लाल चंद प्रार्थी का महती योगदान

By: Apr 3rd, 2019 12:06 am

गंगा राम राजी

साहित्यकार

प्रार्थी ने अपने लोकनृत्य के मोह में अपने कुल्लवी नृत्य को भांगड़े के समानांतर मंच दिया। उनका यह योगदान अविस्मरणीय रहेगा। कुल्लू का कला केंद्र प्रार्थी की मेहनत का ही परिणाम है। प्रार्थी के रोम-रोम में कलाकार छिपा रहता था…

चांद कुल्लवी या शेर-ए-कुल्लू कहें या लाल चंद प्रार्थी अपने नाम के साथ अपने जन्म स्थान  कुल्लू के साथ ही जुड़े रहना चाहते थे। अपनी मातृ भाषा के साथ उनका अपार स्नेह था। कुल्लू की पारंपरिक लोक संस्कृति को उन्होंने राष्ट्रीय मंच प्रदान किया। यहीं की लोकनृत्य परंपरा को जीवंत बनाने के लिए उन्होंने जो कदम उठाए और परिश्रम किया, वह सराहनीय है। कुल्लू जिला की प्राचीन राजधानी नग्गर गांव में 3 अप्रैल, 1916 को जन्मे लाल चंद प्राथी ने न केवल कुल्लू जिला के लिए, बल्कि पूरे हिमाचल के लिए ऐसे कार्य किए हैं, जिन्हें भुला पाना मुश्किल है। आज कुल्लू के लोकनृत्य को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति एवं जो मंच मिला, यह सब उन्हीं की मेहनत और लगन का परिणाम है। उन्हें इस काम के लिए उनके विरोधियों द्वारा प्रताड़ना और हंसी-मजाक भी सहना पड़ा था, परंतु वह अपनी धुन के पक्के निकले और उन्होंने इन छोटी-मोटी बातों की कोई परवाह नहीं की। नृत्य के लिए जब वह हंसी का पात्र बनने लगे, तो उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को इसमें शामिल कर विरोध करने वालों का मुंह बंद किया। हिंदी के ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ के कवि हरिशचंद्र जी को भी इसी तरह से लोक विवाद का शिकार होना पड़ा था, जो कलाकार उनके अंदर एक बार घर कर गया, तो वह इस तरह के विवादों की परवाह न करते हुए नाटक में स्त्री पात्र का अभिनय स्वयं करने लगे थे। यही स्थिति लाल चंद प्रार्थी की रही है।

