खट्टे-मीठे स्वादिष्ट फलों से लदे काफल के दरख्त

संगड़ाह—औषधीय गुणों से भरपूर कई बीमारियों की रामबाण दवा समझे जाने वाले काफल के पेड़ इन दिनों पककर लाल हो चुके फलों से लद गए हैं। काफल का वैज्ञानिक नाम मेरिका एस्कुलेंटा है तथा जो शख्स एक बार इसका स्वाद चख लेता है कभी नहीं भूलता। सिरमौर जिला के उपमंडल संगड़ाह सहित हिमाचल व उत्तराखंड के कई पहाड़ी जंगलों के समुद्र तल से पांच से 10 हजार फुट ऊंचाई वाले हिमालयी जंगलों में पाया जाने वाला यह फल स्थानीय लोगों के अलावा क्षेत्र में इन दिनों पड़ोसी राज्यों से घूमने आने वाले सैलानियों की भी पहली पसंद बना हुआ है। पेड़ पर चढ़ सकने वाले लोग, जहां मुफ्त में काफल गटक सकते हैं, वहीं अन्य लोगों को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है अथवा बाजार से खरीदकर खाना पड़ता है। भारत के पहाड़ी राज्यों के अलावा नेपाल व चीन के हिमालय जंगलों में भी काफल पाया जाता है। इसके पेड़ की ऊंचाई 30 फुट के करीब रहती है तथा तने पर जगह-जगह टहनियां होने के कारण इस पर चढ़ना मुश्किल नहीं है। संगड़ाह से चौपाल, हरिपुरधार, गत्ताधार, शिलाई, राजगढ़ व नौहराधार की ओर जाने वाली सड़कों के साथ सैकड़ों हेक्टेयर भूमि पर काफल व बुरांस के सदाबहार हिमालयन जंगल मौजूद हंै। अप्रैल के अंत में स्ट्राबेरी जैसा दिखने वाला यह गुठलीदार फल पकता है तथा मई माह के अंत तक रहता है। सिरमौर के समीपवर्ती सोलन व शिमला जिला के शहरों व कस्बों में काफल कुछ लोगों के लिए अंशकालीन आय का साधन भी बना हुआ है। इन दिनों स्कूल व कालेज में छुट्टियां होने के बाद, जहां छात्र अथवा बच्चे काफल के पेड़ों पर चढ़ते देखे जाते हैं, वहीं छुट्टियों वाले दिन बच्चे व अन्य लोग पेड़ों से काफल के बैग भरकर घर भी ले जाते हैं। क्षेत्र के बुजुर्गों व आयुर्वेदिक औषधियों की जानकारी रखने वाले लोगों की मानें तो काफल अथवा मैरिका एस्कुलेंटा खून व हृदय संबंधी बीमारियों के साथ-साथ लू लगने, दस्त तथा चमड़ी के रोगों की भी रामबाण औषधी है। बरहाल उपमंडल संगड़ाह व अन्य हिमालयी इलाकों में इन दिनों लोग गर्मी में भी ठंड का अहसास दिलाने वाले काफल का स्वाद चख रहे हैं।