छितकुल क्षेत्र सांप, बिच्छु़ आदि से भरा है

By: May 29th, 2019 12:05 am

छितकुल क्षेत्र सांप-बिच्छु, छिपकली-मक्खी कीड़ा-मकोड़ा युक्त क्षेत्र है। सांप-बिच्छु आदि के मसतरङ खड्ड से पार छितकुल की सीमा में प्रवेश  होते ही वे  मूर्छित हो पड़े रहते हैं। खड्ड के पार आते ही वे पुनः चलना शुरू कर  देते हैं। स्थानीय  लोग इसे  छितकुल क्षेत्र की सुप्रसिद्ध ग्राम्यदेवी ‘ छितकुल माथी’ तथा उसके दामाद ‘ कारूदेव’ की करामात मानते हैं…

गतांक से आगे … 

करछम  में बसपा विद्युत परियोगना के चालू हो जाने के बद बसपा रूतुरङ के आगे अपने  रास्ते से न आकर सुरंग  के रास्ते आती है। और करछम में अपने संगम स्थल से कुछ फरलांग की दूरी पर बाहर निकल कर सतलुज में गिरती है। इस उपत्यका में स्थित मसतरङ से ऊपर का संपूर्ण छितकुल क्षेत्र सांप-बिच्छु, छिपकली-मक्खी कीड़ा-मकोड़ा युक्त क्षेत्र है।  सांप-बिच्छु आदि के मसतरङ खड्ड से पार छितकुल की सीमा में प्रवेश  होते ही वे  मूर्छित हो पड़े रहते हैं। खड्ड के पार आते ही वे पुनः चलना शुरू कर देते हैं। स्थानीय लोग इसे छितकुल क्षेत्र की सुप्रसिद्ध ग्राम्यदेवी ‘ छितकुल माथी’ तथा उसके दामाद ‘ कारूदेव’ की करामात मानते हैं। करछम से ओ ‘ चोलिङ’ पहुंचने के दाएं तट पर  युलङ उपत्यका के शिखर  से युला खड्ड जिसे  स्थानीय लोग ‘खोटोगो- गारङ’ भी कहते हैं। करछम से आगे बाएं तट पर  रोपङ (सापनी) की लिखिगारङ सतलुज में मिलती है। इसके आगे आने पर बाईं तरफ ‘ बाटीचुकिल्बा’ सरनी प्याला  सा (सुंदर) किल्बा गांव आता है। चोलिंङ से आगे  बढ़ने पर सतलुज की दाईं तरफ टापरी आता है। टापरी के ऊपर  ‘ चगांव’ जिसे स्थानीय लोग  ठोलङ, मेल्लगर, पनगर आदि खड्डे इसमें शामिल होती हैं। टापरी के पार  दुलिङ खड्ड जिस जगह पर सतलुज में मिलती है, उस जगह को तथा सुरची नाम की  दो खड्डों के मिलने  से बनकर आने वाली वंगर खड्ड इसमें मिलती हैं। वंगर का मूल रद्गम स्थान भाबा  उपत्यका का शीश तरेखगो  वङखर्गो दर्रे पर स्थित सरोवर विशेष जिसे लोग ‘तरेखगो सोरङ कहते हैं’ माना जाता है। वंगर में अब पहले की तरह पानी नहीं रहा है। क्योंकि इसके अधिकांश पानी को संजय विद्युत परियोजना  के लिए सुरंग के रास्ते वांगतु पुल से ढाई  किलोमीटर आगे सतुलज में गिराया गया है।  वांगतु तक सतलुज को बरसात के मौसम में भी सूखे में ही आना  पड़ता है। क्योंकि किन्नौर का यहां तक का  क्षेत्र रेन जोन से बाहर का क्षेत्र है। इसलिए  इस क्षेत्र में वर्षा में भी वर्षा नहीं होती, यदि होती भी है तो बहुत कम।  वांगतु पुल के बाद सतलुज के दाएं  तट पर निचार के छोत कंढे से आने वाली ‘छोत खड्ड’ इसमें मिलती है। इस खड्ड से ही निचार की सीमा शुरू होती है।


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