इतिहास की प्रतिध्वनियां और समय

By: May 15th, 2019 12:07 am

डा. कश्मीर उप्पल

स्वतंत्र लेखक

कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अनुसार ‘फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी, अंतरराष्ट्रीयतावादी और साम्राज्यवादी तत्त्वों की खुली आतंकवादी तानाशाही है।’ क्या इसके  दर्शन भारत में नहीं हो रहे? फासीवादी दर्शन का एक मुख्य तत्त्व वैज्ञानिक अनुसंधानों को नकारना और धर्म तथा आध्यात्मिकता की चर्चा करना है। यह आध्यात्मिकता एक विशेष धर्म और जाति की पवित्रता तथा उसके धार्मिक आराध्यों की बात करते हुए एक बहुमत वाले जनसमुदाय के लोगों को अपने पक्ष में गोलबंद करती है। इसीलिए आजकल बहुमत की जगह बहुसंख्यक वर्ग की बात होने लगी है। बहुसंख्यक वर्ग को बहुमत कहने से अल्पसंख्यक वर्ग के संकट बढ़ जाते हैं…

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुआती अधिकारियों में से एक जार्ज लिंडसे जॉनस्टोन ने 1801 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत अपनी एक सारगर्भित टिप्पणी में कहा था कि ब्रिटेन का भारतीय साम्राज्य ‘विचार का साम्राज्य’ है, जिसकी नींव ‘अपनी ताकत को पहचानने में देशी लोगों की अनिच्छा’ पर पड़ी है। इस टिप्पणी के बरअक्स महात्मा गांधी को याद करें, तो लगता है कि उनकी सारी ताकत ‘देशी लोगों की अनिच्छा’ को सक्रिय भागीदारी में तब्दील करने में लगी है। नेल्सन मंडेला ने गांधी को ‘देशीय बुद्धि, आत्मा और उद्योग के पुनर्जागरण का जनक’ कहा है। मंडेला सारी दुनिया के संदर्भ में कहते हैं कि जब औपनिवेशिक मनुष्य ने सोचना छोड़ दिया था और उसका समर्थ होने का एहसास लुप्त हो चुका था, गांधी ने उसे सोचना सिखाया और उसके सामर्थ्य के एहसास को पुनर्जीवित किया। आज हम अपने देश में कॉर्ल मार्क्स के इन शब्दों को साकार होते देख रहे हैं कि ‘भौतिक उत्पादन के साधनों पर जिस वर्ग का नियंत्रण होता है, उसी समय उसका बौद्धिक उत्पादन के साधनों पर भी अधिकार होता है।’ विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2018 में केवल 121 भारतीयों के पास जितनी संपत्ति थी, वह ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) की 22 प्रतिशत के बराबर थी।