यह सत्य है कुल्लू जब पंजाब का एक हिस्सा था और पंजाब में अपने लोकनृत्य भांगड़ा को ही महत्त्व मिलता था, उस समय प्रार्थी ने अपने लोकनृत्य के मोह में अपने कुल्लवी नृत्य को भांगड़े के समानांतर मंच दिया। उनका यह योगदान अविस्मरणीय रहेगा। उन्होंने लोकनृत्य दल गठित करके स्वयं कलाकारों को प्रशिक्षित करके 1952 के गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर प्रदर्शित किया और पुरस्कृत होने तथा पूर्ण राष्ट्र में इसे पहचान दिलाने का भागीरथी कार्य किया। कुल्लू का कला केंद्र प्रार्थी की मेहनत का ही परिणाम है। प्रार्थी के रोम-रोम में कलाकार छिपा रहता था। यही कलाकार उनको मुंबई की ओर भी ले गया था और ‘न्यू थियेटर्स कलकत्ता और न्यू इंडिया कंपनी लाहौर’ की दो फिल्मों में हल्की छोटी-मोटी भूमिका निभाई थी। पृथ्वी राज कपूर के समक्ष अपने कुल्लू लोकनृत्य को दर्शाया, तो पृथ्वी राज कपूर उनकी प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं सके। अपने फिल्मी कलाकारों के लिए लाल चंद प्रार्थी को ध्यान में रखकर उन्होंने कहा, ‘देखिए इस जवान में सोज और दिल में चलन है। नाचते वक्त इसका अंग-अंग नाचता है, मस्ती से झूमता है। यह पैदायशी कलाकार है और आप सब नकली ….. ’। लाल चंद के लिए एक बड़े कलाकार द्वारा यह बात कोई अर्थ रखती है। उनका मानना था कि जो देश संस्कृति और साहित्य को महत्त्व नहीं देते हैं, जिस देश की संस्कृति मर जाती है, वह राष्ट्र भी जीवित नहीं रह सकता। हिमाचल साहित्य अकादमी का गठन करके उन्होंने भावी पीढ़ी के लिए कई रास्ते खोल दिए। कुल्लू दशहरे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाने का उनका प्रयास सफल हुआ। इसी दशहरे के मंच से कुल्वी नृत्य मल्हान 12000 नर्तकों और नृत्यांगनाओं के एक साथ नृत्य को गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड का रिकार्ड स्थापित करना उन्हीं की प्रेरणाओं का परिणाम रहा है। इसके  साथ उनकी गजलों, जो बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध हैं, जिसे ‘वजूद-ओ-अदम’ से उनकी मृत्योपरांत भाषा संस्कृति अकादमी ने किताब का रूप दिया, से अंदाजा लगाया सकता है कि वह इस क्षेत्र में भी किसी से कम नहीं रहे हैं। इसके साथ वह भगवान पर हमेशा भरोसा रखते थे। उनका मानना था कि आप काम करते रहो, परंतु भगवान को अपने अंदर हमेशा याद रखो। वह हमेशा सबको साथ चलने के लिए ही प्रेरित करते थे। आज जो सरकार का नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास’, यह पिछली शताब्दी के सातवें दशक में ही प्रार्थी  ने स्वयं भी अपनाया और दूसरों को भी यही मंत्रणा दी – ‘अच्छा है साथ-साथ चले जिंदगी के तू, ऐ खुदफरेब इससे कोई फासला न रख, राह-ए-वफा में तेरी भी मजबूरियां सही, इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख’। इसके साथ उनका एक रूप और भी था, देशभक्त का। देश से प्रेम और देश को आजाद कराने की मुहिम में वह अपने को कैसे पीछे रख सकते थे। देश को आजाद कराने का जो उन्माद प्रत्येक भारतवासी के हृदय में पैदा हुआ था, क्रांति की इस मुहिम में हिमाचल भी पीछे नहीं रहा। ऐसे में लाल चंद प्रार्थी जैसे प्रबुद्ध   कैसे पीछे रह सकते थे। इस महान आहुति में पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम, प्रसिद्ध लेखक यशपाल, डा. यशवंत सिंह परमार के साथ प्रार्थी का नाम भी अग्रणी श्रेणी में आता है। आरंभिक शिक्षा कुल्लू में प्राप्त कर जम्मू में अपने भाई राम चंद्र शास्त्री के पास जाकर संस्कृत भाषा का अध्ययन किया।

वकील बनने की इच्छा ने उन्हें लाहौर की ओर आकर्षित किया। वहां पर वकील तो नहीं बन पाए, परंतु आयुर्वेद की उपाधि 18 वर्ष की आयु में जरूर प्राप्त कर ली। सन 1933 में लाहौर में ही कुल्लू के छात्रों ने मिलकर ‘पीपल्ज लीग’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य समाज सुधार के साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना था। इन्होंने वहीं से इस आंदोलन में भाग लेना आरंभ कर दिया। इसी दौरान वह लाहौर में क्रांतिकारी दल के संपर्क में आए।

यहीं पर इन्होंने विद्यार्थी कांग्रेस में बढ़-चढ़कर भाग लिया। कुल्लू आने पर नग्गर में एक ग्राम सुधार सभा का गठन किया, इसी के माध्यम से उन्होंने लोगों में राष्ट्रीय प्रेम और एकता की भावना का संचार किया। राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां तक कि सरकारी नौकरी छोड़कर कुल्लू के नौजवानों में देशप्रेम की लौ जगा दी। वह समाजसेवा में अपना जीवनयापन करते रहे, 1952, 1962 और 1967 में वह कुल्लू के विधायक रहे। हिमाचल के पुनर्गठन के बाद विशाल हिमाचल में मंत्री के पद पर रहे। मंत्री पद के इन दस सालों में प्रदेश की भाषा, संस्कृति, चित्रकला, साहित्य और आयुर्वेद के लिए प्राथमिकता के आधार पर कार्य करते रहे। प्रार्थी स्वयं को राजनीतिज्ञ की अपेक्षा पहले साहित्यकार मानते थे। वह कहा करते थे कि मुझे लोग मंत्री के नाम से तो भूल जाएंगे, परंतु साहित्य के क्षेत्र में मुझे अवश्य याद किया जाएगा।


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