हिरण्यकशिपु के वध को विष्णु ने लिया नृसिंह अवतार 

By: May 11th, 2019 12:08 am

प्रतिभाशाली बालक ने अर्थ, धर्म, काम की शिक्षा सम्यक रूप से प्राप्त की, परंतु जब पुनः पिता ने उससे पूछा तो उसने श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन, इन नौ भक्तियों को ही श्रेष्ठ बताया….

नृसिंह अवतार हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से चतुर्थ अवतार हैं जो वैशाख में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अवतरित हुए।

पौराणिक कथा

पृथ्वी के उद्धार के समय भगवान ने वाराह अवतार धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया। उसका बड़ा भाई हिरण्यकशिपु बड़ा रुष्ट हुआ। उसने अजेय होने का संकल्प किया। सहस्त्रों वर्ष बिना जल के वह सर्वथा स्थिर तप करता रहा। ब्रह्मा जी संतुष्ट हुए। दैत्य को वरदान मिला। उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। लोकपालों को मार भगा दिया। स्वतः संपूर्ण लोकों का अधिपति हो गया। देवता निरुपाय थे। असुर को किसी प्रकार वे पराजित नहीं कर सकते थे।

नृसिंह अवतार

‘बेटा, तुझे क्या अच्छा लगता है?’ दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने एक दिन सहज ही अपने चारों पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद से पूछा। ‘इन मिथ्या भोगों को छोड़कर वन में श्री हरि का भजन करना।’ बालक प्रह्लाद का उत्तर स्पष्ट था। दैत्यराज जब तप कर रहे थे, देवताओं ने असुरों पर आक्रमण किया। असुर उस समय भाग गए थे। यदि देवर्षि न छुड़ाते तो दैत्यराज की पत्नी कयाधु को इंद्र पकड़े ही लिए जाते थे। देवर्षि ने कयाधु को अपने आश्रम में शरण दी। उस समय प्रह्लाद गर्भ में थे। वहीं से देवर्षि के उपदेशों का उन पर प्रभाव पड़ चुका था। ‘इसे आप लोग ठीक-ठीक शिक्षा दें।’ दैत्यराज ने पुत्र को आचार्य शुक्र के पुत्र षण्ड तथा अमर्क के पास भेज दिया। दोनों गुरुओं ने प्रयत्न किया। प्रतिभाशाली बालक ने अर्थ, धर्म, काम की शिक्षा सम्यक रूप से प्राप्त की, परंतु जब पुनः पिता ने उससे पूछा तो उसने श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन, इन नौ भक्तियों को ही श्रेष्ठ बताया। ‘इसे मार डालो। यह मेरे शत्रु का पक्षपाती है।’ रुष्ट दैत्यराज ने आज्ञा दी। असुरों ने आघात किया। भल्ल-फलक मुड़ गए, खड़ग टूट गया, त्रिशूल टेढ़े हो गए, पर वह कोमल शिशु अक्षत रहा। दैत्य चौंका। प्रह्लाद को विष दिया गया, पर वह जैसे अमृत हो। सर्प छोड़े गए उनके पास और वे फण उठाकर झूमने लगे। मत्त गजराज ने उठाकर उन्हें मस्तक पर रख लिया। पर्वत से नीचे फेंकने पर वे ऐसे उठ खड़े हुए जैसे शय्या से उठे हों। समुद्र में पाषाण बांधकर डुबोने पर दो क्षण पश्चात ऊपर आ गए। घोर चिता में उनको लपटें शीतल प्रतीत हुई। गुरु पुत्रों ने मंत्रबल से कृत्या (राक्षसी) उन्हें मारने के लिए उत्पन्न की तो वह गुरु पुत्रों को ही प्राणहीन कर गई। प्रह्लाद ने प्रभु की प्रार्थना करके उन्हें जीवित किया। अंत में वरुण पाश से बांधकर गुरु पुत्र पुनः उन्हें पढ़ाने ले गए। वहां प्रह्लाद समस्त बालकों को भगवद्-भक्ति की शिक्षा देने लगे। भयभीत गुरु पुत्रों ने दैत्येंद्र से प्रार्थना की, ‘यह बालक सब बच्चों को अपना ही पाठ पढ़ा रहा है!’ ‘तू किस के बल से मेरे अनादर पर तुला है?’ हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बांध दिया और स्वयं खड्ग उठाया। ‘जिसका बल आप में तथा समस्त चराचर में है!’ प्रह्लाद निर्भय थे। ‘कहां है वह?’ ‘मुझमें, आप में, खड्ग में, सर्वत्र!’ ‘सर्वत्र, इस स्तंभ में भी?’ ‘निश्चय!’ प्रह्लाद के वाक्य के साथ दैत्य ने खंभे पर घूसा मारा। वह और समस्त लोक चौंक गए। स्तंभ से बड़ी भयंकर गर्जना का शब्द हुआ। एक ही क्षण पश्चात दैत्य ने देखा, समस्त शरीर मनुष्य का और मुख सिंह का, बड़े-बड़े नख एवं दांत, प्रज्वलित नेत्र, स्वर्णिम सटाएं, बड़ी भीषण आकृति खंभे से प्रकट हुई। दैत्य के अनुचर झपटे और मारे गए अथवा भाग गए।  हरण्यकशिपु को भगवान नृसिंह ने पकड़ लिया। ‘मुझे ब्रह्माजी ने वरदान दिया है!’ छटपटाते हुए दैत्य चिल्लाया। ‘दिन में या रात में न मरूंगा, कोई देव, दैत्य, मानव, पशु मुझे न मार सकेगा। भवन में या बाहर मेरी मृत्यु न होगी। समस्त शस्त्र मुझ पर व्यर्थ सिद्ध होंगे। भूमि, जल, गगन-सर्वत्र मैं अवध्य हूं।’ नृसिंह बोले, ‘यह संध्या काल है। मुझे देख कि मैं कौन हूं। यह द्वार की देहली, ये मेरे नख और यह मेरी जंघा पर पड़ा तू।’ अट्टहास करके भगवान ने नखों से उसके वक्ष को विदीर्ण कर डाला। वह उग्र रूप देखकर देवता डर गए, ब्रह्मा जी अवसन्न हो गए, महालक्ष्मी दूर से लौट आईं, पर प्रह्लाद-वे तो प्रभु के वर प्राप्त पुत्र थे। उन्होंने स्तुति की। भगवान नृसिंह ने गोद में उठा कर उन्हें बैठा लिया और स्नेह से चाटने लगे।


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