पुस्तक मेलों को मात्र औपचारिकता मानते हैं साहित्यकार

By: Apr 28th, 2019 12:06 am

 पुस्तक मेलों का औचित्य/किस्त-2

 

हिमाचल में कमोबेश पुस्तक मेले तो लगते हैं, किंतु इनके आयोजन से साहित्यकार संतुष्ट नहीं हैं। लेखकों का मत है कि पुस्तक मेलों को सरकार का सहयोग नहीं मिल पाता। उनका कहना है कि पंचायत व गांव स्तर पर पुस्तक मेलों का आयोजन होना चाहिए। उनका यह मत भी  है कि न केवल हिमाचली समाज, बल्कि पूरे भारतीय समाज का पुस्तकों से नाता नहीं जुड़ पा रहा है। साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका को कई लेखक सिमटता देखते हैं, तो कई इसे बढ़ती हुई मानते हैं। पुस्तकालय कैरियर संबंधी पुस्तकों के अड्डे मात्र नहीं हैं, हां, उनमें सकारात्मक वातावरण पैदा करने की जरूरत अवश्य है। हिमाचल में पुस्तक मेलों के औचित्य पर साहित्यकारों व लेखकों की राय को व्यक्त करती यह सीरीज हम पाठकों के लिए लेकर आए हैं। इसमें हमने हर साहित्यकार से पांच प्रश्नों के जवाब जानने की कोशिश की। पेश है इसकी दूसरी और अंतिम किस्त :

प्रश्नावलि

प्रश्न-1 : पुस्तक मेलों के आयोजन से आप कितने संतुष्ट हैं और अगर हैं तो क्यों?

प्रश्न -2 : पुस्तक मेलों का प्रारूप क्या होना चाहिए?

प्रश्न-3 : पुस्तकों से हिमाचली समाज का नाता क्यों नहीं जुड़ पा रहा है?

प्रश्न-4 : क्या साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका अब सिमट रही है?

प्रश्न-5 : क्या पुस्तकालय अब कैरियर संबंधी किताबों का अड्डा हो गए हैं?

सीमित परिदृश्य से होती है निराशा

श्रीकांत अकेला

उत्तर-1 : यदि हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में पुस्तक मेलों के हो रहे आयोजन के बारे में हम निष्पक्ष बात करें तो ये आयोजन यहां अभी अपनी शैशव अवस्था में ही हैं और मात्र कुछ लोगों के प्रचार-प्रसार तक ही सीमित हैं, यानी अभी भी एक व्यापक रूप इन मेलों को नहीं मिल पा रहा है। इसके लिए कौन और किस प्रकार के लोग जिम्मेदार हैं, यह शोध का विषय है। इन मेलों में कई वर्षों से मात्र कुछ लोगों की किताबों को ही जगह मिल पा रही है और हिमाचल के आम लेखक व युवा वर्ग की कोशिशों को कोई महत्त्व नहीं मिल पाता है।

उत्तर-2 : पुस्तक मेलों का प्रारूप व्यापक होना चाहिए, यानी मात्र कुछ लोगों की कर्मशैली या तथाकथित दक्षता के आगे और लेखकों-साहित्यकारों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। पुस्तक मेलों की व्यापकता ऐसी होनी चाहिए जिसमें बड़ों को उचित सम्मान के साथ युवाओं को भी प्रोत्साहन मिले और इसके लिए प्रदेश के हर जिले में इनका आयोजन हो।

उत्तर-3 : पुस्तकों से हिमाचली नाता इसलिए नहीं जुड़ पा रहा है क्योंकि आम हिमाचली की किताबें इन मेलों में नहीं पहुंच पा रही हैं। संबंधित विभाग उनकी किताबें लेता ही नहीं है। यह भी कटु सत्य है कि  युवाओं और अन्य लेखकों को कमतर आंकना और स्तरीय न होने का लेबल लगाना भी संबंधित विभागों का एक प्रचलन बन गया है। यहां केवल कुछ लोगों की किताबें ही खरीदी जाती रही हैं, जबकी आम लेखक जो गांवों या छोटे-छोटे शहरों में रचना कर रहा है, उसके लिए भाषा विभाग या अकादमी बहुत दूर है या जानबूझ कर उनको कमतर आंक कर उनसे दूरी बनाई जा रही है।

उत्तर-4 : साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या सिमटने का मुख्य कारण नवोदित साहित्यकारों को महत्त्व नहीं मिलना है। एक स्थापित साहित्यकार का फर्ज है कि युवा साहित्यकारों का मार्गदर्शन करे, लेकिन यहां सकारात्मक दृष्टिकोण का नितांत अभाव है।

