पूर्ण मोदीत्व की ओर

By: May 24th, 2019 12:03 am

अनिल सोनी

चुनाव परिणाम मात्र एक व्यक्ति को इस हद तक जीत दिला सकता है, यह पहली बार इस तरह का व्यापक जनाधार है और इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति की दशा और विपक्ष की व्यथा पहले से बढ़ा दी है। खास तौर पर चुनाव स्वतंत्र भारत के इतिहास से निकली कांग्रेस के लिए पतन से कम नहीं, विपक्ष के तमाम गठबंधनों के लिए जातीय समीकरणों की उलझन में गुम होने सरीखा रहा, तो यह मानना पड़ेगा कि मोदी ने कहां-कहां घुस कर मारा है। सत्ता संयोजन के हर दांव में भाजपा अगर सशक्त हुई, तो यह चुनाव केवल उसी की बिसात पर अपनी कहानी लिख गया, वरना विपक्ष के मुद्दे और नेता सभी प्रकार से अप्रासंगिक हुए। मोदी का करिश्मा घर-घर गूंजा, तो संवाद का सियासी कौशल उन्हें अपराजेय बना गया। परिणाम मात्र सांसदों की गिनती में भाजपा की बढ़त का नहीं, बल्कि उस हवा का जिक्र है जो मोदीमय होने का सबूत बनती है। सियासत के दौर में विपक्ष पिछड़ा, तो चला वही जो मोदी की जुबान से निकला यानी जनता को जो कुछ प्रधानमंत्री ने बताया, वही सत्य माना गया। गजब के संवाद का सूत्रधार कोई प्रधानमंत्री हो सकता, यह परिमल है मोदीत्व को पाने का। इसलिए पुलवामा की घटना ने चुनाव की परीक्षा ली, तो बालाकोट स्ट्राइक ने विपक्ष की भी चिंदियां उड़ा दीं और फिर यकायक राष्ट्रवाद गूंजा – एक नई परिभाषा के साथ। यही मर्मस्पर्शी सतह थी, जहां से मोदी की फतह निश्चित थी। यहीं युवा वर्ग का जोश, नए वोट का अर्थ और भाजपा में होने की महत्त्वाकांक्षा एक साथ मिलकर भारी अंतर पैदा कर गई। नए आलोक में राष्ट्र की बदली मानसिकता को पढ़कर यह चुनाव करवट लेता रहा है, इसलिए विपक्ष मुद्दे उठाकर भी परिणामों की बात नहीं कर सका। यानी सियासत ने जो चुना, उसका सारा घाटा विपक्ष को हुआ और ठीकरा फिर राहुल गांधी के सिर पर फूटेगा। यूपीए के घटक कहीं कमतर दिखाई दिए, तो कहीं सिमट गए। जिन राज्य सरकारों में कांग्रेस थी, उन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों के मतदाताओं ने भी अगर पार्टी की छाती पर मूंग दले, तो इसका अर्थ समझना होगा। राजनीति एक ब्रांड हो सकती है या कोई मोदी जैसा ब्रांड इसे अपनी उम्मीदों के अनुरूप जोत सकता है, यह साबित हो गया। मोदी का व्यक्तित्व ही अगर देश के बाहुल्य में पसंद बन गया, तो यह राजनीति का नया अवतार और उम्मीदों का देवस्वरूप ग्रहण करने जैसा चमत्कार क्यों न माना जाए। मोदी का निर्णायक होना तथा निर्णायक दिखाई देना आज की युवा पीढ़ी का नया राजनीतिक स्लोगन है, इसलिए अन्य पार्टियों के नेता अप्रासंगिक दिखाई दिए। इसे हम हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में भी समझ सकते हैं, जहां राष्ट्रीय संवेदना इस हद तक घर कर गई कि कुल मतदान का सत्तर फीसदी हिस्सा मोदी की झोली में चला गया और कांग्रेस बगलें झांकती रह गई। कांगड़ा-चंबा संसदीय क्षेत्र से किशन कपूर की रिकार्ड करीब पौने पांच लाख मतों से जीत का जश्न हो या चौथी बार हमीरपुर से अनुराग ठाकुर का वर्चस्व रहा हो, भाजपा ने कांग्रेस को चारों खाने चित्त किया है। शिमला से सुरेश कश्यप तथा मंडी से रामस्वरूप शर्मा की तीन लाख मतों से कहीं अधिक की जीत से पूरे राजनीति समीकरणों की हवा बदल रही है, तो यह हिमाचल सरकार के आत्मबल को सशक्त करती है। जाहिर तौर पर प्रदेश ने पुनः चारों सीटें मोदी को सौंप कर मुख्यमंत्री को सशक्त तथा स्वतंत्र फैसलों की दिशा में और मजबूत किया है। भाजपा को लोगों ने ब्रांड मोदी की छवि में स्वीकार किया है, तो कुछ गुण हिमाचल सरकार में नए तेवरों के साथ परिलक्षित होंगे। केंद्र व राज्य के बीच फिर से नया सेतु आम मतदाता की उम्मीदों को चला पाया, तो इस जीत के पैगंबर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बनेंगे।  


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