इसमें भी 42 मिलियन डालर संपत्ति अर्थात करीब 10 प्रतिशत हिस्सा केवल मुकेश अंबानी के पास था। हमारे देश के स्वास्थ्य और शिक्षा के बजट दुनिया के प्रमुख देशों से बहुत कम हैं। औद्योगिक और कृषि विकास दर अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। विश्व बैंक के दक्षिण-एशिया क्षेत्र के प्रमुख अर्थशास्त्री मार्टिन समा ने कहा है कि वर्ष 2025 तक भारत में हर महीने 18 लाख युवा काम करने की उम्र में पहुंचेंगे। विश्व बैंक ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में हर महीने 13 लाख युवा कामकाज करने की उम्र में प्रवेश करते हैं। ऐसे में देश की वर्तमान स्थिति पर अर्थशास्त्री लार्ड कीन्ज की यह उक्ति बेहद सटीक हो गई है कि ‘अभी आने वाले कम-से-कम सौ साल तक हमें अपने आपको इस भुलावे में रखना होगा कि जो उचित है, वह गलत है और जो गलत है, वह उचित है, क्योंकि जो गलत है, वह उपयोगी है और जो उचित है, वह उपयोगी नहीं है। अभी हमें कुछ अर्से तक लोभ, सूदखोरी और एहतियाद की पूजा करनी होगी।’ देश की इस पृष्ठभूमि को मौजूदा हालात के साथ मिलाकर देखें, तो यूरोप में फासीवाद के शुरुआती दौर की ध्वनियां सुनाई देती हैं। मसलन, माना जाता है कि लफ्फाजी एक निम्नतम कोटि की कला है, फिर आजकल तो देश के बड़े-बडे नेता भी लफ्फाजी की धूल में नहा रहे हैं। विश्व राजनीति में फासीवाद ने लफ्फाजी को वैज्ञानिक रूप दिया था। इसके सबसे बड़े कलाकार हिटलर के सिपहसालार जनरल गोयबल्स थे, जिनकी गोयबेल्सी कला पूरी दुनिया में फैल गई है। भारत में भी इस कला का दर्शन पिछले कुछ वर्षों में केंद्रीय स्थान प्राप्त कर चुका है। इस कला को अपनाकर गरीब और असहाय लोगों की अल्पज्ञता और अज्ञानता का फायदा करोड़पतियों के लाभ में किया गया है। हमारे देश में हिटलर सर्वाधिक प्रसिद्ध तानाशाह है। एक अध्ययन के अनुसार हिटलर की आत्मकथा ‘माइन कांफ’ (मेरा संघर्ष) भारतीय भाषाओं में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में से एक है। हिटलर की आत्मकथा का शीर्षक ‘मेरा संघर्ष’ बहुत ही अर्थवान है। ऐसे लोग अपने आपको तपस्वी और त्यागी समझते हैं।  मेरा संघर्ष का एक वाक्य ही लाखों वाक्यों के बराबर है – ‘अनंत युद्ध से मानव जाति महान बनी है, अनंत शांति से मानव जाति नष्ट हो जाएगी।’ मुसोलिनी ने भी 1932 में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा था कि एकमात्र युद्ध ही मानव शक्तियों को चरम सीमा पर ले जाता है और उन राष्ट्रों पर श्रेष्ठत्व की मुहर लगा देता है, जिनमें इसे अपनाने का साहस होता है। क्या युद्ध भी ‘अपनाने’ वाली शय है? युद्ध की पैरवी करते इन संवादों की प्रतिध्वनि अचानक हमारे देश में क्यों सुनाई दे रही है? फासीवाद अपने ऊपर ‘लोक-कल्याण’ का साइनबोर्ड लगाकर मध्यवर्ग को अपने झंडे के नीचे इकट्ठा करने में सफल रहा है, लेकिन लोक-कल्याण के साइनबोर्ड की आड़ में पूंजीपति वर्ग का अकल्पनीय कल्याण होता है। इसी के फलस्वरूप हिटलर के शासनकाल में जर्मनी में करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ी थी। यह कहा जाता है कि जर्मनी में वित्तीय-पूंजी की पूर्ण तानाशाही थी। इसे पढ़ते हुए हमारे देश की नोटबंदी और जीएसटी की अव्यवस्थाओं का स्मरण होता है। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अनुसार ‘फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी, अंतरराष्ट्रीयतावादी और साम्राज्यवादी तत्त्वों की खुली आतंकवादी तानाशाही है।’ क्या इसके  दर्शन भारत में नहीं हो रहे? फासीवादी दर्शन का एक मुख्य तत्त्व वैज्ञानिक अनुसंधानों को नकारना और धर्म तथा आध्यात्मिकता की चर्चा करना है।

 यह आध्यात्मिकता एक विशेष धर्म और जाति की पवित्रता और उसके धार्मिक आराध्यों की बात करते हुए एक बहुमत वाले जनसमुदाय के लोगों को अपने पक्ष में गोलबंद करती है। इसी का परिणाम है कि आजकल बहुमत की जगह बहुसंख्यक वर्ग की बात होने लगी है। बहुसंख्यक वर्ग को बहुमत कहने से अल्पसंख्यक वर्ग के संकट बढ़ जाते हैं। इस तरह के विभाजन से देश में कानून के राज्य के खत्म हो जाने की संभावना बढ़ सकती है। डा. अंबेडकर के अनुसार भारत में बहुमत राजनीतिक बहुमत नहीं है। भारत में बहुमत पैदा होता है, इसका निर्माण नहीं किया जाता। सांप्रदायिक बहुमत और राजनीतिक बहुमत में यही अंतर है। कनाडा की पत्रकार, लेखिका और फिल्मकार नाओमी क्लेन कंपनियों के भूमंडलीकरण एवं विनाशक पूंजीवाद की कटु आलोचक हैं।

उन्होंने अपनी पहली पुस्तक ‘द शॉक डॉक्ट्रीन’ (सदमे का सिद्धांत) में स्पष्ट किया है कि कैसे पूंजीवादी व्यवस्थाएं आतंकवाद और आर्थिक नीतियों के सदमे से व्यक्ति एवं समाज को दुविधाग्रस्त बना देती हैं। क्लेन के अनुसार जिस प्रकार आतंकवादी सरकारों से अपनी बात मनवाते हैं, उसी तरह सरकारी आर्थिक नीतियों से भयभीत समाज से घातक पूंजीवाद भी अपनी आर्थिक योजनाएं स्वीकृत कराता है। बीसवीं सदी के युगांतकारी अर्थशास्त्री फ्रीडमैन ने मुक्त बाजार के सिद्धांत पर आधारित कारपोरेट-लोकतंत्र की रूपरेखा रखी थी। फ्रीडमैन सलाह देते हैं कि सदमे में पड़े समाज में कष्टकारी, लेकिन कंपनियों के लिए लाभकारी नीतियों को लागू कर देना चाहिए। देश के आकाश में यदि चीलें उड़ रही हों, तो सवाल यह नहीं है कि किस रंग की चीलें उड़ रही हैं। सवाल यह है कि उनकी दिशा क्या है? कुछ ऐसे सवाल होते हैं जो चुनावों के साथ खत्म नहीं होते। यह निरंतर जागरूक रहने और जागरूक करने का समय है।


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