उत्तर-5 : सचमुच ही आज पुतकालय सिर्फ  करियर संबंधित किताबों के अड्डे बन गए हैं। यहां पर साहित्य, उपन्यास, कहानी और समसामयिक विषयों की किताबों का प्रचलन कम होता जा रहा है। कारण साफ  है, इस दिशा में सरकार या संबंधित विभाग कुछ ठोस नहीं कर पा रहे हैं। साहित्य संवाद को गौण और लेखन को सीमित दायरे में रखा जा रहा है, जबकि मोटे-मोटे प्रकाशकों को ज्यादा महत्त्व मिलना भी किसी से छिपा नहीं है।         

छोटे शहरों में भी लगें पुस्तक मेले

मुरारी शर्मा

उत्तर-1 : पुस्तक मेलों का आयोजन अगर औपचारिकता निभाने के लिए ही हो जैसा कि हिमाचल में होता है, उसका कोई औचित्य नहीं है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हिमाचल में होने वाले पुस्तक मेलों को एनबीटी ने महज रस्म-अदायगी बना रखा है जिसमें अच्छे और बड़े प्रकाशक शामिल नहीं होते। वैसे हिमाचल की स्वयंसेवी संस्था हिमाचल ज्ञान विज्ञान समिति बच्चों की पुस्तकों को लेकर पंचायत स्तर पर पुस्तक अभियान चलाती रही है। यह प्रयोग काफी सफल भी रहा है। लेकिन एनबीटी द्वारा आयोजित पुस्तक मेलों के आयोजन को लेकर सदैव सवाल उठते रहते हैं।

उत्तर-2 : पुस्तक मेलों को शिमला और धर्मशाला से बाहर निकाल कर हिमाचल के दूसरे शहरों में आयोजित करना चाहिए जिसमें स्थानीय प्रशासन, भाषा और शिक्षा विभाग तथा स्थानीय स्तर पर लेखक संगठनों की सक्रिय साझेदारी तय की जानी चाहिए। स्कूल-कालेज के छात्रों के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों और संगठनों की हिस्सेदारी इन आयोजनों में तय हो तो कोई कारण नहीं है कि पुस्तक मेले सफल न हों।

उत्तर-3 : सवाल हिमाचली समाज का नहीं है। देश के हर हिस्से का यही हाल है। किताबें और पत्रिकाएं जो कभी घर के ड्राइंग रूम की शोभा हुआ करती थी, अब घर में किताबों के लिए कोना नहीं बचा है। इसके बावजूद किताबों को पाठकों से दूर रखने की सोची-समझी कवायद भी की जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण किताबों की कीमत भी है, जो किताब चालीस-पचास रुपए में मिलनी चाहिए, प्रकाशक उसकी कीमत दो सौ से ढाई सौ के बीच रखते हैं।

उत्तर-4 : साहित्यिक पत्रिकाएं अपने-अपने स्तर पर अपनी भूमिका निभा रही हैं। यह अलग बात है कि उनके प्रचार-प्रसार का दायरा सीमित है। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका जैसी पत्रिकाओं का दौर अब नहीं रहा। इसके बावजूद साहित्यिक पहुंच दूर तक है। हंस, पहल, वागर्थ, कथादेश आदि पत्रिकाओं में छपी रचनाओं पर प्रतिक्रिया देश के हर कोने से आती है, भले ही इनकी प्रसार संख्या लाखों में नहीं है। यही कारण है कि देश में साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन निरंतर जारी है, कुछ बंद हो रही हैं तो नई पत्रिकाएं मोर्चा संभाल रही हैं।

उत्तर-5 : कुछ हद तक यह सही है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है। इसी बहाने सही, नई पीढ़ी का झुकाव पुस्तकालयों की ओर हो रहा है। मगर दुखद पहलू तो यह है कि समाज का एक बड़ा तबका ऐसा है जो बेमतलब की बातों में अपना समय बर्बाद कर देता है, लेकिन पुस्तकालय की दहलीज पार नहीं करता है। यह वही वर्ग है जो अपने आपको बुद्धिजीवी कहलाने में गर्व महसूस करता है, पर किताबों से दूरी बनाए रखता है। ऐसा नहीं है कि पुस्तकालयों में कैरियर से संबंधित किताबें आदि हैं। हर साल कई पुस्तक खरीद योजनाओं के तहत किताबों के बंडल पुस्तकालयों में आ रहे हैं जिन्हें अल्मारियों में कैद कर दिया जाता है…किताबों को अल्मारियों से मुक्त कर रैक में रखा जाना चाहिए।

