भारत के लोकतंत्र व विविधता को राष्ट्रपति प्रणाली अधिक उपयुक्त

By: Mar 6th, 2019 12:07 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

जहां तक विविधता की बात है, एक विविध समाज के लिए बहुमत शासन की प्रणाली तो बिलकुल उपयुक्त नहीं है। अमरीका हमसे भी अधिक विविध देश है। वहां दुनिया के हर धर्म को मानने वाले, 15 विभिन्न नस्लों के लोग रहते हैं, जो 350 भाषाएं बोलते हैं। उनकी प्रणाली स्थानीय सरकारों को विभिन्न जातियों की सेवा के लिए स्वायत्तता देकर सच्चा संघवाद उपलब्ध करवाती है…

अगर हम एक महान राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं, तो हमारी सरकार की प्रणाली को लोगों को एकीकृत करना होगा और हम सबको शासन में शामिल करना होगा। एक विशाल व विविध देश के लिए ये दो अवयव आवश्यक हैं। परंतु हमारी संसदीय प्रणाली दोनों में ही असफल है।

हमारी बहुमत-शासन की प्रणाली है, जिसे टॉपडाउन शासन — यानि जहां सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय ऊपर बैठे लोग लेते हैं — के लिए ईजाद किया गया है। भारत को विकेंद्रीकृत प्रणाली की आवश्यकता है। जो स्व-शासन को बढ़ावा दे। इससे विभिन्न समुदायों में राष्ट्रीय एकता की भावना सुदृढ़ होगी और उनकी संस्कृतियों की अभिव्यक्ति को बढ़ावा मिलेगा।

अमरीका की राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था एक ऐसी ही विकेंद्रीकृत प्रणाली है। यह स्थानीय स्वायत्तता उपलब्ध करवाती है, परंतु लोगों को एक मजबूत केंद्र के पीछे एकजुट भी करती है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसका बॉटमअप — यानि जहां निर्णय नीचे के लोग लेते हैं — के रूप में आविष्कार किया गया है। उन अलग-अलग राज्यों द्वारा जिन्होंने 18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन से स्वतंत्रता प्राप्त की। अमरीका के निर्माता जो ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की दुर्बलताओं से परिचित थे, ने एक बेहतर विकल्प तैयार किया।

राष्ट्रपति प्रणाली की भी समान तीन शाखाएं हैं – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका- परंतु हमारी प्रणाली के विपरीत उन्हें सचमुच पृथक रहने के लिए बनाया गया है। हर शाखा का सर्वोच्च पदाधिकारी जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित होता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका (राष्ट्रपति) और विधायिका (सेनेटर) द्वारा संयुक्त रूप से की जाती है।

ये मामूली अंतर नहीं हैं। वे हर शाखा को दूसरों पर नियंत्रण के तौर पर काम करने देते हैं और उसे स्वतंत्र भी बनाते हैं। जब कार्यकारी व विधायिका अपने अस्तित्व के लिए आपस में निर्भर हों, जैसा भारत में है, तो एक-दूसरे पर नियंत्रण करना अर्थहीन हो जाता है।

अमरीकी प्रणाली में राज्य सरकारें भी स्वतंत्र हैं। उन्हें केंद्र द्वारा भंग नहीं किया जा सकता। वे अपनी स्थानीय सरकारें भी स्वयं बनाती हैं। अमरीका में लगभग 90,000 स्थानीय सरकारी निकाय हैं — स्कूल शासन से लेकर एंबुलेंस सेवाओं तक — और सभी नागरिकों द्वारा स्वयं चलाए जाते हैं।

संसदीय प्रणाली अपनाने का भारत का निर्णय संविधान सभा द्वारा नहीं बल्कि जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली ‘संघटन संविधान समिति’ ने लिया था। सभा में दिया गया एकमात्र तर्क तो यह था कि हमारे नेता संसदीय प्रणाली से ‘‘परिचित’’ थे।

बीआर अंबेडकर का तर्क कि राष्ट्रपति प्रणाली अधिक स्थायी परंतु कम उत्तरदायी सरकारें देती है, तो तब सामने आया जब निर्णय हो चुका था और संविधान अंगीकार किया जा रहा था।

फिर भी, हुसैन इमाम ने अंबेडकर को टोकाः ‘‘अगर इस बात का परीक्षण हो, यह पाया जाएगा कि अमरीका में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव और सेनेट की समितियां हाउस ऑफ कॉम्न्स द्वारा किए जाने वाले नियंत्रण से काफी अधिक नियंत्रण प्रदान करती हैं।’’

