चुनाव यूं ही गुजर जाएगा

By: Apr 29th, 2019 12:06 am

कुछ दिनों में चुनाव का यह दौर गुजर जाएगा, लेकिन तब हमारी यादें कहां खड़ी होंगी। माहौल की तल्खियों में आक्रोश का गुनाह भले न देखा जाए, लेकिन लोकतंत्र अंततः एक अनुशासित परिपाटी तथा उम्मीदों का आदर्श ही तो है। हिमाचल में भी सियासत अपना आगा पीछा नहीं देख रही या जीत की खुशफहमी में शाब्दिक शिष्टाचार भी निरर्थक दिखाई देता है। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष ने अपनी पार्टी की वफादारी में जो सीमाएं लांघी हैं, उसका असर चुनाव के बाद इसलिए भी रहेगा, क्योंकि आम आदमी के सरोकार केवल ताली बजाकर पूरे नहीं होते। विडंबना यह है कि सियासत ने लोकतंत्र का अर्थ इतना बदल दिया कि जनता भी अब जुबानी लड़ाई में खुद को ‘चरित्र’ में देखती है। हिमाचल में बहस केवल चुनाव की परिपाटी को लांघती बदजुबानी बन रही है, तो कौन खड़ा होकर मुद्दों की इबारत लिखेगा। पिछले लोकसभा चुनाव में वादों की पींगें थीं, तो इस बार विभ्रम से जकड़ा माहौल अपनी कहानी को विस्फोटक बना रहा है। कमोबेश हर चुनाव सामाजिक बंटवारे की सीमा रेखा पर होने लगा है। अगर इन विभाजक रेखाओं का कुफ्र देखना है, तो स्थानीय निकायों की चुनावी बिसात पर बंटते समाज के उत्साह को देखें, जहां सोच की सकारात्मक इच्छा ही तबाह हो चुकी है। देश जातियों के हवाले और विकास के हीले हवाले में अपनी कौम को खड़ा कर रहा है। चुनाव की तपिश के बारूद बनी जुबान कितनी लंबी हो सकती है और अगर राजनीतिक मंच की तरह सामाजिक मंच भी सहिष्णुता भूल जाए, तो हमारी उपलब्धियों का गुणगान कैसा होगा। जब कोई नेता चुनाव की तलहटी में दिशा भ्रम का शिकार हो सकता है, तो विजयी होने पर तासीर क्या होगी। देश आखिर राजनीतिक हो भी तो कितना, यहां हर कदम की पैमाइश है। क्या हिमाचल के बुद्धिजीवी वर्ग की इल्तिजा में इस कद्र का राजनीतिक परिवेश मान्य है या हम देश पर किसी कृपा का इंतजार कर रहे हैं। गाली-गलौज के चुनावी प्रचार में अपमानित राहों पर, हिमाचल भी बार-बार खड़ा होने की कोशिश में यह भूल रहा है कि सियासत ही नूर नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण में खेत की माटी, मजदूर की दिहाड़ी और नागरिक कर्मठता ही सर्वोपरि है। क्या चुनावी परिदृश्य में हिमाचली सियासत कोई आशाजनक संकेत दे रही है या कहीं हम दादा से उसके पोते की हिफाजत में अपने मर्म पर चोट महसूस करेंगे। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतपाल सत्ती के जोशीले भाषणों के भीतर हम सुरक्षित रहेंगे या कल जब चुनाव परिणामों की अनुकूलता में जश्न मना रहे होंगे, तो यही दीवारें तन जाएंगी। चुनाव की भाषा डराने लगी है-धमकाने लगी है और शायद कल हिसाब भी करेंगी, इसलिए बुद्धिजीवी अब तार्किक नहीं – मौखिक रूप से सत्ता समर्थक है। यह कैसा लोकतंत्र जो आम मतदाता के सामने अपनी भाषा – अपना इरादा खो रहा है। क्या हम दो पार्टियों के बीच केवल ‘जुआ’ हैं, ताकि जो जीत गई उसी के कब्जे में हमारा मनोबल और सोच की दिशा गिरवी हो जाएगी। लड़ने की यह परिपार्टी शायद तालियां बटोर ले या ऐसे मुकाम तक पहुंच कर सियासत सफल हो जाए, मगर चुनाव के बीच रसीद होता वैमनस्य समाज के लिए अति खतरनाक होता जा रहा है। हिमाचल निर्माण की आरंभिक जरूरतें आज भी विद्यमान हैं, तो इस लिहाज से लोकसभा चुनाव का मसौदा दिखाई देना चाहिए। राजनीतिक मंच केवल एक संबोधन भर नहीं, प्रदेश के प्रति प्रतिज्ञा का दस्तूर भी बनें। राजनीति केवल चुनाव का दाना पानी चुनने की महारत नहीं, बल्कि जनता की आशाओं से निकले आदर्श वादों की फेहरिस्त भी है। बेशक यह दौर गुजर जाएगा, लेकिन समय में बिछा वैमनस्य का दौर हमेशा जलालत भरा रहेगा। नेता होने का हक जनता देती है, तो उसके सामने इतनी भी नंगई न हो कि सारे दर्पण राजनीति के लायक न रहें।

 


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