हिमाचल का लेखक जगत दोयम नहीं

डा. सुशील

कुमार फुल्ल

उत्तर-1 : पुस्तक मेले कभी-कभार होते हैं और वह भी दिल्ली-कोलकाता जैसे बड़े शहरों में। आम पाठक तो वहां तक पहंच ही नहीं पाता। लेखकों में से भी अपवादों को छोड़कर जुगाड़ू न भी कहें, प्रबंधन में कुशल लोग ही पहुंच पाते हैं। आम पाठक या दूरदराज का लेखक तो खबरों में ही आनंद लेता है। हिमाचल में भी जो पुस्तक मेले लगते हैं, वे केवल दो-तीन शहरों में ही लगते हैं और उनमें भी हिमाचल के रचनाकर्म पर कोई खास बात नहीं होती। दूसरे प्रदेशों से बुलाए लेखक ही ज्यादा छाए रहते हैं। मैं समझता हूं कि पुस्तक मेलों का आयोजन तो होना ही चाहिए, परंतु यह छोटे शहरों, गांवों या कस्बों में हों या किसी विश्वविद्यालय में हों तो अधिक प्रासंगिक हो सकते हैं। हिमाचल में पुस्तक मेला हो तो हिमाचल की विभिन्न विधाओं-कथा, कविता आदि पर विशिष्ट बात होनी ही चाहिए। बाहर जो बड़े सरकारी पुस्तक मेले होते हैं, उनमें हिमाचल के लेखकों को कहां बुलाया जाता है -‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में। हिमाचल के लेखकों ने लिखा बहुत कुछ है और बहुत अच्छा भी, परंतु कोई नामलेवा ही नहीं। खैर छोडि़ए, पिद््दू सा प्रदेश है, इतने फफोले फोड़ने की भी क्या जरूरत है?

उत्तर-2 : पुस्तक मेलों का प्रारूप ऐसा होना चाहिए कि पुस्तकें भरपूर मिलें। गोष्ठियां हों, साहित्य की प्रासंगिकता पर बात हो, उत्तर आधुनिकता पर चर्चा हो तथा चुनिंदा लेखकों की रचनाओं पर मूल्यांकन हो। क्या ही अच्छा हो कि जिस प्रदेश में यह मेला हो, उस प्रदेश के साहित्य के इतिहास पर कुछ चर्चा तो होनी ही चाहिए, नहीं तो अलग-अलग प्रदेशों में आयोजन की आवश्यकता क्या है?

उत्तर-3 : हिमाचल को हिंदी जगत में दोयम दर्जे का समझा जाता है। पुस्तकों से हिमाचली समाज का नाता इसलिए नहीं जुड़ पाता क्योंकि पुस्तकें हिमाचल की धड़कन को नहीं प्रस्तुत करतीं। दरअसल हिंदी साहित्य जगत आज भी हिमाचल के लेखकों को चंद्रधर शर्मा गुलेरी या यशपाल मात्र ही समझता है। है न कितनी बड़ी नादानी?

उत्तर-4 : साहित्यिक पत्रिकाएं तो विगत की बात हो गईं। जो पत्रिकाएं इधर-उधर से बड़े संस्थानों से छपती हैं, उनमें भी तथाकथित साहित्यकार अपने जुगाड़ या मैत्री से छपते हैं या फिर स्पांसर बनकर अपनी रचनाओं की वाहवाही करवाते हैं। मनी मेक्स दी मेयर गो। आप रातों-रात बड़े स्थापित लेखक बन सकते हैं, लेकिन अस्थायी तौर पर। रचना जब बोलेगी, वही वास्तविक समय होगा पहचान का। पत्रिकाओं की विश्वसनीयता इसीलिए कम हुई है। साहित्य तो उनमें गधे का सींग हो गया है।

उत्तर-5 : बिल्कुल ठीक। आज सर्वाधिक बिक्री कैरियर बुक्स की है और स्वाभाविक है पुस्तकालयों में भी अधिकतर पुस्तकें कैरियर संबंधी आने लगी हैं क्योंकि पाठक उन पुस्तकों की तलाश में ही पुस्तकालय पहुंचते हैं, न कि समकालीन उपन्यासों को पढ़ने की जिज्ञासा से। पुस्तकालय ज्ञान का अक्षुण्ण भंडार होते थे, परंतु अब तो पाठक इंटरनेट को ही ज्ञानकोष मानते हैं। कोई शब्दकोष भी खोलकर नहीं देखना चाहता। पुस्तकालय पुरातत्त्व विभाग की जद में आने ही वाले हैं।

