परम ज्ञान का संबंध

By: May 11th, 2019 12:05 am

बाबा हरदेव

महात्माओं के कथन के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का है, एक परिचय ज्ञान (ऊपरी ज्ञान) और दूसरा परमज्ञान (तत्त्व ज्ञान) जो बातें परिचय ज्ञान से संबंधित है, इनको विस्तार से कहने पर वो मनुष्य की समझ में आ जाती है, क्योंकि इस सूरत में परिचय (ऊपरी) का ही सवाल है, थोड़ा और विस्तार से बताने पर ख्याल में आ जाता है, लेकिन आध्यात्मिक जगत में जिसको ‘परम ज्ञान’ के नाम से संबोधित किया जाता है। तत्त्व से जानना कहा जाता है, ये जानना बेशक कितना ही विस्तार से कहा जाए ये जिज्ञासु की समझ में नहीं आ सकता, क्योंकि विस्तार का अर्थ होता है तत्यात्मक होना। मानो एक चीज के संदर्भ में हम और जान लें चारों तरफ घूमकर और पता लगा लें, मगर अध्यात्म में विस्तार का कोई खास मूल्य नहीं है। अब विस्तार से केवल परिचय ज्ञान (ऊपरी ज्ञान) प्राप्त होता है और ऐसा ज्ञान केवल ऊपरी तल तक ही सीमित होता है, क्योंकि विस्तार में एक ही बिंदु के आसपास अनेक बिंदुओं पर यात्रा करनी पड़ती है। जबकि ‘परम ज्ञान’ (आत्म ज्ञान) किसी प्रकार के विस्तार पर आधारित नहीं होता। ‘परम ज्ञान’ का संबंध तो गहराई से होता है, क्योंकि आत्म ज्ञान या परम ज्ञान में किसी एक ही बिंदु में गहरा उतरना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर परिचय ज्ञान (ऊपरी ज्ञान) ऐसे है, जैसे कोई मनुष्य नदी के पानी के ऊपर ही दूर तक तैर रहा हो और परम ज्ञान ऐसा है, जैसे कोई मनुष्य नदी के पानी में डुबकी लगा रहा हो। अतः डुबकी लगाने वाले को एक ही जगह डूब जाना पड़ता है। अतः जैसे सोचने और जानने में अंतर है। ऐसे ही ‘परिचय ज्ञान’ और ‘परम ज्ञान’ में फर्क है और जो लोग परम ज्ञान (आत्म ज्ञान) को भी विस्तार समझने लग जाते हैं । वो ‘परम ज्ञान’ से अकसर चूक जाते हैं, निःसंदेह ऐसे लोगों के पास परिचय ज्ञान (ऊपरी ज्ञान) का बहुत ज्यादा संग्रह तो होता है, क्योंकि ये विस्तार वाले नजरिए से तथ्यों के संकलन में जुटे रहते हैं, मगर इनका मन इतने नए-नए तथ्यों में बंट जाता है और वो इतनी-इतनी जगह भटकने लग जाता है कि इन्हें एक जगह रुककर प्रवेश करना मुश्किल हो जाता है। मानो इनके लिए परिचय ज्ञान का विस्तार ही एक बाधा बन जाता है।

बेद कतेब सिमृति सभि सासत

इन पडि़आ मुकति न होई

एकु अखरु जो गुरमुखि जापे

तिस की निरमल सोई

अतः ‘परम ज्ञान’ की जितनी भी घटनाएं हुई हैं, वो समय के सद्गुरु के एक रब्बी इशारे की ही देन है। जिज्ञासु के संग्रह किए हुए परिचय ज्ञान के या संग्रह किए हुए साधारण ज्ञान के कारण नहीं है। इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता, जहां परिचय ज्ञान (ऊपरी ज्ञान) के सवालों को ‘परम ज्ञान’ की उपलब्धि हुई हो, मगर इसके विपरीत इनको आत्म ज्ञान (परम ज्ञान) जरूर प्राप्त हुआ, जिन्होंने समय के सद्गुरु के चरणों में अपने आपको हर लिहाज से समर्पित कर दिया है। जैसे भगवान श्री राम, भगवान श्री कृष्ण, हजरत ईसा, हजरत मोहम्मद, गुरु साहिबान, संत कबीर जी, संत रविदास जी और बहुत से संत जिन्होंने अपने सद्गुरु की छत्रछाया में परम ज्ञान रूपी सरोवर में गहरी डुबकियां लगाईं और जिन्होंने हजारों लाखों जिज्ञासुओं को ‘परम ज्ञान’ के सरोवर में आध्यात्मिक स्नान करवाया।


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