शहर में काला रंग बिका है जनाब

By: May 24th, 2019 12:04 am

चुनाव परिणाम आने के बाद कोने में दुबकी खबरों को जीने का एहसास हुआ। चुनाव के शोर में खो गया सामाजिक सरोकार और अपहृत समाज पुनः अपनी दिनचर्या में लौट आया। बिना किसी आलोक के राजनीतिक लोक में विचरते विचार और उन पर मेहंदी लगा प्रचार मोहित करता रहा या कहीं सियासी दीमक ने तर्कों को ही चाट लिया, जो इस तरह चुनाव दर चुनाव राष्ट्रीय मकसद भोथरा रहा है। चुनाव में खोया-पाया की लंबी फेहरिस्त के बीच ‘सोने पे सुहागा’ ढूंढने चलेंगे, तो शायद आत्म ग्लानी होगी या अंधे सरोकारों पर कोई मखमली चादर बिछ जाएगी। यह इसलिए कि राष्ट्रीय जज्बात भी अब एक पक्षीय हो गए या हम चुनाव की जीत के लिए देश के भीतर मतभेद का दुर्ग बन गए। होली की तरह उन्मादी चुनाव के रंग जब निचुड़ेंगे, तो किसी एक को पहचानना भी मुश्किल होगा, क्योंकि इस शहर में इस बार काला रंग ही सबसे अधिक बिका है। हमारे मोहल्ले का गुलाल न जाने कौन ले गया, हमने तो जो बंटा उसी में से चुटकी भर देखा था – जो मिट्टी का रंग नहीं था। हमारी उम्मीदों का भी यह रंग नहीं, जो हर बार चुनाव के बहाने घर की सारी दीवारों को पोत जाता है। गांव की दीवारों को शिकायत है, क्योंकि किसी ने मंदिर से चुराकर पोता, किसी ने मस्जिद से। रंग के बंटवारे में जातियों ने भी क्या खूब चमकाए चेहरे, लेकिन जब नकाब उतरा तो कोई एक-दूसरे को मुंह दिखाने लायक  भी नहीं बचा। पार्टियों ने टिकट बांटे, जातियों ने इनसान बांट लिए। इस चुनाव ने मतदाता से उसका विवेक इस कद्र छीना कि न यह कहे वह सच और न वो कहे वह सच रहा। सच था ही कहां और तथ्यों का सोना भी तांबा बन गया, तो क्या एक चुनाव के माध्यम से हम इतिहास की मिट्टी बदल सकते हैं। जो आज तक नहीं हुआ, वह इस बार कितना हुआ, इस पर बहस हो सकती है। फिर भी जो हुआ, पूर्व के विमर्श से अनछुआ था। हम सभी मतदाता बाजार में नहीं, तो कबाड़ में तो जरूर थे, क्योंकि प्रचार की संगत में समाज की न रीति बची – न रीढ़ रही। गौरव के रोशनदान से चुनाव ने बालाकोट विध्वंस तक देख लिया, मगर जहां अपनी गलियां उखड़ीं वहां उस दुश्मन का निशान न मिला। चुनावी महल के सपनों में जो आसमान था, शायद इसी की बारिश से परिणाम बरसा हो, लेकिन कोई बताए कि किसी ने चीखती बेरोजगारी को कहीं देखा। जो नोटबंदी में फटे नोट की तरह थे, वे सारे चुनावी पोस्टर के फटने पर भी बाहर नहीं दिखाई दिए, तो भरोसा करना होगा और जो कहा जाए उसे मानने में भलाई है। इस बार अगर नींद नहीं उड़ी, तो मीडिया के पालने में विचारों का सोना और खिलौने की तरह इसकी चाबी से चलना अब हमारे लोकतंत्र की नीयत है। क्या इस चुनाव ने मीडिया को परख लिया या इसके पास खुद को बताने का कोई हिसाब रहा होगा। जो भी हो मीडिया ने चुनाव को सोने नहीं दिया, बल्कि वहीं रखा जहां वह खुद भी कसूरवार रहा या जिसके लिए सारे कठघरे खड़े थे। जो सूंघा-उसमें सौंधी खुशबू नहीं थी। जो चखा-उसमें नमक हरामी नहीं थी। ऐसे मीडिया को चुनाव ने कितना चुना और इस परिणाम में कितना बचा, यह हिसाब कुछ बौद्धिक मर्यादा तक तो सही है, वरना मतदान से पहले बहस के परिदृश्य जिस शिद्दत से दिमाग खाली करते रहे, न मालूम देश में मस्तिष्क से सोचना भी अब गंवारा होगा कि नहीं। देश इस दौर में स्वयंभू नायकत्व के औजार देखता रहा और इसीलिए क्षेत्रीय क्षत्रप अपने हुंकारों से जीत की राह देखते रहे। मुद्दों से गायब परिदृश्य जो जीता, उसे लोकतंत्र का जादू कहें या कोई जादूगर भी बन सकता है, परिणामों की लंबी फेहरिस्त में ऐसे करिश्मे को नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता।


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