नागरिक अपना दिवस मनाएं

By: Apr 16th, 2019 12:06 am

इस बार चुनाव आचार संहिता ने हिमाचल दिवस को नागरिक दिवस के रूप में परिभाषित किया, तो उन तमाम नायकों को सलाम जिनकी बदौलत यह पहाड़ी प्रदेश अपनी विवशताओं से बाहर निकलकर विशालता का प्रतीक बन गया। हिमाचली जहां भिन्न हैं, वहां राष्ट्रीय आंकड़ों को भी अंगीकार करना पड़ता है और अब तो यहां विकास की तहजीब घर से गांव तक एक समान है। ऐसे में नागरिक से नेता तक की समानता और विषमताओं के बीच चुनाव क्या चुनता है, यह काफी हद तक जागरूकता का जामा बन कर दर्ज होगा। हिमाचल का सैन्य स्वभाव वास्तव में हमारी संघर्षशीलता का प्रमाणित पक्ष है और इसीलिए लोगों ने अपने परिवेश के चंगर को पुरुषार्थ से मात दी। हालांकि इससे परिश्रम की कहावत ने कुछ विसंगति भी पैदा की और बार-बार यह सुना जाने लगा कि पहाड़ का पानी और न ही जवानी इसके काम आती है। जाहिर है इसका रिश्ता उन अधिकारों से भी रहा, जो पर्वत की बेहतरी के लिए राष्ट्रीय प्राथमिकता होने चाहिए थे। बेशक हिमाचल पूर्ण राज्यत्व के शिखर तक अपनी सोहबत में राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के साथ खड़ा हो गया, लेकिन अधिकारों की लड़ाई मंद नहीं हुई। जंगल को बचाते-फैलाते हिमाचल ने अपना पैंसठ फीसदी हिस्सा दे दिया, लेकिन बदले में आर्थिकी के द्वार बंद हो गए। नदियों को सहेजते-संवारते हुए बांध परियोजनाओं में उपजाऊ धरती गंवा दी, लेकिन बदले में केवल विस्थापन की आहें ओढ़कर बैठे रहे। हिमाचल दरअसल पर्वतीय अस्मिता और संस्कृति का एकत्रीकरण है, जो पहले छोटी-छोटी रियासतों का एक कुनबा बना और बाद में पंजाब के पर्वतीय इलाकों के साथ गठबंधन से मजबूत हुआ। इसी पंजाब पुनर्गठन की गांठें आज भी मौजूद हैं, जो अपनी हिस्सेदारी की मांग करती हैं। जाहिर है हिमाचल के निर्माण में सियासत ने अपनी हैसियत का उम्दा प्रदर्शन किया और इसी तरह तसदीक हुए कई नेता। स्व. वाईएस परमार से जयराम ठाकुर के दौर तक का विश्लेषण हालांकि हिमाचली प्रगति के सूचक तलाशेगा, लेकिन असली पहचान तो जननायक की ही रहेगी। हर मुख्यमंत्री अलग-अलग कारणों से चर्चाओं में रहे, तो इस प्रथा में प्रथम होने की जुस्तजू ने नेताओं को क्षेत्रवाद से जोड़ दिया। विकास के बीच मुख्यमंत्री का जादू चला और इसलिए बजट तथा योजना का प्रारूप हमेशा क्षेत्रीय प्राथमिकता बना। बार-बार शिमला से राजधानी को बदलने की मंशा में राजनीति के अक्स में नेता खड़े हुए, तो एक दौर ऐसा भी रहा जब बड़े जिलों के टुकड़े करने की इबादत हुई। जिलों का पुनर्गठन कई कारणों और तर्कों की बिसात पर सही लगता है, लेकिन हिमाचल की तस्वीर में एक सीट कबायली बनकर भी जुड़नी चाहिए। हिमाचली प्रगति के कई आईने रू-ब-रू होते हैं, लेकिन पूरे प्रदेश को अब भविष्य डराने लगा है। प्रगति क्योंकि भीड़ बन रही है, इसलिए व्यवस्था के पहरों में नियम-कानून जरूरी हैं। सियासत में वोट की महफिल ने हिमाचली समाज की रीढ़ खत्म कर दी, लिहाजा हर नागरिक अपने गणित में सरकार खोजता है। इससे जाति और समुदायों की पहचान बढ़ रही है, जो सामाजिक दृष्टि से सही नहीं। उम्मीदवार उतारते हुए जातिगत संतुलन ढूंढा जा रहा है, तो फिर समाज के रंग में भंग तो स्वाभाविक है। हिमाचल के नायक को यह दिन आज तक कितना गौरव दे पाया या प्रादेशिक इतिहास अपना आकाश खोज पाया। जनरल जोरावर सिंह, वजीर राम सिंह पठानिया तथा पहाड़ी गांधी से प्रथम परम वीरचक्र  विजेता मेजर सोमनाथ या आज तक शहादत का जाम पीने वालों को हम कितना याद रखते हैं। क्या उन शिक्षकों की स्मृति में कोई आयोजन होता है, जिनकी बदौलत हिमाचल साक्षरता की सीढि़यां चढ़ता गया या हर क्षेत्र में पढ़ लिख कर पैंठ बना ली। जिन्होंने पर्वतीय दुरुहता को काटकर प्रदेश को सड़कों से जोड़ दिया या जिनके कारण प्यासे हिमाचल को पानी मिला, उन इंजीनियरों को सम्मान मिला। क्या हम हिमाचली अपनी प्रतिभा को केवल निजी स्वार्थ से जोड़कर ही देखेंगे या उस सूर्योदय को नमन करेंगे जो हम सभी को सक्षम समाज बनाता है। प्रतिव्यक्ति देश में अव्वल राज्यों में शुमार यह प्रदेश सदा कर्जदार बनकर तो श्रेष्ठ नहीं बनेगा। क्या हिमाचल का नागरिक समाज अपने परिवेश की हिफाजत में फर्ज अदा कर रहा है। क्या हम अपने घर से कूड़ा उठाते नगर निकाय के सफाई मजदूर को पचास से सौ रुपया देने के काबिल भी नहीं या वाकई इतने प्रतिष्ठित और प्रभावशाली हैं कि सड़क से श्मशानघाट तक की जमीन का अतिक्रमण कर सकते हैं। इस बार हिमाचल दिवस से अगर नेता नदारद रहे, तो नागरिक उपस्थिति अपने दायित्व से पूछे कि यह प्रदेश के प्रति कितनी वफादार है।

 

 

 


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