कविता नववर्ष के सौपान

By: Jun 2nd, 2019 12:03 am

धूप का टुकड़ा

दुबक कर भीतर ढुका

एक खरगोश

बैठ रहा बिना झपके आंखें

मदहोश

सरक गया इक युग दशकों का

भूला भटका ढरक गया ढूंढने

एक आगोश

आवाज मूक हो गई/गुम हो गए शब्द

थम गई हवा/फैला वातास थिर हुआ

बेहोश।

आओ जरा उन जख्मों को खंगालें

टीस जिनकी टीसती रही थी वर्ष भर

आओ उन निशानों को तलाशें

जो अभी भी रक्तिम रंग से भीगे हैं

चलो लगाएं और निशां इस वर्ष

भर दें उनमें नीलाभ और श्वेत रंग

और फैला दें बाहें

समा जाएं जिनमें हम, तुम और वोह

जो सदा रक्तिम निशां लगाते रहे हैं।

-स्वर्गीय अशोक जैरथ ( कविता उनके पुत्र सौरभ जैरथ ने उपलब्ध करवाई)

 


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