्रमण की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। प्रतिवर्ष हजारों लोग पटाखों की वजह से जल जाते हैं। देश में हर साल बीस हजार करोड़ रुपए का पटाखा कारोबार होता है। माना जाता है कि पटाखों का इस्तेमाल 16वीं सदी में शाही उत्सवों में किया जाने लगा था। 1609 में आदिल शाह द्वारा शाही उत्सव में करीब अस्सी हजार की आतिशबाजी कराए जाने का उल्लेख मिलता है। पटाखों की पहली आधुनिक फैक्टरी 19वीं सदी में कोलकाता में स्थापित की गई थी किंतु 20वीं सदी में पटाखा उद्योग तमिलनाडु में स्थानांतरित हो गया, जहां अब करीब 90 फीसदी पटाखों का उत्पादन होता है।

पहले से ही खेतों में जलती पराली, विकास के नाम पर अनियोजित व अनियंत्रित निर्माण कार्यों के चलते बिगड़ते हालात, मोटरगाडि़यों और औद्योगिक इकाइयों के कारण बेहद प्रदूषित हो रहे वातावरण के भयावह खतरों का तो हम ठीक से सामना भी नहीं कर पा रहे हैं और ऊपर से एक रात का यह जश्न हमारी इन समस्याओं को और भी भयानक रूप दे जाता है। हालांकि पर्यावरण तथा प्रदूषण नियंत्रण के मामले में देश में पहले से ही कई कानून लागू हैं, लेकिन उनकी पालना कराने के मामले में पर्यावरण एवं प्रदूषण नियंत्रण विभाग में सदैव उदासीनता का माहौल देखा जाता रहा है। देश की राजधानी दिल्ली तो वक्त-बेवक्त ‘स्मॉग’ (कोहरे और धुएं का ऐसा मिश्रण, जिसमें बहुत खतरनाक जहरीले कण मिश्रित होते हैं) से लोगों का हाल बेहाल करती रही है। तय मानकों के अनुसार हवा मेें पीएम की निर्धारित मात्रा 60-100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होनी चाहिए, किंतु यह दिवाली से पहले ही 900 का आंकड़ा पार कर गई।

न केवल दिल्ली, बल्कि देशभर में वायु, जल तथा ध्वनि प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है। ‘लैंसेट जर्नल’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में वायु, जल तथा अन्य प्रदूषण की वजह से भारत में 25 लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई और उस वर्ष प्रदूषण से होने वाली मौतों के मामले में भारत शीर्ष पर रहा। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार मानव निर्मित वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष करीब 4 लाख 70 हजार लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं। वायु प्रदूषण की गंभीर होती समस्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में हर 10वां व्यक्ति अस्थमा का शिकार है, गर्भ में पल रहे बच्चों तक पर इसका खतरा मंडरा रहा है और कैंसर के मामले देशभर में तेजी से बढ़ रहे हैं। देश का शायद ही कोई ऐसा शहर हो, जहां लोग धूल, धुएं, कचरे और शोर के चलते बीमार न हो रहे हों। देश के अधिकांश शहरों की हवा में जहर घुल चुका है।

बात दिवाली की करें, तो दिल्ली सहित देश के दो सौ से भी ज्यादा महानगरों व शहरों की आबोहवा एक रात के इस जश्न में इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच जाती है कि दिल्ली में तो बाकायदा सरकार को चेतावनी जारी करनी पड़ती है कि अगर जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें और प्रदूषण के तांडव से बचने के लिए घर में भी सभी खिड़की-दरवाजे बंद रखें। दिवाली की रात प्रदूषण के आंकड़े जिस कद्र रिकार्ड तोड़ने लगे हैं, उसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट को इस दिशा में कदम उठाने पर विवश होना पड़ा। गत वर्ष अदालती निर्देशों के बावजूद दिल्ली में दिवाली पर प्रदूषण का स्तर इतना खतरनाक हो गया था कि ऐसा लगा था मानो किसी संक्रामक बीमारी ने दिल्ली पर हमला बोल दिया हो। याद करें कि कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में प्रत्येक पटाखे के रैपर पर उसके ध्वनि के अधिकतम स्तर को प्रिंट किया जाना अनिवार्य किया था, किंतु उन आदेशों की कितनी पालना हुई, सर्वविदित है। कुछ लोग अदालत के हर फैसले में कमियां ढूंढते हैं, दिवाली संबंधी अदालत के फैसले का भी धार्मिक परंपराओं में अदालती हस्तक्षेप का मामला बताकर विरोध किया जा रहा है। ऐसा विरोध करते समय हम भूल जाते हैं कि दिवाली तो पटाखों की शुरुआत होने के सदियों पहले से ही मनाई जाती रही है। वैसे भी देखा जाए, तो सरकारें और देश की तमाम जिम्मेदार संस्थाएं देश को प्रदूषण के कहर से बचाने में नकारा साबित हो रहे हैं। ऐसे में अगर लोगों के स्वास्थ्य के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कठोर फैसले लेने पर विवश होता है, तो इसमें गलत क्या है? ऐसे फैसलों को धर्म और आस्था की चाशनी में घोलकर देखने के बजाय अगर अदालत के ऐसे फैसलों की सदाशयता को समझें और उन्हें व्यावहारिक बनाने में अपने-अपने स्तर पर प्रयास करें, तो यह स्वास्थ्य के लिहाज से न केवल दूसरों के, बल्कि स्वयं अपने हित में भी होगा। भारतीय समाज में दिवाली पर साफ-सफाई की परंपरा रही है, किंतु अब हम दिवाली के अवसर पर जगह-जगह बारूद और कचरे का अंबार लगाकर ये कैसा जश्न मनाते हैं?

दिवाली पर आतिशबाजी से प्रदूषण रूपी भयावह खतरे जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उनके मद्देनजर हम विशेषज्ञों की इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि यही हाल रहा, तो आने वाले दिनों में हमें पटाखे भी मास्क लगाकर व कानों में रूई ठूंसकर चलाने पड़ेंगे। इसलिए बेहतरी इसी में है कि दिवाली पर पटाखे भले ही चलाएं, लेकिन ऐसे पटाखों का इस्तेमाल हो, जो सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार ज्यादा विस्फोटक व अधिक धुआं उगलने वाले न हों। खुशी के इस त्योहार पर हमें आस्ट्रेलिया में दिसंबर माह में मनाए जाने वाले ऐसे ही एक त्योहार की परंपरा को आत्मसात  करने की जरूरत है, जहां इस पर्व पर सागर तटों पर आतिशबाजी की जाती है, लेकिन हर घर में इस दिन एक-एक पौधा लगाए जाने की भी स्वस्थ परंपरा है। बहरहाल, प्रदूषण के बढ़ते खतरों के मद्देनजर देश और समाज को अपना नजरिया बदलना होगा और सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हुए प्रकृति तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए तत्पर रहना होगा।


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