अंबेडकर ने स्वयं गैर-संसदीय प्रणाली पर आधारित ‘संयुक्त राज्य भारत’ के लिए एक योजना भी प्रस्तुत की थी। और सरदार पटेल भी ऐसी प्रणाली चाहते थे जिसमें राष्ट्रपति और गवर्नर प्रत्यक्ष निर्वाचित हों। महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘अगर भारत इंग्लैंड की नकल करता है, तो मेरा दृढ़ मत है कि वह बर्बाद हो जाएगा।’’ यहां तक कि वर्ष 1933 में अंग्रेजों ने भी चेताया था कि संसदीय सरकारों के लिए आवश्यक अवयवों में से भारत में कोई भी मौजूद नहीं।

अमरीकी प्रणाली के विषय में दो आम मिथक हैंः यह तानाशाही में बदल सकती है, और यह भारत की विविधता को नुकसान पहुंचाएगी। सत्य इससे ठीक विपरीत है। यह भारतीय प्रणाली है जो तानाशाह पैदा करती है और सांप्रदायिक व जातीय दरारें बढ़ाती है। 230 वर्षों के अमरीकी इतिहास में कोई भी राष्ट्रपति तानाशाहीपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाया है। परंतु हमारे मात्र 71 साल के इतिहास में हम कम से कम दो प्रधानमंत्रियों का हवाला दे सकते हैं जो बुरी तरह तानाशाह रहे हैं।

एक अकेला व्यक्ति राष्ट्रपति प्रणाली पर नियंत्रण नहीं पा सकता। एक राष्ट्रपति हमारे प्रधानमंत्री के समान नहीं होता। उसका राज्य सरकारों पर कोई नियंत्रण नहीं होता। केंद्र में भी वह विधायिका को नियंत्रित नहीं करता, न ही वह कानून बना सकता है या बजट का अनुमोदन कर सकता है। वह जांच एजेंसियों का मनमाना इस्तेमाल नहीं कर सकता। विधायिका के अनुमोदन बिना वह अपनी कैबिनेट तक नहीं चुन सकता।

डोनाल्ड ट्रंप के साथ हमने ऐसा देखा है। पदभार संभालने के कुछ दिनों में ही उनके पर कतरने शुरू हो गए थे। ताजा मध्यावधि चुनावों ने उनका कद और सीमित कर दिया है।

जहां तक विविधता की बात है, एक विविध समाज के लिए बहुमत शासन की प्रणाली तो बिलकुल उपयुक्त नहीं है। अमरीका हमसे भी अधिक विविध देश है। वहां दुनिया के हर धर्म को मानने वाले, 15 विभिन्न नस्लों के लोग रहते हैं, जो 350 भाषाएं बोलते हैं। उनकी प्रणाली स्थानीय सरकारों को विभिन्न जातियों की सेवा के लिए स्वायत्तता देकर सच्चा संघवाद उपलब्ध करवाती है।

– एकल-व्यक्ति के शासन के खिलाफ राष्ट्रपति प्रणाली सर्वोत्तम सुरक्षा है।

– यह भ्रष्टाचार के खिलाफ बेहतर बचाव मुहैया करवाती है, क्योंकि सभी मंत्री सीधे विधायिका के प्रति उत्तरदायी हैं।

– यह सरकारों को करदाताओं का पैसा खैरात में बांटने से रोकती है, क्योंकि हर नए कार्यक्रम को विधायिका का अनुमोदन चाहिए। और सरकार की स्कीमों को अदालतों द्वारा भी रोका जा सकता है।

– अमरीकी प्रणाली वोट-बैंक की राजनीति का इलाज भी करती है, क्योंकि राष्ट्रपति प्रणाली में चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन जाति या धर्म के आधार पर पार्टी आकाओं द्वारा नहीं किया जाता। उन्हें प्राथमिक चुनावों के जरिए विशाल चुनाव क्षेत्रों में जीत हासिल करनी पड़ती है।

– यह राज्यों द्वारा स्वयं व्यवस्थित पारदर्शी न्यायपालिका भी उपलब्ध करवाती है। न्यायपालिका उत्तरदायी होती है क्योंकि विधायिका अधीनस्थ अदालतों को नियंत्रित करती है।

समय आ गया है कि हम राष्ट्रपति प्रणाली पर आंखें खोल कर विचार करें, क्योंकि इसे भारत जैसे विविध समाज के लिए ही बनाया गया है।

अंगे्रजी में फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित

(28 फरवरी, 2019)

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