हमारे करीब की दिवाली

By: Nov 7th, 2018 12:05 am

दिवाली के हर नूर पर बाजार की मेहरबानी का हिसाब, इस बार ऑनलाइन शॉपिंग में मशगूल रहा, तो बाजारवाद में हमारी परंपराओं के दीये कैसे चिन्हित होंगे। हिमाचल में दिवाली की खनक अब बाजार के रिश्तों में अपनी रौनक का अंदाजा लगाती है, तो हट्टी की जलेबी पर चाकलेट का अतिक्रमण स्वीकार्य परिवर्तन हो गया। दिवाली हमारी सफलता का सूचकांक और शानो-शौकत का परिधान बनकर दर्ज हुई, तो बस्तियों के अंचल में छुपा कूड़ेदान हम पर हंसने लगा। कभी हिमाचल की दीपावली का अर्थ माटी की सेवा में निरूपित था, इसलिए समुदाय की भूमिका में घर-आंगन पर इसी का लेप चढ़ता रहा। गोबर के फूल जब टौणी देवी इलाके में घर की दीवारों को सुसज्जित करते थे, तो त्योहार का उल्लास परिवेश की सफाई का मजमून बन जाता था। घर पक्के हुए, तो गाय गोबर से गई और जब दूध से भी गई, तो डस्टबिन तक पहुंच गई। इस दीपावली जरा अपनी बस्ती के डस्टबिन में झांक कर देख लें कि जब दीपों की माला बिजली से प्रकाशमान होगी, तो सामने डस्टबिन से बिखरा हमारा अपना कूड़ा कितनी शिकायत करेगा। विवशता में चीखता परिदृश्य इस दिवाली भी मुकाबला करेगा और हम दुनिया के तकाजे में इजाफा करते हुए पटाखे फोड़ देंगे, गिफ्ट बांट लेंगे या अपनी हैसियत के तराजू पर पूरे त्योहार को तोल देंगे, लेकिन स्वच्छता के सरोकार हर डस्टबिन के बाहर हार कर बिखर जाएंगे। क्या दिवाली कभी हर बुराई पर जीत का आलम नहीं थी। क्या हिमाचल पहले इतना गंदा कभी दिखाई दिया। दिवाली अगर जश्न की खबर है, तो हम परिवेश को निहार लें। हर पर्यटक स्थल और प्रशासनिक शहर में स्वच्छता की बत्ती गुल है, फिर भी दिवाली के जश्न में इमारतें ही इमारतें अपने बगल में गंदगी छिपा कर विकास की मुखबरी कर रही हैं। खैर दिवाली अब उस घर में रोज आती है, जहां सरकारी खजाने का पैसा आता है। हिमाचली दिवाली का रुतबा सरकारी नौकरी दिखाती है और इतराती हुई अपनी कीमत का जलवा पेश करती है। दिवाली का एक दिन कभी गली-मोहल्ले को सारा साल इंतजार कराता था, आज सेल का होर्डिंग हमें खींच ले जाता है। बाजार में नए उत्पाद और वाहनों का बढ़ता दबाव बताता है कि हिमाचली घर कितनी दिवालियां मनाते हैं। तरक्की का उन्माद सिर चढ़ यंू ही नहीं बोला, बल्कि जनता ने सत्ता का मजा लूट-लूट कर सियासी दीपावली को अपने करीब खड़ा कर लिया। पहाड़ छिल गए और जेसीबी की गर्दन इतनी ऊंची हो गई कि हर दिन किसी न किसी पहाड़ी को जमींदोज होना पड़ता है, ताकि हमारा गुरूर बहुमंजिला इमारतों की बानगी में वैध और अवैध का भेद मिटा कर दिवाली मना सके। यही सूचकांक हिमाचल की मंत्रिमंडलीय बैठकों में अपना स्वार्थ खोजता है और जब वेतन बढ़ता है या कोई किस्त हमारे आसपास की महंगाई से लड़ने के लिए उतर आती है, तो दिवाली के दीये जल उठते हैं। जब कभी सरकारी नौकरी की खबर की घोषणा हो जाती है या इश्तिहार सज जाता है, तो बेरोजगार के हृदय में दिवाली सा उत्साह आ जाता है। हिमाचल सरकार के हर फैसले से किसी न किसी घर का दीपक जलता है और सोमवार की मंत्रिमंडलीय बैठक में उल्लास की चांदनी फिर मुस्कराई। नौकरियों के ऐलान से हर बेरोजगार अपने घर में एक दीया रोशन होते देखता है, तो नागरिक समाज सरकारों के मंसूबों में प्रदेश की उन्नति का हिसाब लगाता है। आशाओं के हजारों दीपों से अलग जहां सामाजिक अंधेरे बढ़ रहे हैं, वहां सामुदायिक भावना की दीपावली चाहिए। क्या इस दिवाली हम प्रदूषण और गंदगी से मुक्त एहसास कर पाएंगे या जब हम जश्न में डूबे होंगे, तो कूड़े से सराबोर डस्टबिन अपने आसपास आवारा हो चुके गोवंश के साथ टुकर-टुकर हमें देखकर यह पूछता रह जाएगा कि यह कैसी फितरत जो परंपराओं से विपरीत केवल एक ढकोसला बनकर रह गई है।


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