सिमट रहीं साहित्यिक पत्रिकाएं

शंकर लाल वासिष्ठ

उत्तर-1 : किताब के भीतर जो शब्द होते हैं, उनमें हमें बदलने  की शक्ति होती है। कैसांड्रा क्लेयर के ये शब्द पुस्तकों के महत्त्व को स्पष्ट दर्शाते हैं। वस्तुतः पुस्तक मेले अध्ययनशील लोगों के लिए हर्ष, आनंद व संतुष्टि देने वाले अवसर से कम नहीं होते क्योंकि दिमाग की खुराक अध्ययन है और अध्ययन के लिए पुस्तकों की आवश्यकता होती है। पुस्तक मेलों के माध्यम से पाठकों को इच्छा या अपने विषय और रुचि अनुसार पुस्तकें सुगमता से एक ही छत के नीचे प्राप्त हो जाती हैं। इस संदर्भ में जितने प्रयास विशेषकर हिमाचल में हैं वे कदमताल से अधिक नहीं। हां…इतना है कि आशा की किरणें दिलासा देती रहती हैं। प्रयास श्लाघनीय व आश्वस्त करने वाले हैं। सरकारी एजेंसियां बजट या अन्य कारणों से अधिक उत्साह नहीं दिखा पाती, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास व प्रकाशक प्रयासरत रहते हैं, परंतु ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ वाली कहावत सटीक बैठती है। हिमाचल की भौगोलिकता के मद्देनजर प्रत्येक जिला मुख्यालय में पुस्तक मेलों की सतत आवश्यकता है, तब कहीं हम पाठकों की संख्या में वृद्धि कर संतुष्टि की ओर अग्रसर होंगे। लेकिन असंतोष भी नहीं है क्योंकि, सृष्टि के प्रारंभ से लेकर अद्यतन ऋषि-मुनियों, चिंतकों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों व महान विचारकों ने अपने तप-त्याग से जो ज्ञान-विज्ञान अर्जित किया है उसे पुस्तकों में शाश्वत स्थापित कर स्वयं ब्रह्मांड में विलीन हो गए। भले ही वे आज भौतिक रूप से नहीं हैं, परंतु ज्ञान-विज्ञान आज भी हमारा मार्गदर्शन कर वस्तुनिष्ठ पिपासा को शांत करने में पूर्ण रूप से सक्षम है। संतोष का यही कारण है कि छिटपुट पुस्तक मेले उद्देश्य की तरफ अग्रसर हैं।

उत्तर-2 : पुस्तक मेलों में बाल साहित्य से लेकर प्रौढ़ साहित्य तक का व्यापक फलक  होना चाहिए। पुस्तक मेले व प्रदर्शनियां पाठकों को आकर्षित करती हैं। सर्वविध साहित्य स्वादू व्यंजनों की भांति रुचिकर लगता है। पुस्तक मेले संस्कृति-शिक्षा व  ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करने में उपकरण की तरह काम करते हैं। बारंबार स्थान-स्थान पर इनका आयोजन अपेक्षित है, तभी लोगों की रुचि पठन की ओर बढ़ेगी।

उत्तर-3 : हिमाचल प्रदेश का अधिकांश क्षेत्र दुर्गम है। जीवनोपयोगी संसाधन जुटाने में ही अधिक समय व्यतीत हो जाता है, साधन अभाव में इतना समय कहां कि पुस्तक का अध्ययन हो सके।

उत्तर-4 : कुछ दशक पहले साहित्यिक पत्रिकाएं भिन्न-भिन्न रसों के आस्वादनों से पाठक की पिपासा को संतुष्ट व आनंदित करती थी। जीवन संघर्ष में आने वाली समस्याओं का अपेक्षित निदान कथा, कविता, दोहावली या व्यंग्यात्मक, हास-उपहास से होता था। परंतु आज दूरदर्शन, सिनेमा, मोबाइल व इंटरनेट ने मानव को रात-दिन अपने आगोश में इतना जकड़ लिया है कि वह बाहर निकल ही नहीं पाता। अतः पत्रिकाओं की भूमिका का सिमटना स्वाभाविक है।

उत्तर-5 : हां…अधिकांशतः यही देखने को मिलता है क्योंकि आज सुखद भविष्य हेतु कैरियर संवारना प्रथम आवश्यकता है। मां-बाप व सभी अभिभावक इसी दौड़ में शामिल हैं। अध्ययन परीक्षा के लिए हो रहा है, आनंद या आत्म-संतोष के लिए नहीं। साहित्यिक आनंद, रसानुभूति या आलंकारिक भाषा को कहीं कोई स्थान नहीं।

