मंच हमारा, माला तेरी

By: May 15th, 2019 12:04 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

जिस समय वह मेरे यहां आए, चिंता की लकीरें ललाट पर स्पष्ट रूप से दिख रही थीं। वह मेरे परमप्रिय थे। इसलिए बोला-क्यों, क्या बात है? मेरे लायक कोई कार्य हो, तो बताओ। वह रूआंसे होकर बोले – शर्मा मुझे बचा लो। मेरी लाज तुम्हारे हाथ में है। मेरी इज्जत दांव पर लग गई है। अपनी संस्था का वार्षिक कार्यक्रम वर्ष बीतने को आया, लेकिन हो नहीं पा रहा है। साफ बात है कि संस्था आर्थिक विषमता में जी रही है। मैंने कहा – तो कहिए मुझे करना क्या है? गिरधर जी बोले – तुम ऐसा करो, इस वर्ष का सम्मान ले लो। मेरी और संस्था की नाक बच जाएगी। मैं उनकी बात पर हंस पड़ा और बोला, इस वर्ष का साहित्य शिरोमणि सम्मान मैं ले लूंगा। आप तो चिंता त्यागो और सम्मान की तैयारी करो। गिरधर जी लगभग पसर से गए और मौन साध गए। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने फिर कहा – क्यों अब क्या बात है? मैं सम्मान ले लूंगा, मना थोड़े ही कर  रहा हूं। शर्मा, तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते। मैंने अभी कहा कि संस्था पूरी तरह दिवालिया है। मंच तो दे सकती है, लेकिन माता और दुशाला का इंतजाम कैसे होगा, सम्मान लेने वाले तो बहुत से हैं। तुम्हारी खुशामद करने का मेरा मतलब यही है कि तुम मंच के अलावा सारा इंतजाम नेपथ्य से करो। गिरधर जी की बात सुनकर मुझे सांप सूंघ गया, समझ में ही नहीं आया कि क्या जवाब दूं। हालांकि सम्मान की लार मेरे मुंह में आ चुकी थी। मैंने कहा – मैं आपकी बात समझ गया गिरधर जी, लेकिन पैसे से तो मैं भी बहुत तंग हूं। गिरधर जी अत्यंत निराश भाव से बोले- तो फिर रहने दो शर्मा। मैं किसी और से बात करता हूं। तुम क्या पत्नी के आभूषण दांव पर नहीं लगा सकते? खर्चा क्या है, कार्ड छपवाने हैं, पचास मालाएं लानी हैं, शॉल लाना है और दो सौ आदमियों के जलपान की व्यवस्था करनी है। कुल पांच हजार में ‘साहित्य शिरोमणि’ हो जाओगे। गिरधर जी की बातों से एक बार तो पैरों की जमीन खिसकी, लेकिन दूसरे ही क्षण मैंने स्वयं को संभाला। मन में सोचा अगर मान जाऊं, तो मेरे लिखे हुए शब्दों को मान्यता मिल जाएगी, परंतु मैंने यह अवसर खोया, तो गिरधर जी किसी और को दे देंगे।


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