पुस्तकालय की चीख सुनो

गुरमीत बेदी

उत्तर-1 : पुस्तक मेलों में पुस्तकों का जो आकर्षण है, सम्मोहन है, रंग है और जो महक है, वह घर बैठे नहीं मिल सकती है। ऐसे में पुस्तक मेलों की प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं हो सकती। आज भी आम आदमी का जुड़ाव पुस्तकों से है और जब तक पुस्तकें होंगी, पुस्तक मेलों का संसार कायम रहेगा। पुस्तक इनसान का सबसे बेहतर मित्र है। हाथों में किताब लेकर पढ़ने की जो अनुभूति है, वह किसी दूसरे माध्यम में संभव नहीं है। जब तक मानव सभ्यता रहेगी, तब तक किताबों की प्रासंगिकता केवल ज्ञान के संदर्भ में ही नहीं बल्कि मानवीय संदर्भों में भी जिंदा रहेगी। पुस्तकें ज्ञान का विपुल भंडार ही नहीं, बल्कि यह मानव को मानव बनाने में सहायक सिद्ध होती हैं। पुस्तक मेलों की जो वर्तमान स्थिति है, मैं उससे संतुष्ट नहीं हूं। इनका विस्तार होना चाहिए और सिलसिला जारी रहना चाहिए।

उत्तर-2 : मेरा मानना है कि विभिन्न शहरों और कस्बों में पुस्तक मेले आयोजित होते रहने चाहिए। आयोजन ऐसा हो कि लोग पुस्तक मेले का शिद्दत से इंतजार करें। इसके लिए शैक्षणिक संस्थानों,  प्रकाशकों, प्रशासन, स्थानीय निकायों-पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधियों, साहित्यिक संस्थाओं और साहित्य प्रेमियों को भी प्रयास करने चाहिए। पुस्तक मेलों में सेमिनार, गोष्ठी, पैनल डिस्कशन आयोजित होने चाहिए और स्थानीय लेखकों को भी इसमें पूरी तरह भागीदार बनाया जाना चाहिए ताकि लेखक और पाठक दोनों वर्ग घरों से निकलें और पुस्तक मेले से जुड़ें। उस अंचल की संस्कृति और वहां बोली जाने वाली भाषा को भी सृजन में शामिल किया जाना चाहिए। लोक कलाकारों को भी  पुस्तक मेलों में अपनी प्रस्तुतियों के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। इससे पुस्तक मेले का आकर्षण बढ़ेगा।

उत्तर-3 : अभी भी पुस्तकों की पहुंच समाज के अभिजात्य वर्ग तक सीमित है। यदा-कदा ही पुस्तक मेले आयोजित होते हैं और वह भी बड़े शहरों या जिला मुख्यालयों तक ही सीमित रहते हैं। जब पुस्तक मेलों का दायरा बढ़ेगा तो यकीनन हिमाचली समाज का नाता भी बड़ी शिद्दत से इनसे जुड़ेगा। साहित्यिक संस्थाओं व लेखकों को भी आपसी गुटबाजी से उबर कर संजीदा प्रयास करने होंगे। बड़ी बात यह भी है कि पुस्तक मेलों में हिमाचल के इतिहास, संस्कृति, यहां की परंपराओं और यहां के सृजन को भी प्रमुखता मिलनी चाहिए।

उत्तर-4 : कोई भी साहित्यिक आंदोलन खड़ा करने में हमेशा से साहित्यिक पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है। साहित्यिक पत्रिकाओं ने ही अनेक नए लेखकों को मंच प्रदान किया है। समाचार पत्रों में तो अब साहित्य का स्पेस निरंतर सिमटता जा रहा है। कुछ समाचार पत्र ही अपवाद हैं। बढ़ती महंगाई में साहित्यिक पत्रिकाएं भी आर्थिक संकट से जूझ रही हैं। बहुत सी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद होने के कगार पर हैं। यह दुखद स्थिति है।

उत्तर-5 : ऐसी स्थिति क्यों आ रही है, इस पर मंथन की जरूरत है। पुस्तकालय हर वर्ग के पाठकों की रुचि का केंद्र बनने चाहिएं। आम पाठक के लिए जब कम कीमत पर उसकी रुचि की पुस्तकें पुस्तकालयों में उपलब्ध होंगी तो यकीनन स्थिति बदलेगी।

 


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